अयोध्याकाण्ड: भाग-छह
• श्री राम-भरतादि का संवाद
• जनकजी का पहुँचना, कोल किरातादि की भेंट, सबका परस्पर मिलाप
• कौसल्या सुनयना-संवाद, श्री सीताजी का शील
• जनक-सुनयना संवाद, भरतजी की महिमा
• जनक-वशिष्ठादि संवाद, इंद्र की चिंता, सरस्वती का इंद्र को समझाना
• श्री राम-भरत संवाद
• भरतजी का तीर्थ जल स्थापन तथा चित्रकूट भ्रमण
अयोध्याकांड में श्रीराम वनगमन से लेकर श्रीराम-भरत मिलाप तक के घटनाक्रम
आते हैं। नीचे अयोध्याकांड से जुड़े घटनाक्रमों की विषय सूची दी गई है।
• श्री राम-भरतादि का संवाद
• जनकजी का पहुँचना, कोल किरातादि की भेंट, सबका परस्पर मिलाप
• कौसल्या सुनयना-संवाद, श्री सीताजी का शील
• जनक-सुनयना संवाद, भरतजी की महिमा
• जनक-वशिष्ठादि संवाद, इंद्र की चिंता, सरस्वती का इंद्र को समझाना
• श्री राम-भरत संवाद
• भरतजी का तीर्थ जल स्थापन तथा चित्रकूट भ्रमण
श्री राम-भरतादि का संवाद
दोहा :
* भरत बिनय सादर सुनिअ करिअ बिचारु बहोरि।
करब साधुमत लोकमत नृपनय निगम निचोरि॥258॥
करब साधुमत लोकमत नृपनय निगम निचोरि॥258॥
भावार्थ:-पहले भरत की
विनती आदरपूर्वक सुन लीजिए, फिर उस पर विचार कीजिए। तब साधुमत, लोकमत,
राजनीति और वेदों का निचोड़ (सार) निकालकर वैसा ही (उसी के अनुसार)
कीजिए॥258॥
चौपाई :
* गुर अनुरागु भरत पर देखी। राम हृदयँ आनंदु बिसेषी॥
भरतहि धरम धुरंधर जानी। निज सेवक तन मानस बानी॥1॥
भरतहि धरम धुरंधर जानी। निज सेवक तन मानस बानी॥1॥
भावार्थ:-भरतजी पर
गुरुजी का स्नेह देखकर श्री रामचन्द्रजी के हृदय में विशेष आनंद हुआ। भरतजी
को धर्मधुरंधर और तन, मन, वचन से अपना सेवक जानकर-॥1॥
* बोले गुरु आयस अनुकूला। बचन मंजु मृदु मंगलमूला॥
नाथ सपथ पितु चरन दोहाई। भयउ न भुअन भरत सम भाई॥2॥
नाथ सपथ पितु चरन दोहाई। भयउ न भुअन भरत सम भाई॥2॥
भावार्थ:-श्री
रामचन्द्रजी गुरु की आज्ञा अनुकूल मनोहर, कोमल और कल्याण के मूल वचन बोले-
हे नाथ! आपकी सौगंध और पिताजी के चरणों की दुहाई है (मैं सत्य कहता हूँ कि)
विश्वभर में भरत के समान कोई भाई हुआ ही नहीं॥2॥
* जे गुर पद अंबुज अनुरागी। ते लोकहुँ बेदहुँ बड़भागी॥
राउर जा पर अस अनुरागू। को कहि सकइ भरत कर भागू॥3॥
राउर जा पर अस अनुरागू। को कहि सकइ भरत कर भागू॥3॥
भावार्थ:-जो लोग गुरु के
चरणकमलों के अनुरागी हैं, वे लोक में (लौकिक दृष्टि से) भी और वेद में
(परमार्थिक दृष्टि से) भी बड़भागी होतें हैं! (फिर) जिस पर आप (गुरु) का ऐसा
स्नेह है, उस भरत के भाग्य को कौन कह सकता है?॥3॥
* लखि लघु बंधु बुद्धि सकुचाई। करत बदन पर भरत बड़ाई॥
भरतु कहहिं सोइ किएँ भलाई। अस कहि राम रहे अरगाई॥4॥
भरतु कहहिं सोइ किएँ भलाई। अस कहि राम रहे अरगाई॥4॥
भावार्थ:-छोटा भाई जानकर
भरत के मुँह पर उसकी बड़ाई करने में मेरी बुद्धि सकुचाती है। (फिर भी मैं
तो यही कहूँगा कि) भरत जो कुछ कहें, वही करने में भलाई है। ऐसा कहकर श्री
रामचन्द्रजी चुप हो रहे॥4॥
दोहा :
* तब मुनि बोले भरत सन सब सँकोचु तजि तात।
कृपासिंधु प्रिय बंधु सन कहहु हृदय कै बात॥259॥
कृपासिंधु प्रिय बंधु सन कहहु हृदय कै बात॥259॥
भावार्थ:-तब मुनि भरतजी से बोले- हे तात! सब संकोच त्यागकर कृपा के समुद्र अपने प्यारे भाई से अपने हृदय की बात कहो॥259॥
चौपाई :
* सुनि मुनि बचन राम रुख पाई। गुरु साहिब अनुकूल अघाई॥
लखि अपनें सिर सबु छरु भारू। कहि न सकहिं कछु करहिं बिचारू॥1॥
लखि अपनें सिर सबु छरु भारू। कहि न सकहिं कछु करहिं बिचारू॥1॥
भावार्थ:-मुनि के वचन
सुनकर और श्री रामचन्द्रजी का रुख पाकर गुरु तथा स्वामी को भरपेट अपने
अनुकूल जानकर सारा बोझ अपने ही ऊपर समझकर भरतजी कुछ कह नहीं सकते। वे विचार
करने लगे॥1॥
* पुलकि सरीर सभाँ भए ठाढ़े। नीरज नयन नेह जल बाढ़े॥
कहब मोर मुनिनाथ निबाहा। एहि तें अधिक कहौं मैं काहा॥2॥
कहब मोर मुनिनाथ निबाहा। एहि तें अधिक कहौं मैं काहा॥2॥
भावार्थ:-शरीर से पुलकित
होकर वे सभा में खड़े हो गए। कमल के समान नेत्रों में प्रेमाश्रुओं की बाढ़ आ
गई। (वे बोले-) मेरा कहना तो मुनिनाथ ने ही निबाह दिया (जो कुछ मैं कह
सकता था वह उन्होंने ही कह दिया)। इससे अधिक मैं क्या कहूँ?॥2॥
* मैं जानउँ निज नाथ सुभाऊ। अपराधिहु पर कोह न काऊ॥
मो पर कृपा सनेहु बिसेषी। खेलत खुनिस न कबहूँ देखी॥3॥
मो पर कृपा सनेहु बिसेषी। खेलत खुनिस न कबहूँ देखी॥3॥
भावार्थ:-अपने स्वामी का
स्वभाव मैं जानता हूँ। वे अपराधी पर भी कभी क्रोध नहीं करते। मुझ पर तो
उनकी विशेष कृपा और स्नेह है। मैंने खेल में भी कभी उनकी रीस (अप्रसन्नता)
नहीं देखी॥3॥
* सिसुपन तें परिहरेउँ न संगू। कबहुँ न कीन्ह मोर मन भंगू॥
मैं प्रभु कृपा रीति जियँ जोही। हारेहूँ खेल जितावहिं मोही॥4॥
मैं प्रभु कृपा रीति जियँ जोही। हारेहूँ खेल जितावहिं मोही॥4॥
भावार्थ:-बचपन में ही
मैंने उनका साथ नहीं छोड़ा और उन्होंने भी मेरे मन को कभी नहीं तोड़ा (मेरे
मन के प्रतिकूल कोई काम नहीं किया)। मैंने प्रभु की कृपा की रीति को हृदय
में भलीभाँति देखा है (अनुभव किया है)। मेरे हारने पर भी खेल में प्रभु
मुझे जिता देते रहे हैं॥4॥
दोहा :
* महूँ सनेह सकोच बस सनमुख कही न बैन।
दरसन तृपित न आजु लगि प्रेम पिआसे नैन॥260॥
दरसन तृपित न आजु लगि प्रेम पिआसे नैन॥260॥
भावार्थ:-मैंने भी प्रेम और संकोचवश कभी सामने मुँह नहीं खोला। प्रेम के प्यासे मेरे नेत्र आज तक प्रभु के दर्शन से तृप्त नहीं हुए॥260॥
चौपाई :
* बिधि न सकेऊ सहि मोर दुलारा। नीच बीचु जननी मिस पारा॥
यहउ कहत मोहि आजु न सोभा। अपनीं समुझि साधु सुचि को भा॥1॥
यहउ कहत मोहि आजु न सोभा। अपनीं समुझि साधु सुचि को भा॥1॥
भावार्थ:-परन्तु विधाता
मेरा दुलार न सह सका। उसने नीच माता के बहाने (मेरे और स्वामी के बीच) अंतर
डाल दिया। यह भी कहना आज मुझे शोभा नहीं देता, क्योंकि अपनी समझ से कौन
साधु और पवित्र हुआ है? (जिसको दूसरे साधु और पवित्र मानें, वही साधु
है)॥1॥
* मातु मंदि मैं साधु सुचाली। उर अस आनत कोटि कुचाली॥
फरइ कि कोदव बालि सुसाली। मुकता प्रसव कि संबुक काली॥2॥
फरइ कि कोदव बालि सुसाली। मुकता प्रसव कि संबुक काली॥2॥
भावार्थ:-माता नीच है और
मैं सदाचारी और साधु हूँ, ऐसा हृदय में लाना ही करोड़ों दुराचारों के समान
है। क्या कोदों की बाली उत्तम धान फल सकती है? क्या काली घोंघी मोती
उत्पन्न कर सकती है?॥2॥
* सपनेहूँ दोसक लेसु न काहू। मोर अभाग उदधि अवगाहू॥
बिनु समुझें निज अघ परिपाकू। जारिउँ जायँ जननि कहि काकू॥3॥
बिनु समुझें निज अघ परिपाकू। जारिउँ जायँ जननि कहि काकू॥3॥
भावार्थ:-स्वप्न में भी
किसी को दोष का लेश भी नहीं है। मेरा अभाग्य ही अथाह समुद्र है। मैंने अपने
पापों का परिणाम समझे बिना ही माता को कटु वचन कहकर व्यर्थ ही जलाया॥3॥
* हृदयँ हेरि हारेउँ सब ओरा। एकहि भाँति भलेहिं भल मोरा॥
गुर गोसाइँ साहिब सिय रामू। लागत मोहि नीक परिनामू॥4॥
गुर गोसाइँ साहिब सिय रामू। लागत मोहि नीक परिनामू॥4॥
भावार्थ:-मैं अपने हृदय
में सब ओर खोज कर हार गया (मेरी भलाई का कोई साधन नहीं सूझता)। एक ही
प्रकार भले ही (निश्चय ही) मेरा भला है। वह यह है कि गुरु महाराज सर्वसमर्थ
हैं और श्री सीता-रामजी मेरे स्वामी हैं। इसी से परिणाम मुझे अच्छा जान
पड़ता है॥4॥
दोहा :
* साधु सभाँ गुर प्रभु निकट कहउँ सुथल सतिभाउ।
प्रेम प्रपंचु कि झूठ फुर जानहिं मुनि रघुराउ॥261॥
प्रेम प्रपंचु कि झूठ फुर जानहिं मुनि रघुराउ॥261॥
भावार्थ:-साधुओं की सभा
में गुरुजी और स्वामी के समीप इस पवित्र तीर्थ स्थान में मैं सत्य भाव से
कहता हूँ। यह प्रेम है या प्रपंच (छल-कपट)? झूठ है या सच? इसे (सर्वज्ञ)
मुनि वशिष्ठजी और (अन्तर्यामी) श्री रघुनाथजी जानते हैं॥261॥
चौपाई :
* भूपति मरन प्रेम पनु राखी। जननी कुमति जगतु सबु साखी॥
देखि न जाहिं बिकल महतारीं। जरहिं दुसह जर पुर नर नारीं॥1॥
देखि न जाहिं बिकल महतारीं। जरहिं दुसह जर पुर नर नारीं॥1॥
भावार्थ:-प्रेम के प्रण
को निबाहकर महाराज (पिताजी) का मरना और माता की कुबुद्धि, दोनों का सारा
संसार साक्षी है। माताएँ व्याकुल हैं, वे देखी नहीं जातीं। अवधपुरी के
नर-नारी दुःसह ताप से जल रहे हैं॥1॥
* महीं सकल अनरथ कर मूला। सो सुनि समुझि सहिउँ सब सूला॥
सुनि बन गवनु कीन्ह रघुनाथा। करि मुनि बेष लखन सिय साथा॥2॥
बिनु पानहिन्ह पयादेहि पाएँ। संकरु साखि रहेउँ एहि घाएँ॥
बहुरि निहारि निषाद सनेहू। कुलिस कठिन उर भयउ न बेहू॥3॥
सुनि बन गवनु कीन्ह रघुनाथा। करि मुनि बेष लखन सिय साथा॥2॥
बिनु पानहिन्ह पयादेहि पाएँ। संकरु साखि रहेउँ एहि घाएँ॥
बहुरि निहारि निषाद सनेहू। कुलिस कठिन उर भयउ न बेहू॥3॥
भावार्थ:-मैं ही इन सारे
अनर्थों का मूल हूँ, यह सुन और समझकर मैंने सब दुःख सहा है। श्री रघुनाथजी
लक्ष्मण और सीताजी के साथ मुनियों का सा वेष धारणकर बिना जूते पहने
पाँव-प्यादे (पैदल) ही वन को चले गए, यह सुनकर, शंकरजी साक्षी हैं, इस घाव
से भी मैं जीता रह गया (यह सुनते ही मेरे प्राण नहीं निकल गए)! फिर
निषादराज का प्रेम देखकर भी इस वज्र से भी कठोर हृदय में छेद नहीं हुआ (यह
फटा नहीं)॥2-3॥
*अब सबु आँखिन्ह देखेउँ आई। जिअत जीव जड़ सबइ सहाई॥
जिन्हहि निरखि मग साँपिनि बीछी। तजहिं बिषम बिषु तामस तीछी॥4॥
जिन्हहि निरखि मग साँपिनि बीछी। तजहिं बिषम बिषु तामस तीछी॥4॥
भावार्थ:-अब यहाँ आकर सब
आँखों देख लिया। यह जड़ जीव जीता रह कर सभी सहावेगा। जिनको देखकर रास्ते की
साँपिनी और बीछी भी अपने भयानक विष और तीव्र क्रोध को त्याग देती हैं-॥4॥
दोहा :
* तेइ रघुनंदनु लखनु सिय अनहित लागे जाहि।
तासु तनय तजि दुसह दुख दैउ सहावइ काहि॥262॥
तासु तनय तजि दुसह दुख दैउ सहावइ काहि॥262॥
भावार्थ:-वे ही श्री रघुनंदन, लक्ष्मण और सीता जिसको शत्रु जान पड़े, उस कैकेयी के पुत्र मुझको छोड़कर दैव दुःसह दुःख और किसे सहावेगा?॥262॥
चौपाई :
* सुनि अति बिकल भरत बर बानी। आरति प्रीति बिनय नय सानी॥
सोक मगन सब सभाँ खभारू। मनहुँ कमल बन परेउ तुसारू॥1॥
सोक मगन सब सभाँ खभारू। मनहुँ कमल बन परेउ तुसारू॥1॥
भावार्थ:-अत्यन्त
व्याकुल तथा दुःख, प्रेम, विनय और नीति में सनी हुई भरतजी की श्रेष्ठ वाणी
सुनकर सब लोग शोक में मग्न हो गए, सारी सभा में विषाद छा गया। मानो कमल के
वन पर पाला पड़ गया हो॥1॥
* कहि अनेक बिधि कथा पुरानी। भरत प्रबोधु कीन्ह मुनि ग्यानी॥
बोले उचित बचन रघुनंदू। दिनकर कुल कैरव बन चंदू॥2॥
बोले उचित बचन रघुनंदू। दिनकर कुल कैरव बन चंदू॥2॥
भावार्थ:-तब ज्ञानी मुनि
वशिष्ठजी ने अनेक प्रकार की पुरानी (ऐतिहासिक) कथाएँ कहकर भरतजी का समाधान
किया। फिर सूर्यकुल रूपी कुमुदवन के प्रफुल्लित करने वाले चन्द्रमा श्री
रघुनंदन उचित वचन बोले-॥2॥
* तात जायँ जियँ करहु गलानी। ईस अधीन जीव गति जानी॥
तीनि काल तिभुअन मत मोरें। पुन्यसिलोक तात तर तोरें॥3॥
तीनि काल तिभुअन मत मोरें। पुन्यसिलोक तात तर तोरें॥3॥
भावार्थ:-हे तात! तुम
अपने हृदय में व्यर्थ ही ग्लानि करते हो। जीव की गति को ईश्वर के अधीन
जानो। मेरे मत में (भूत, भविष्य, वर्तमान) तीनों कालों और (स्वर्ग, पृथ्वी
और पाताल) तीनों लोकों के सब पुण्यात्मा पुरुष तुम से नीचे हैं॥3॥
* उर आनत तुम्ह पर कुटिलाई। जाइ लोकु परलोकु नसाई॥
दोसु देहिं जननिहि जड़ तेई। जिन्ह गुर साधु सभा नहिं सेई॥4॥
दोसु देहिं जननिहि जड़ तेई। जिन्ह गुर साधु सभा नहिं सेई॥4॥
भावार्थ:-हृदय में भी
तुम पर कुटिलता का आरोप करने से यह लोक (यहाँ के सुख, यश आदि) बिगड़ जाता है
और परलोक भी नष्ट हो जाता है (मरने के बाद भी अच्छी गति नहीं मिलती)। माता
कैकेयी को तो वे ही मूर्ख दोष देते हैं, जिन्होंने गुरु और साधुओं की सभा
का सेवन नहीं किया है॥4॥
दोहा :
* मिटिहहिं पाप प्रपंच सब अखिल अमंगल भार।
लोक सुजसु परलोक सुखु सुमिरत नामु तुम्हार॥263॥
लोक सुजसु परलोक सुखु सुमिरत नामु तुम्हार॥263॥
भावार्थ:-हे भरत!
तुम्हारा नाम स्मरण करते ही सब पाप, प्रपंच (अज्ञान) और समस्त अमंगलों के
समूह मिट जाएँगे तथा इस लोक में सुंदर यश और परलोक में सुख प्राप्त
होगा॥263॥
चौपाई :
* कहउँ सुभाउ सत्य सिव साखी। भरत भूमि रह राउरि राखी॥
तात कुतरक करहु जनि जाएँ। बैर पेम नहिं दुरइ दुराएँ॥1॥
तात कुतरक करहु जनि जाएँ। बैर पेम नहिं दुरइ दुराएँ॥1॥
भावार्थ:-हे भरत! मैं
स्वभाव से ही सत्य कहता हूँ, शिवजी साक्षी हैं, यह पृथ्वी तुम्हारी ही रखी
रह रही है। हे तात! तुम व्यर्थ कुतर्क न करो। वैर और प्रेम छिपाए नहीं
छिपते॥1॥
* मुनिगन निकट बिहग मृग जाहीं। बाधक बधिक बिलोकि पराहीं॥
हित अनहित पसु पच्छिउ जाना। मानुष तनु गुन ग्यान निधाना॥2॥
हित अनहित पसु पच्छिउ जाना। मानुष तनु गुन ग्यान निधाना॥2॥
भावार्थ:-पक्षी और पशु
मुनियों के पास (बेधड़क) चले जाते हैं, पर हिंसा करने वाले बधिकों को देखते
ही भाग जाते हैं। मित्र और शत्रु को पशु-पक्षी भी पहचानते हैं। फिर मनुष्य
शरीर तो गुण और ज्ञान का भंडार ही है॥2॥
* तात तुम्हहि मैं जानउँ नीकें। करौं काह असमंजस जीकें॥
राखेउ रायँ सत्य मोहि त्यागी। तनु परिहरेउ पेम पन लागी॥3॥
राखेउ रायँ सत्य मोहि त्यागी। तनु परिहरेउ पेम पन लागी॥3॥
भावार्थ:-हे तात! मैं
तुम्हें अच्छी तरह जानता हूँ। क्या करूँ? जी में बड़ा असमंजस (दुविधा) है।
राजा ने मुझे त्याग कर सत्य को रखा और प्रेम-प्रण के लिए शरीर छोड़ दिया॥3॥
* तासु बचन मेटत मन सोचू। तेहि तें अधिक तुम्हार सँकोचू॥
ता पर गुर मोहि आयसु दीन्हा। अवसि जो कहहु चहउँ सोइ कीन्हा॥4॥
ता पर गुर मोहि आयसु दीन्हा। अवसि जो कहहु चहउँ सोइ कीन्हा॥4॥
भावार्थ:-उनके वचन को
मेटते मन में सोच होता है। उससे भी बढ़कर तुम्हारा संकोच है। उस पर भी
गुरुजी ने मुझे आज्ञा दी है, इसलिए अब तुम जो कुछ कहो, अवश्य ही मैं वही
करना चाहता हूँ॥4॥
दोहा :
* मनु प्रसन्न करि सकुच तजि कहहु करौं सोइ आजु।
सत्यसंध रघुबर बचन सुनि भा सुखी समाजु॥264॥
सत्यसंध रघुबर बचन सुनि भा सुखी समाजु॥264॥
भावार्थ:-तुम मन को
प्रसन्न कर और संकोच को त्याग कर जो कुछ कहो, मैं आज वही करूँ। सत्य
प्रतिज्ञ रघुकुल श्रेष्ठ श्री रामजी का यह वचन सुनकर सारा समाज सुखी हो
गया॥264॥
चौपाई :
* सुर गन सहित सभय सुरराजू। सोचहिं चाहत होन अकाजू॥
बनत उपाउ करत कछु नाहीं। राम सरन सब गे मन माहीं॥1॥
बनत उपाउ करत कछु नाहीं। राम सरन सब गे मन माहीं॥1॥
भावार्थ:-देवगणों सहित
देवराज इन्द्र भयभीत होकर सोचने लगे कि अब बना-बनाया काम बिगड़ना ही चाहता
है। कुछ उपाय करते नहीं बनता। तब वे सब मन ही मन श्री रामजी की शरण गए॥1॥
*बहुरि बिचारि परस्पर कहहीं। रघुपति भगत भगति बस अहहीं॥
सुधि करि अंबरीष दुरबासा। भे सुर सुरपति निपट निरासा॥2॥
सुधि करि अंबरीष दुरबासा। भे सुर सुरपति निपट निरासा॥2॥
भावार्थ:-फिर वे विचार
करके आपस में कहने लगे कि श्री रघुनाथजी तो भक्त की भक्ति के वश हैं।
अम्बरीष और दुर्वासा की (घटना) याद करके तो देवता और इन्द्र बिल्कुल ही
निराश हो गए॥2॥
* सहे सुरन्ह बहु काल बिषादा। नरहरि किए प्रगट प्रहलादा॥
लगि लगि कान कहहिं धुनि माथा। अब सुर काज भरत के हाथा॥3॥
लगि लगि कान कहहिं धुनि माथा। अब सुर काज भरत के हाथा॥3॥
भावार्थ:-पहले देवताओं
ने बहुत समय तक दुःख सहे। तब भक्त प्रह्लाद ने ही नृसिंह भगवान को प्रकट
किया था। सब देवता परस्पर कानों से लग-लगकर और सिर धुनकर कहते हैं कि अब
(इस बार) देवताओं का काम भरतजी के हाथ है॥3॥
* आन उपाउ न देखिअ देवा। मानत रामु सुसेवक सेवा॥
हियँ सपेम सुमिरहु सब भरतहि। निज गुन सील राम बस करतहि॥4॥
हियँ सपेम सुमिरहु सब भरतहि। निज गुन सील राम बस करतहि॥4॥
भावार्थ:-हे देवताओं! और
कोई उपाय नहीं दिखाई देता। श्री रामजी अपने श्रेष्ठ सेवकों की सेवा को
मानते हैं (अर्थात उनके भक्त की कोई सेवा करता है, तो उस पर बहुत प्रसन्न
होते हैं)। अतएव अपने गुण और शील से श्री रामजी को वश में करने वाले भरतजी
का ही सब लोग अपने-अपने हृदय में प्रेम सहित स्मरण करो॥4॥
दोहा :
* सुनि सुर मत सुरगुर कहेउ भल तुम्हार बड़ भागु।
सकल सुमंगल मूल जग भरत चरन अनुरागु॥265॥
सकल सुमंगल मूल जग भरत चरन अनुरागु॥265॥
भावार्थ:-देवताओं का मत
सुनकर देवगुरु बृहस्पतिजी ने कहा- अच्छा विचार किया, तुम्हारे बड़े भाग्य
हैं। भरतजी के चरणों का प्रेम जगत में समस्त शुभ मंगलों का मूल है॥265॥
चौपाई :
* सीतापति सेवक सेवकाई। कामधेनु सय सरिस सुहाई॥
भरत भगति तुम्हरें मन आई। तजहु सोचु बिधि बात बनाई॥1॥
भरत भगति तुम्हरें मन आई। तजहु सोचु बिधि बात बनाई॥1॥
भावार्थ:-सीतानाथ श्री
रामजी के सेवक की सेवा सैकड़ों कामधेनुओं के समान सुंदर है। तुम्हारे मन में
भरतजी की भक्ति आई है, तो अब सोच छोड़ दो। विधाता ने बात बना दी॥1॥
* देखु देवपति भरत प्रभाऊ। सजह सुभायँ बिबस रघुराऊ॥
मन थिर करहु देव डरु नाहीं। भरतहि जानि राम परिछाहीं॥2॥
मन थिर करहु देव डरु नाहीं। भरतहि जानि राम परिछाहीं॥2॥
भावार्थ:-हे देवराज!
भरतजी का प्रभाव तो देखो। श्री रघुनाथजी सहज स्वभाव से ही उनके पूर्णरूप से
वश में हैं। हे देवताओं ! भरतजी को श्री रामचन्द्रजी की परछाईं (परछाईं की
भाँति उनका अनुसरण करने वाला) जानकर मन स्थिर करो, डर की बात नहीं है॥2॥
* सुनि सुरगुर सुर संमत सोचू। अंतरजामी प्रभुहि सकोचू॥
निज सिर भारु भरत जियँ जाना। करत कोटि बिधि उर अनुमाना॥3॥
निज सिर भारु भरत जियँ जाना। करत कोटि बिधि उर अनुमाना॥3॥
भावार्थ:-देवगुरु
बृहस्पतिजी और देवताओं की सम्मति (आपस का विचार) और उनका सोच सुनकर
अन्तर्यामी प्रभु श्री रामजी को संकोच हुआ। भरतजी ने अपने मन में सब बोझा
अपने ही सिर जाना और वे हृदय में करोड़ों (अनेकों) प्रकार के अनुमान (विचार)
करने लगे॥3॥
* करि बिचारु मन दीन्ही ठीका। राम रजायस आपन नीका॥
निज पन तजि राखेउ पनु मोरा। छोहु सनेहु कीन्ह नहिं थोरा॥4॥
निज पन तजि राखेउ पनु मोरा। छोहु सनेहु कीन्ह नहिं थोरा॥4॥
भावार्थ:-सब तरह से
विचार करके अंत में उन्होंने मन में यही निश्चय किया कि श्री रामजी की
आज्ञा में ही अपना कल्याण है। उन्होंने अपना प्रण छोड़कर मेरा प्रण रखा। यह
कुछ कम कृपा और स्नेह नहीं किया (अर्थात अत्यन्त ही अनुग्रह और स्नेह
किया)॥4॥
दोहा :
* कीन्ह अनुग्रह अमित अति सब बिधि सीतानाथ।
करि प्रनामु बोले भरतु जोरि जलज जुग हाथ॥266॥
करि प्रनामु बोले भरतु जोरि जलज जुग हाथ॥266॥
भावार्थ:-श्री जानकीनाथजी ने सब प्रकार से मुझ पर अत्यन्त अपार अनुग्रह किया। तदनन्तर भरतजी दोनों करकमलों को जोड़कर प्रणाम करके बोले-॥266॥
चौपाई :
* कहौं कहावौं का अब स्वामी। कृपा अंबुनिधि अंतरजामी॥
गुर प्रसन्न साहिब अनुकूला। मिटी मलिन मन कलपित सूला॥1॥
गुर प्रसन्न साहिब अनुकूला। मिटी मलिन मन कलपित सूला॥1॥
भावार्थ:-हे स्वामी! हे
कृपा के समुद्र! हे अन्तर्यामी! अब मैं (अधिक) क्या कहूँ और क्या कहाऊँ?
गुरु महाराज को प्रसन्न और स्वामी को अनुकूल जानकर मेरे मलिन मन की कल्पित
पीड़ा मिट गई॥1॥
* अपडर डरेउँ न सोच समूलें। रबिहि न दोसु देव दिसि भूलें॥
मोर अभागु मातु कुटिलाई। बिधि गति बिषम काल कठिनाई॥2॥
मोर अभागु मातु कुटिलाई। बिधि गति बिषम काल कठिनाई॥2॥
भावार्थ:-मैं मिथ्या डर
से ही डर गया था। मेरे सोच की जड़ ही न थी। दिशा भूल जाने पर हे देव! सूर्य
का दोष नहीं है। मेरा दुर्भाग्य, माता की कुटिलता, विधाता की टेढ़ी चाल और
काल की कठिनता,॥2॥
* पाउ रोपि सब मिलि मोहि घाला। प्रनतपाल पन आपन पाला॥
यह नइ रीति न राउरि होई। लोकहुँ बेद बिदित नहिं गोई॥3॥
यह नइ रीति न राउरि होई। लोकहुँ बेद बिदित नहिं गोई॥3॥
भावार्थ:-इन सबने मिलकर
पैर रोपकर (प्रण करके) मुझे नष्ट कर दिया था, परन्तु शरणागत के रक्षक आपने
अपना (शरणागत की रक्षा का) प्रण निबाहा (मुझे बचा लिया)। यह आपकी कोई नई
रीति नहीं है। यह लोक और वेदों में प्रकट है, छिपी नहीं है॥3॥
* जगु अनभल भल एकु गोसाईं। कहिअ होइ भल कासु भलाईं॥
देउ देवतरु सरिस सुभाऊ। सनमुख बिमुख न काहुहि काऊ॥4॥
देउ देवतरु सरिस सुभाऊ। सनमुख बिमुख न काहुहि काऊ॥4॥
भावार्थ:-सारा जगत बुरा
(करने वाला) हो, किन्तु हे स्वामी! केवल एक आप ही भले (अनुकूल) हों, तो फिर
कहिए, किसकी भलाई से भला हो सकता है? हे देव! आपका स्वभाव कल्पवृक्ष के
समान है, वह न कभी किसी के सम्मुख (अनुकूल) है, न विमुख (प्रतिकूल)॥4॥
दोहा :
* जाइ निकट पहिचानि तरु छाहँ समनि सब सोच।
मागत अभिमत पाव जग राउ रंकु भल पोच॥267॥
मागत अभिमत पाव जग राउ रंकु भल पोच॥267॥
भावार्थ:-उस वृक्ष
(कल्पवृक्ष) को पहचानकर जो उसके पास जाए, तो उसकी छाया ही सारी चिंताओं का
नाश करने वाली है। राजा-रंक, भले-बुरे, जगत में सभी उससे माँगते ही मनचाही
वस्तु पाते हैं॥267॥
चौपाई :
* लखि सब बिधि गुर स्वामि सनेहू। मिटेउ छोभु नहिं मन संदेहू॥
अब करुनाकर कीजिअ सोई। जन हित प्रभु चित छोभु न होई॥1॥
अब करुनाकर कीजिअ सोई। जन हित प्रभु चित छोभु न होई॥1॥
भावार्थ:-गुरु और स्वामी
का सब प्रकार से स्नेह देखकर मेरा क्षोभ मिट गया, मन में कुछ भी संदेह
नहीं रहा। हे दया की खान! अब वही कीजिए जिससे दास के लिए प्रभु के चित्त
में क्षोभ (किसी प्रकार का विचार) न हो॥1॥
* जो सेवकु साहिबहि सँकोची। निज हित चहइ तासु मति पोची॥
सेवक हित साहिब सेवकाई। करै सकल सुख लोभ बिहाई॥2॥
सेवक हित साहिब सेवकाई। करै सकल सुख लोभ बिहाई॥2॥
भावार्थ:-जो सेवक स्वामी
को संकोच में डालकर अपना भला चाहता है, उसकी बुद्धि नीच है। सेवक का हित
तो इसी में है कि वह समस्त सुखों और लोभों को छोड़कर स्वामी की सेवा ही
करे॥2॥
* स्वारथु नाथ फिरें सबही का। किएँ रजाइ कोटि बिधि नीका॥
यह स्वारथ परमारथ सारू। सकल सुकृत फल सुगति सिंगारू॥3॥
यह स्वारथ परमारथ सारू। सकल सुकृत फल सुगति सिंगारू॥3॥
भावार्थ:-हे नाथ! आपके
लौटने में सभी का स्वार्थ है और आपकी आज्ञा पालन करने में करोड़ों प्रकार से
कल्याण है। यही स्वार्थ और परमार्थ का सार (निचोड़) है, समस्त पुण्यों का
फल और सम्पूर्ण शुभ गतियों का श्रृंगार है॥3॥
* देव एक बिनती सुनि मोरी। उचित होइ तस करब बहोरी॥
तिलक समाजु साजि सबु आना। करिअ सुफल प्रभु जौं मनु माना॥4॥
तिलक समाजु साजि सबु आना। करिअ सुफल प्रभु जौं मनु माना॥4॥
भावार्थ:-हे देव! आप
मेरी एक विनती सुनकर, फिर जैसा उचित हो वैसा ही कीजिए। राजतिलक की सब
सामग्री सजाकर लाई गई है, जो प्रभु का मन माने तो उसे सफल कीजिए (उसका
उपयोग कीजिए)॥4॥
दोहा :
* सानुज पठइअ मोहि बन कीजिअ सबहि सनाथ।
नतरु फेरिअहिं बंधु दोउ नाथ चलौं मैं साथ॥268॥
नतरु फेरिअहिं बंधु दोउ नाथ चलौं मैं साथ॥268॥
भावार्थ:-छोटे भाई
शत्रुघ्न समेत मुझे वन में भेज दीजिए और (अयोध्या लौटकर) सबको सनाथ कीजिए।
नहीं तो किसी तरह भी (यदि आप अयोध्या जाने को तैयार न हों) हे नाथ! लक्ष्मण
और शत्रुघ्न दोनों भाइयों को लौटा दीजिए और मैं आपके साथ चलूँ॥268॥
चौपाई :
* नतरु जाहिं बन तीनिउ भाई। बहुरिअ सीय सहित रघुराई॥
जेहि बिधि प्रभु प्रसन्न मन होई। करुना सागर कीजिअ सोई॥1॥
जेहि बिधि प्रभु प्रसन्न मन होई। करुना सागर कीजिअ सोई॥1॥
भावार्थ:-अथवा हम तीनों
भाई वन चले जाएँ और हे श्री रघुनाथजी! आप श्री सीताजी सहित (अयोध्या को)
लौट जाइए। हे दयासागर! जिस प्रकार से प्रभु का मन प्रसन्न हो, वही कीजिए॥1॥
* देवँ दीन्ह सबु मोहि अभारू। मोरें नीति न धरम बिचारू॥
कहउँ बचन सब स्वारथ हेतू। रहत न आरत के चित चेतू॥2॥
कहउँ बचन सब स्वारथ हेतू। रहत न आरत के चित चेतू॥2॥
भावार्थ:-हे देव! आपने
सारा भार (जिम्मेवारी) मुझ पर रख दिया। पर मुझमें न तो नीति का विचार है, न
धर्म का। मैं तो अपने स्वार्थ के लिए सब बातें कह रहा हूँ। आर्त (दुःखी)
मनुष्य के चित्त में चेत (विवेक) नहीं रहता॥2॥
* उतरु देइ सुनि स्वामि रजाई। सो सेवकु लखि लाज लजाई॥
अस मैं अवगुन उदधि अगाधू। स्वामि सनेहँ सराहत साधू॥3॥
अस मैं अवगुन उदधि अगाधू। स्वामि सनेहँ सराहत साधू॥3॥
भावार्थ:-स्वामी की
आज्ञा सुनकर जो उत्तर दे, ऐसे सेवक को देखकर लज्जा भी लजा जाती है। मैं
अवगुणों का ऐसा अथाह समुद्र हूँ (कि प्रभु को उत्तर दे रहा हूँ), किन्तु
स्वामी (आप) स्नेह वश साधु कहकर मुझे सराहते हैं!॥3॥
* अब कृपाल मोहि सो मत भावा। सकुच स्वामि मन जाइँ न पावा॥
प्रभु पद सपथ कहउँ सति भाऊ। जग मंगल हित एक उपाऊ॥4॥
प्रभु पद सपथ कहउँ सति भाऊ। जग मंगल हित एक उपाऊ॥4॥
भावार्थ:-हे कृपालु! अब
तो वही मत मुझे भाता है, जिससे स्वामी का मन संकोच न पावे। प्रभु के चरणों
की शपथ है, मैं सत्यभाव से कहता हूँ, जगत के कल्याण के लिए एक यही उपाय
है॥4॥
दोहा :
* प्रभु प्रसन्न मन सकुच तजि जो जेहि आयसु देब।
सो सिर धरि धरि करिहि सबु मिटिहि अनट अवरेब॥269॥
सो सिर धरि धरि करिहि सबु मिटिहि अनट अवरेब॥269॥
भावार्थ:-प्रसन्न मन से
संकोच त्यागकर प्रभु जिसे जो आज्ञा देंगे, उसे सब लोग सिर चढ़ा-चढ़ाकर (पालन)
करेंगे और सब उपद्रव और उलझनें मिट जाएँगी॥269॥
चौपाई :
* भरत बचन सुचि सुनि सुर हरषे। साधु सराहि सुमन सुर बरषे॥
असमंजस बस अवध नेवासी। प्रमुदित मन तापस बनबासी॥1॥
असमंजस बस अवध नेवासी। प्रमुदित मन तापस बनबासी॥1॥
भावार्थ:-भरतजी के
पवित्र वचन सुनकर देवता हर्षित हुए और 'साधु-साधु' कहकर सराहना करते हुए
देवताओं ने फूल बरसाए। अयोध्या निवासी असमंजस के वश हो गए (कि देखें अब
श्री रामजी क्या कहते हैं) तपस्वी तथा वनवासी लोग (श्री रामजी के वन में
बने रहने की आशा से) मन में परम आनन्दित हुए॥1॥
* चुपहिं रहे रघुनाथ सँकोची। प्रभु गति देखि सभा सब सोची॥
जनक दूत तेहि अवसर आए। मुनि बसिष्ठँ सुनि बेगि बोलाए॥2॥
जनक दूत तेहि अवसर आए। मुनि बसिष्ठँ सुनि बेगि बोलाए॥2॥
भावार्थ:-किन्तु संकोची
श्री रघुनाथजी चुप ही रह गए। प्रभु की यह स्थिति (मौन) देख सारी सभा सोच
में पड़ गई। उसी समय जनकजी के दूत आए, यह सुनकर मुनि वशिष्ठजी ने उन्हें
तुरंत बुलवा लिया॥2॥
* करि प्रनाम तिन्ह रामु निहारे। बेषु देखि भए निपट दुखारे॥
दूतन्ह मुनिबर बूझी बाता। कहहु बिदेह भूप कुसलाता॥3॥
दूतन्ह मुनिबर बूझी बाता। कहहु बिदेह भूप कुसलाता॥3॥
भावार्थ:-उन्होंने (आकर)
प्रणाम करके श्री रामचन्द्रजी को देखा। उनका (मुनियों का सा) वेष देखकर वे
बहुत ही दुःखी हुए। मुनिश्रेष्ठ वशिष्ठजी ने दूतों से बात पूछी कि राजा
जनक का कुशल समाचार कहो॥3॥
* सुनि सकुचाइ नाइ महि माथा। बोले चरबर जोरें हाथा॥
बूझब राउर सादर साईं। कुसल हेतु सो भयउ गोसाईं॥4॥
बूझब राउर सादर साईं। कुसल हेतु सो भयउ गोसाईं॥4॥
भावार्थ:-यह (मुनि का
कुशल प्रश्न) सुनकर सकुचाकर पृथ्वी पर मस्तक नवाकर वे श्रेष्ठ दूत हाथ
जोड़कर बोले- हे स्वामी! आपका आदर के साथ पूछना, यही हे गोसाईं! कुशल का
कारण हो गया॥4॥
दोहा :
* नाहिं त कोसलनाथ कें साथ कुसल गइ नाथ।
मिथिला अवध बिसेष तें जगु सब भयउ अनाथ॥270॥
मिथिला अवध बिसेष तें जगु सब भयउ अनाथ॥270॥
भावार्थ:-नहीं तो हे
नाथ! कुशल-क्षेम तो सब कोसलनाथ दशरथजी के साथ ही चली गई। (उनके चले जाने
से) यों तो सारा जगत ही अनाथ (स्वामी के बिना असहाय) हो गया, किन्तु मिथिला
और अवध तो विशेष रूप से अनाथ हो गया॥270॥
चौपाई :
* कोसलपति गति सुनि जनकौरा। भे सब लोक सोकबस बौरा॥
जेहिं देखे तेहि समय बिदेहू। नामु सत्य अस लाग न केहू॥1॥
जेहिं देखे तेहि समय बिदेहू। नामु सत्य अस लाग न केहू॥1॥
भावार्थ:-अयोध्यानाथ की
गति (दशरथजी का मरण) सुनकर जनकपुर वासी सभी लोग शोकवश बावले हो गए (सुध-बुध
भूल गए)। उस समय जिन्होंने विदेह को (शोकमग्न) देखा, उनमें से किसी को ऐसा
न लगा कि उनका विदेह (देहाभिमानरहित) नाम सत्य है! (क्योंकि देहभिमान से
शून्य पुरुष को शोक कैसा?)॥1॥
* रानि कुचालि सुनत नरपालहि। सूझ न कछु जस मनि बिनु ब्यालहि॥
भरत राज रघुबर बनबासू। भा मिथिलेसहि हृदयँ हराँसू॥2॥
भरत राज रघुबर बनबासू। भा मिथिलेसहि हृदयँ हराँसू॥2॥
भावार्थ:-रानी की कुचाल
सुनकर राजा जनकजी को कुछ सूझ न पड़ा, जैसे मणि के बिना साँप को नहीं सूझता।
फिर भरतजी को राज्य और श्री रामचन्द्रजी को वनवास सुनकर मिथिलेश्वर जनकजी
के हृदय में बड़ा दुःख हुआ॥2॥
* नृप बूझे बुध सचिव समाजू। कहहु बिचारि उचित का आजू॥
समुझि अवध असमंजस दोऊ। चलिअ कि रहिअ न कह कछु कोऊ॥3॥
समुझि अवध असमंजस दोऊ। चलिअ कि रहिअ न कह कछु कोऊ॥3॥
भावार्थ:-राजा ने
विद्वानों और मंत्रियों के समाज से पूछा कि विचारकर कहिए, आज (इस समय) क्या
करना उचित है? अयोध्या की दशा समझकर और दोनों प्रकार से असमंजस जानकर
'चलिए या रहिए?' किसी ने कुछ नहीं कहा॥3॥
* नृपहिं धीर धरि हृदयँ बिचारी। पठए अवध चतुर चर चारी॥
बूझि भरत सति भाउ कुभाऊ। आएहु बेगि न होइ लखाऊ॥4॥
बूझि भरत सति भाउ कुभाऊ। आएहु बेगि न होइ लखाऊ॥4॥
भावार्थ:-(जब किसी ने
कोई सम्मति नहीं दी) तब राजा ने धीरज धर हृदय में विचारकर चार चतुर गुप्तचर
(जासूस) अयोध्या को भेजे (और उनसे कह दिया कि) तुम लोग (श्री रामजी के
प्रति) भरतजी के सद्भाव (अच्छे भाव, प्रेम) या दुर्भाव (बुरा भाव, विरोध)
का (यथार्थ) पता लगाकर जल्दी लौट आना, किसी को तुम्हारा पता न लगने पावे॥4॥
दोहा :
* गए अवध चर भरत गति बूझि देखि करतूति।
चले चित्रकूटहि भरतु चार चले तेरहूति॥271॥
चले चित्रकूटहि भरतु चार चले तेरहूति॥271॥
भावार्थ:-गुप्तचर अवध को गए और भरतजी का ढंग जानकर और उनकी करनी देखकर, जैसे ही भरतजी चित्रकूट को चले, वे तिरहुत (मिथिला) को चल दिए॥271॥
चौपाई :
* दूतन्ह आइ भरत कइ करनी। जनक समाज जथामति बरनी॥
सुनि गुर परिजन सचिव महीपति। भे सब सोच सनेहँ बिकल अति॥1॥
सुनि गुर परिजन सचिव महीपति। भे सब सोच सनेहँ बिकल अति॥1॥
भावार्थ:-(गुप्त) दूतों
ने आकर राजा जनकजी की सभा में भरतजी की करनी का अपनी बुद्धि के अनुसार
वर्णन किया। उसे सुनकर गुरु, कुटुम्बी, मंत्री और राजा सभी सोच और स्नेह से
अत्यन्त व्याकुल हो गए॥1॥
* धरि धीरजु करि भरत बड़ाई। लिए सुभट साहनी बोलाई॥
घर पुर देस राखि रखवारे। हय गय रथ बहु जान सँवारे॥2॥
घर पुर देस राखि रखवारे। हय गय रथ बहु जान सँवारे॥2॥
भावार्थ:-फिर जनकजी ने
धीरज धरकर और भरतजी की बड़ाई करके अच्छे योद्धाओं और साहनियों को बुलाया।
घर, नगर और देश में रक्षकों को रखकर, घोड़े, हाथी, रथ आदि बहुत सी सवारियाँ
सजवाईं॥2॥
* दुघरी साधि चले ततकाला। किए बिश्रामु न मग महिपाला॥
भोरहिं आजु नहाइ प्रयागा। चले जमुन उतरन सबु लागा॥3॥
भोरहिं आजु नहाइ प्रयागा। चले जमुन उतरन सबु लागा॥3॥
भावार्थ:-वे दुघड़िया
मुहूर्त साधकर उसी समय चल पड़े। राजा ने रास्ते में कहीं विश्राम भी नहीं
किया। आज ही सबेरे प्रयागराज में स्नान करके चले हैं। जब सब लोग यमुनाजी
उतरने लगे,॥3॥
* खबरि लेन हम पठए नाथा। तिन्ह कहि अस महि नायउ माथा॥
साथ किरात छ सातक दीन्हे। मुनिबर तुरत बिदा चर कीन्हे॥4॥
साथ किरात छ सातक दीन्हे। मुनिबर तुरत बिदा चर कीन्हे॥4॥
भावार्थ:-तब हे नाथ!
हमें खबर लेने को भेजा। उन्होंने (दूतों ने) ऐसा कहकर पृथ्वी पर सिर नवाया।
मुनिश्रेष्ठ वशिष्ठजी ने कोई छह-सात भीलों को साथ देकर दूतों को तुरंत
विदा कर दिया॥4॥
दोहा :
* सुनत जनक आगवनु सबु हरषेउ अवध समाजु।
रघुनंदनहि सकोचु बड़ सोच बिबस सुरराजु॥272॥
रघुनंदनहि सकोचु बड़ सोच बिबस सुरराजु॥272॥
भावार्थ:-जनकजी का आगमन
सुनकर अयोध्या का सारा समाज हर्षित हो गया। श्री रामजी को बड़ा संकोच हुआ और
देवराज इन्द्र तो विशेष रूप से सोच के वश में हो गए॥272॥
चौपाई :
* गरइ गलानि कुटिल कैकेई। काहि कहै केहि दूषनु देई॥
अस मन आनि मुदित नर नारी। भयउ बहोरि रहब दिन चारी॥1॥
अस मन आनि मुदित नर नारी। भयउ बहोरि रहब दिन चारी॥1॥
भावार्थ:-कुटिल कैकेयी
मन ही मन ग्लानि (पश्चाताप) से गली जाती है। किससे कहे और किसको दोष दे? और
सब नर-नारी मन में ऐसा विचार कर प्रसन्न हो रहे हैं कि (अच्छा हुआ, जनकजी
के आने से) चार (कुछ) दिन और रहना हो गया॥1॥
* एहि प्रकार गत बासर सोऊ। प्रात नहान लाग सबु कोऊ॥
करि मज्जनु पूजहिं नर नारी। गनप गौरि तिपुरारि तमारी॥2॥
करि मज्जनु पूजहिं नर नारी। गनप गौरि तिपुरारि तमारी॥2॥
भावार्थ:-इस तरह वह दिन
भी बीत गया। दूसरे दिन प्रातःकाल सब कोई स्नान करने लगे। स्नान करके सब
नर-नारी गणेशजी, गौरीजी, महादेवजी और सूर्य भगवान की पूजा करते हैं॥2॥
* रमा रमन पद बंदि बहोरी। बिनवहिं अंजुलि अंचल जोरी॥
राजा रामु जानकी रानी। आनँद अवधि अवध रजधानी॥3॥
राजा रामु जानकी रानी। आनँद अवधि अवध रजधानी॥3॥
भावार्थ:-फिर लक्ष्मीपति
भगवान विष्णु के चरणों की वंदना करके, दोनों हाथ जोड़कर, आँचल पसारकर विनती
करते हैं कि श्री रामजी राजा हों, जानकीजी रानी हों तथा राजधानी अयोध्या
आनंद की सीमा होकर-॥3॥
* सुबस बसउ फिरि सहित समाजा। भरतहि रामु करहुँ जुबराजा॥
एहि सुख सुधाँ सींचि सब काहू। देव देहु जग जीवन लाहू॥4॥
एहि सुख सुधाँ सींचि सब काहू। देव देहु जग जीवन लाहू॥4॥
भावार्थ:-फिर समाज सहित
सुखपूर्वक बसे और श्री रामजी भरतजी को युवराज बनावें। हे देव! इस सुख रूपी
अमृत से सींचकर सब किसी को जगत में जीने का लाभ दीजिए॥4॥
दोहा :
* गुर समाज भाइन्ह सहित राम राजु पुर होउ।
अछत राम राजा अवध मरिअ माग सबु कोउ॥273॥
अछत राम राजा अवध मरिअ माग सबु कोउ॥273॥
भावार्थ:-गुरु, समाज और
भाइयों समेत श्री रामजी का राज्य अवधपुरी में हो और श्री रामजी के राजा
रहते ही हम लोग अयोध्या में मरें। सब कोई यही माँगते हैं॥273॥
चौपाई :
* सुनि सनेहमय पुरजन बानी। निंदहिं जोग बिरति मुनि ग्यानी॥
एहि बिधि नित्यकरम करि पुरजन। रामहि करहिं प्रनाम पुलकि तन॥1॥
एहि बिधि नित्यकरम करि पुरजन। रामहि करहिं प्रनाम पुलकि तन॥1॥
भावार्थ:-अयोध्या
वासियों की प्रेममयी वाणी सुनकर ज्ञानी मुनि भी अपने योग और वैराग्य की
निंदा करते हैं। अवधवासी इस प्रकार नित्यकर्म करके श्री रामजी को पुलकित
शरीर हो प्रणाम करते हैं॥1॥
* ऊँच नीच मध्यम नर नारी। लहहिं दरसु निज निज अनुहारी॥
सावधान सबही सनमानहिं। सकल सराहत कृपानिधानहिं॥2॥
सावधान सबही सनमानहिं। सकल सराहत कृपानिधानहिं॥2॥
भावार्थ:-ऊँच, नीच और
मध्यम सभी श्रेणियों के स्त्री-पुरुष अपने-अपने भाव के अनुसार श्री रामजी
का दर्शन प्राप्त करते हैं। श्री रामचन्द्रजी सावधानी के साथ सबका सम्मान
करते हैं और सभी कृपानिधान श्री रामचन्द्रजी की सराहना करते हैं॥2॥
* लरिकाइहि तें रघुबर बानी। पालत नीति प्रीति पहिचानी॥
सील सकोच सिंधु रघुराऊ। सुमुख सुलोचन सरल सुभाऊ॥3॥
सील सकोच सिंधु रघुराऊ। सुमुख सुलोचन सरल सुभाऊ॥3॥
भावार्थ:-श्री रामजी की
लड़कपन से ही यह बान है कि वे प्रेम को पहचानकर नीति का पालन करते हैं। श्री
रघुनाथजी शील और संकोच के समुद्र हैं। वे सुंदर मुख के (या सबके अनुकूल
रहने वाले), सुंदर नेत्र वाले (या सबको कृपा और प्रेम की दृष्टि से देखने
वाले) और सरल स्वभाव हैं॥3॥
* कहत राम गुन गन अनुरागे। सब निज भाग सराहन लागे॥
हम सम पुन्य पुंज जग थोरे। जिन्हहि रामु जानत करि मोरे॥4॥
हम सम पुन्य पुंज जग थोरे। जिन्हहि रामु जानत करि मोरे॥4॥
भावार्थ:-श्री रामजी के
गुण समूहों को कहते-कहते सब लोग प्रेम में भर गए और अपने भाग्य की सराहना
करने लगे कि जगत में हमारे समान पुण्य की बड़ी पूँजी वाले थोड़े ही हैं,
जिन्हें श्री रामजी अपना करके जानते हैं (ये मेरे हैं ऐसा जानते हैं)॥4॥
जनकजी का पहुँचना, कोल किरातादि की भेंट, सबका परस्पर मिलाप
दोहा :
* प्रेम मगन तेहि समय सब सुनि आवत मिथिलेसु।
सहित सभा संभ्रम उठेउ रबिकुल कमल दिनेसु॥274॥
सहित सभा संभ्रम उठेउ रबिकुल कमल दिनेसु॥274॥
भावार्थ:-उस समय सब लोग
प्रेम में मग्न हैं। इतने में ही मिथिलापति जनकजी को आते हुए सुनकर
सूर्यकुल रूपी कमल के सूर्य श्री रामचन्द्रजी सभा सहित आदरपूर्वक जल्दी से
उठ खड़े हुए॥274॥
चौपाई :
* भाइ सचिव गुर पुरजन साथा। आगें गवनु कीन्ह रघुनाथा॥
गिरिबरु दीख जनकपति जबहीं। करि प्रनामु रथ त्यागेउ तबहीं॥1॥
गिरिबरु दीख जनकपति जबहीं। करि प्रनामु रथ त्यागेउ तबहीं॥1॥
भावार्थ:-भाई, मंत्री,
गुरु और पुरवासियों को साथ लेकर श्री रघुनाथजी आगे (जनकजी की अगवानी में)
चले। जनकजी ने ज्यों ही पर्वत श्रेष्ठ कामदनाथ को देखा, त्यों ही प्रणाम
करके उन्होंने रथ छोड़ दिया। (पैदल चलना शुरू कर दिया)॥1॥
* राम दरस लालसा उछाहू। पथ श्रम लेसु कलेसु न काहू॥
मन तहँ जहँ रघुबर बैदेही। बिनु मन तन दुख सुख सुधि केही॥2॥
मन तहँ जहँ रघुबर बैदेही। बिनु मन तन दुख सुख सुधि केही॥2॥
भावार्थ:-श्री रामजी के
दर्शन की लालसा और उत्साह के कारण किसी को रास्ते की थकावट और क्लेश जरा भी
नहीं है। मन तो वहाँ है जहाँ श्री राम और जानकीजी हैं। बिना मन के शरीर के
सुख-दुःख की सुध किसको हो?॥2॥
* आवत जनकु चले एहि भाँती। सहित समाज प्रेम मति माती॥
आए निकट देखि अनुरागे। सादर मिलन परसपर लागे॥3॥
आए निकट देखि अनुरागे। सादर मिलन परसपर लागे॥3॥
भावार्थ:-जनकजी इस
प्रकार चले आ रहे हैं। समाज सहित उनकी बुद्धि प्रेम में मतवाली हो रही है।
निकट आए देखकर सब प्रेम में भर गए और आदरपूर्वक आपस में मिलने लगे॥3॥
* लगे जनक मुनिजन पद बंदन। रिषिन्ह प्रनामु कीन्ह रघुनंदन॥
भाइन्ह सहित रामु मिलि राजहि। चले लवाइ समेत समाजहि॥4॥
भाइन्ह सहित रामु मिलि राजहि। चले लवाइ समेत समाजहि॥4॥
भावार्थ:-जनकजी (वशिष्ठ
आदि अयोध्यावासी) मुनियों के चरणों की वंदना करने लगे और श्री रामचन्द्रजी
ने (शतानंद आदि जनकपुरवासी) ऋषियों को प्रणाम किया। फिर भाइयों समेत श्री
रामजी राजा जनकजी से मिलकर उन्हें समाज सहित अपने आश्रम को लिवा चले॥4॥
दोहा :
* आश्रम सागर सांत रस पूरन पावन पाथु।
सेन मनहुँ करुना सरित लिएँ जाहिं रघुनाथु॥275॥
सेन मनहुँ करुना सरित लिएँ जाहिं रघुनाथु॥275॥
भावार्थ:-श्री रामजी का
आश्रम शांत रस रूपी पवित्र जल से परिपूर्ण समुद्र है। जनकजी की सेना (समाज)
मानो करुणा (करुण रस) की नदी है, जिसे श्री रघुनाथजी (उस आश्रम रूपी शांत
रस के समुद्र में मिलाने के लिए) लिए जा रहे हैं॥275॥
चौपाई :
* बोरति ग्यान बिराग करारे। बचन ससोक मिलत नद नारे॥
सोच उसास समीर तरंगा। धीरज तट तरुबर कर भंगा॥1॥
सोच उसास समीर तरंगा। धीरज तट तरुबर कर भंगा॥1॥
भावार्थ:-यह करुणा की
नदी (इतनी बढ़ी हुई है कि) ज्ञान-वैराग्य रूपी किनारों को डुबाती जाती है।
शोक भरे वचन नद और नाले हैं, जो इस नदी में मिलते हैं और सोच की लंबी
साँसें (आहें) ही वायु के झकोरों से उठने वाली तरंगें हैं, जो धैर्य रूपी
किनारे के उत्तम वृक्षों को तोड़ रही हैं॥1॥
* बिषम बिषाद तोरावति धारा। भय भ्रम भवँर अबर्त अपारा॥
केवट बुध बिद्या बड़ि नावा। सकहिं न खेइ ऐक नहिं आवा॥2॥
केवट बुध बिद्या बड़ि नावा। सकहिं न खेइ ऐक नहिं आवा॥2॥
भावार्थ:-भयानक विषाद
(शोक) ही उस नदी की तेज धारा है। भय और भ्रम (मोह) ही उसके असंख्य भँवर और
चक्र हैं। विद्वान मल्लाह हैं, विद्या ही बड़ी नाव है, परन्तु वे उसे खे
नहीं सकते हैं, (उस विद्या का उपयोग नहीं कर सकते हैं) किसी को उसकी अटकल
ही नहीं आती है॥2॥
* बनचर कोल किरात बिचारे। थके बिलोकि पथिक हियँ हारे॥
आश्रम उदधि मिली जब जाई। मनहुँ उठेउ अंबुधि अकुलाई॥3॥
आश्रम उदधि मिली जब जाई। मनहुँ उठेउ अंबुधि अकुलाई॥3॥
भावार्थ:-वन में विचरने
वाले बेचारे कोल-किरात ही यात्री हैं, जो उस नदी को देखकर हृदय में हारकर
थक गए हैं। यह करुणा नदी जब आश्रम-समुद्र में जाकर मिली, तो मानो वह समुद्र
अकुला उठा (खौल उठा)॥3॥
* सोक बिकल दोउ राज समाजा। रहा न ग्यानु न धीरजु लाजा॥
भूप रूप गुन सील सराही। रोवहिं सोक सिंधु अवगाही॥4॥
भूप रूप गुन सील सराही। रोवहिं सोक सिंधु अवगाही॥4॥
भावार्थ:-दोनों राज समाज
शोक से व्याकुल हो गए। किसी को न ज्ञान रहा, न धीरज और न लाज ही रही। राजा
दशरथजी के रूप, गुण और शील की सराहना करते हुए सब रो रहे हैं और शोक
समुद्र में डुबकी लगा रहे हैं॥4॥
छन्द :
* अवगाहि सोक समुद्र सोचहिं नारि नर ब्याकुल महा।
दै दोष सकल सरोष बोलहिं बाम बिधि कीन्हो कहा॥
सुर सिद्ध तापस जोगिजन मुनि देखि दसा बिदेह की।
तुलसी न समरथु कोउ जो तरि सकै सरित सनेह की॥
दै दोष सकल सरोष बोलहिं बाम बिधि कीन्हो कहा॥
सुर सिद्ध तापस जोगिजन मुनि देखि दसा बिदेह की।
तुलसी न समरथु कोउ जो तरि सकै सरित सनेह की॥
भावार्थ:-शोक समुद्र में
डुबकी लगाते हुए सभी स्त्री-पुरुष महान व्याकुल होकर सोच (चिंता) कर रहे
हैं। वे सब विधाता को दोष देते हुए क्रोधयुक्त होकर कह रहे हैं कि प्रतिकूल
विधाता ने यह क्या किया? तुलसीदासजी कहते हैं कि देवता, सिद्ध, तपस्वी,
योगी और मुनिगणों में कोई भी समर्थ नहीं है, जो उस समय विदेह (जनकराज) की
दशा देखकर प्रेम की नदी को पार कर सके (प्रेम में मग्न हुए बिना रह सके)।
सोरठा :
* किए अमित उपदेस जहँ तहँ लोगन्ह मुनिबरन्ह।
धीरजु धरिअ नरेस कहेउ बसिष्ठ बिदेह सन॥276॥
धीरजु धरिअ नरेस कहेउ बसिष्ठ बिदेह सन॥276॥
भावार्थ:-जहाँ-तहाँ श्रेष्ठ मुनियों ने लोगों को अपरिमित उपदेश दिए और वशिष्ठजी ने विदेह (जनकजी) से कहा- हे राजन्! आप धैर्य धारण कीजिए॥276॥
चौपाई :
* जासु ग्यान रबि भव निसि नासा। बचन किरन मुनि कमल बिकासा॥
तेहि कि मोह ममता निअराई। यह सिय राम सनेह बड़ाई॥1॥
तेहि कि मोह ममता निअराई। यह सिय राम सनेह बड़ाई॥1॥
भावार्थ:-जिन राजा जनक
का ज्ञान रूपी सूर्य भव (आवागमन) रूपी रात्रि का नाश कर देता है और जिनकी
वचन रूपी किरणें मुनि रूपी कमलों को खिला देती हैं (आनंदित करती हैं), क्या
मोह और ममता उनके निकट भी आ सकते हैं? यह तो श्री सीता-रामजी के प्रेम की
महिमा है! (अर्थात राजा जनक की यह दशा श्री सीता-रामजी के अलौकिक प्रेम के
कारण हुई, लौकिक मोह-ममता के कारण नहीं। जो लौकिक मोह-ममता को पार कर चुके
हैं, उन पर भी श्री सीता-रामजी का प्रेम अपना प्रभाव दिखाए बिना नहीं
रहता)॥1॥
* बिषई साधक सिद्ध सयाने। त्रिबिध जीव जग बेद बखाने॥
राम सनेह सरस मन जासू। साधु सभाँ बड़ आदर तासू॥2॥
राम सनेह सरस मन जासू। साधु सभाँ बड़ आदर तासू॥2॥
भावार्थ:-विषयी, साधक और
ज्ञानवान सिद्ध पुरुष- जगत में तीन प्रकार के जीव वेदों ने बताए हैं। इन
तीनों में जिसका चित्त श्री रामजी के स्नेह से सरस (सराबोर) रहता है,
साधुओं की सभा में उसी का बड़ा आदर होता है॥2॥
* सोह न राम पेम बिनु ग्यानू। करनधार बिनु जिमि जलजानू॥
मुनि बहुबिधि बिदेहु समुझाए। राम घाट सब लोग नहाए॥3॥
मुनि बहुबिधि बिदेहु समुझाए। राम घाट सब लोग नहाए॥3॥
भावार्थ:-श्री रामजी के
प्रेम के बिना ज्ञान शोभा नहीं देता, जैसे कर्णधार के बिना जहाज। वशिष्ठजी
ने विदेहराज (जनकजी) को बहुत प्रकार से समझाया। तदनंतर सब लोगों ने श्री
रामजी के घाट पर स्नान किया॥3॥
* सकल सोक संकुल नर नारी। सो बासरु बीतेउ बिनु बारी॥
पसु खग मृगन्ह न कीन्ह अहारू। प्रिय परिजन कर कौन बिचारू॥4॥
पसु खग मृगन्ह न कीन्ह अहारू। प्रिय परिजन कर कौन बिचारू॥4॥
भावार्थ:-स्त्री-पुरुष
सब शोक से पूर्ण थे। वह दिन बिना ही जल के बीत गया (भोजन की बात तो दूर
रही, किसी ने जल तक नहीं पिया)। पशु-पक्षी और हिरनों तक ने कुछ आहार नहीं
किया। तब प्रियजनों एवं कुटुम्बियों का तो विचार ही क्या किया जाए?॥4॥
दोहा :
* दोउ समाज निमिराजु रघुराजु नहाने प्रात।
बैठे सब बट बिटप तर मन मलीन कृस गात॥277॥
बैठे सब बट बिटप तर मन मलीन कृस गात॥277॥
भावार्थ:-
निमिराज जनकजी और रघुराज रामचन्द्रजी तथा दोनों ओर के समाज ने दूसरे दिन
सबेरे स्नान किया और सब बड़ के वृक्ष के नीचे जा बैठे। सबके मन उदास और शरीर
दुबले हैं॥277॥
चौपाई :
* जे महिसुर दसरथ पुर बासी। जे मिथिलापति नगर निवासी॥
हंस बंस गुर जनक पुरोधा। जिन्ह जग मगु परमारथु सोधा॥1॥
हंस बंस गुर जनक पुरोधा। जिन्ह जग मगु परमारथु सोधा॥1॥
भावार्थ:-जो दशरथजी की
नगरी अयोध्या के रहने वाले और जो मिथिलापति जनकजी के नगर जनकपुर के रहने
वाले ब्राह्मण थे तथा सूर्यवंश के गुरु वशिष्ठजी तथा जनकजी के पुरोहित
शतानंदजी, जिन्होंने सांसारिक अभ्युदय का मार्ग तथा परमार्थ का मार्ग छान
डाला था,॥1॥
* लगे कहन उपदेस अनेका। सहित धरम नय बिरति बिबेका॥
कौसिक कहि कहि कथा पुरानीं। समुझाई सब सभा सुबानीं॥2॥
कौसिक कहि कहि कथा पुरानीं। समुझाई सब सभा सुबानीं॥2॥
भावार्थ:-वे सब धर्म,
नीति वैराग्य तथा विवेकयुक्त अनेकों उपदेश देने लगे। विश्वामित्रजी ने
पुरानी कथाएँ (इतिहास) कह-कहकर सारी सभा को सुंदर वाणी से समझाया॥2॥
* तब रघुनाथ कौसिकहि कहेऊ। नाथ कालि जल बिनु सुब रहेऊ॥
मुनि कह उचित कहत रघुराई। गयउ बीति दिन पहर अढ़ाई॥3॥
मुनि कह उचित कहत रघुराई। गयउ बीति दिन पहर अढ़ाई॥3॥
भावार्थ:-तब श्री
रघुनाथजी ने विश्वामित्रजी से कहा कि हे नाथ! कल सब लोग बिना जल पिए ही रह
गए थे। (अब कुछ आहार करना चाहिए)। विश्वामित्रजी ने कहा कि श्री रघुनाथजी
उचित ही कह रहे हैं। ढाई पहर दिन (आज भी) बीत गया॥3॥
* रिषि रुख लखि कह तेरहुतिराजू। इहाँ उचित नहिं असन अनाजू॥
कहा भूप भल सबहि सोहाना। पाइ रजायसु चले नहाना॥4॥
कहा भूप भल सबहि सोहाना। पाइ रजायसु चले नहाना॥4॥
भावार्थ:-विश्वामित्रजी
का रुख देखकर तिरहुत राज जनकजी ने कहा- यहाँ अन्न खाना उचित नहीं है। राजा
का सुंदर कथन सबके मन को अच्छा लगा। सब आज्ञा पाकर नहाने चले॥4॥
दोहा :
* तेहि अवसर फल फूल दल मूल अनेक प्रकार।
लइ आए बनचर बिपुल भरि भरि काँवरि भार॥278॥
लइ आए बनचर बिपुल भरि भरि काँवरि भार॥278॥
भावार्थ:-उसी समय अनेकों प्रकार के बहुत से फल, फूल, पत्ते, मूल आदि बहँगियों और बोझों में भर-भरकर वनवासी (कोल-किरात) लोग ले आए॥278॥
चौपाई :
* कामद भे गिरि राम प्रसादा। अवलोकत अपहरत बिषादा॥
सर सरिता बन भूमि बिभागा। जनु उमगत आनँद अनुरागा॥1॥
सर सरिता बन भूमि बिभागा। जनु उमगत आनँद अनुरागा॥1॥
भावार्थ:-श्री
रामचन्द्रजी की कृपा से सब पर्वत मनचाही वस्तु देने वाले हो गए। वे देखने
मात्र से ही दुःखों को सर्वथा हर लेते थे। वहाँ के तालाबों, नदियों, वन और
पृथ्वी के सभी भागों में मानो आनंद और प्रेम उमड़ रहा है॥1॥
* बेलि बिटप सब सफल सफूला। बोलत खग मृग अलि अनुकूला॥
तेहि अवसर बन अधिक उछाहू। त्रिबिध समीर सुखद सब काहू॥2॥
तेहि अवसर बन अधिक उछाहू। त्रिबिध समीर सुखद सब काहू॥2॥
भावार्थ:-बेलें और वृक्ष
सभी फल और फूलों से युक्त हो गए। पक्षी, पशु और भौंरें अनुकूल बोलने लगे।
उस अवसर पर वन में बहुत उत्साह (आनंद) था, सब किसी को सुख देने वाली शीतल,
मंद, सुगंध हवा चल रही थी॥2॥
* जाइ न बरनि मनोहरताई। जनु महि करति जनक पहुनाई॥
तब सब लोग नहाइ नहाई। राम जनक मुनि आयसु पाई॥3॥
देखि देखि तरुबर अनुरागे। जहँ तहँ पुरजन उतरन लागे॥
दल फल मूल कंद बिधि नाना। पावन सुंदर सुधा समाना॥4॥
तब सब लोग नहाइ नहाई। राम जनक मुनि आयसु पाई॥3॥
देखि देखि तरुबर अनुरागे। जहँ तहँ पुरजन उतरन लागे॥
दल फल मूल कंद बिधि नाना। पावन सुंदर सुधा समाना॥4॥
भावार्थ:-वन की मनोहरता
वर्णन नहीं की जा सकती, मानो पृथ्वी जनकजी की पहुनाई कर रही है। तब जनकपुर
वासी सब लोग नहा-नहाकर श्री रामचन्द्रजी, जनकजी और मुनि की आज्ञा पाकर,
सुंदर वृक्षों को देख-देखकर प्रेम में भरकर जहाँ-तहाँ उतरने लगे। पवित्र,
सुंदर और अमृत के समान (स्वादिष्ट) अनेकों प्रकार के पत्ते, फल, मूल और
कंद-॥3-4॥
दोहा :
* सादर सब कहँ रामगुर पठए भरि भरि भार।
पूजि पितर सुर अतिथि गुर लगे करन फरहार॥279॥
पूजि पितर सुर अतिथि गुर लगे करन फरहार॥279॥
भावार्थ:-श्री रामजी के
गुरु वशिष्ठजी ने सबके पास बोझे भर-भरकर आदरपूर्वक भेजे। तब वे पितर-देवता,
अतिथि और गुरु की पूजा करके फलाहार करने लगे॥279॥
चौपाई :
* एहि बिधि बासर बीते चारी। रामु निरखि नर नारि सुखारी॥
दुहु समाज असि रुचि मन माहीं। बिनु सिय राम फिरब भल नाहीं॥1॥
दुहु समाज असि रुचि मन माहीं। बिनु सिय राम फिरब भल नाहीं॥1॥
भावार्थ:-इस प्रकार चार
दिन बीत गए। श्री रामचन्द्रजी को देखकर सभी नर-नारी सुखी हैं। दोनों समाजों
के मन में ऐसी इच्छा है कि श्री सीता-रामजी के बिना लौटना अच्छा नहीं
है॥1॥
* सीता राम संग बनबासू। कोटि अमरपुर सरिस सुपासू॥
परिहरि लखन रामु बैदेही। जेहि घरु भाव बाम बिधि तेही॥2॥
परिहरि लखन रामु बैदेही। जेहि घरु भाव बाम बिधि तेही॥2॥
भावार्थ:-श्री
सीता-रामजी के साथ वन में रहना करोड़ों देवलोकों के (निवास के) समान सुखदायक
है। श्री लक्ष्मणजी, श्री रामजी और श्री जानकीजी को छोड़कर जिसको घर अच्छा
लगे, विधाता उसके विपरीत हैं॥2॥
* दाहिन दइउ होइ जब सबही। राम समीप बसिअ बन तबही॥
मंदाकिनि मज्जनु तिहु काला। राम दरसु मुद मंगल माला॥3॥
मंदाकिनि मज्जनु तिहु काला। राम दरसु मुद मंगल माला॥3॥
भावार्थ:-जब दैव सबके
अनुकूल हो, तभी श्री रामजी के पास वन में निवास हो सकता है। मंदाकिनीजी का
तीनों समय स्नान और आनंद तथा मंगलों की माला (समूह) रूप श्री राम का
दर्शन,॥3॥
* अटनु राम गिरि बन तापस थल। असनु अमिअ सम कंद मूल फल॥
सुख समेत संबत दुइ साता। पल सम होहिं न जनिअहिं जाता॥4॥
सुख समेत संबत दुइ साता। पल सम होहिं न जनिअहिं जाता॥4॥
भावार्थ:-श्री रामजी के
पर्वत (कामदनाथ), वन और तपस्वियों के स्थानों में घूमना और अमृत के समान
कंद, मूल, फलों का भोजन। चौदह वर्ष सुख के साथ पल के समान हो जाएँगे (बीत
जाएँगे), जाते हुए जान ही न पड़ेंगे॥4॥
कौसल्या सुनयना-संवाद, श्री सीताजी का शील
दोहा :
* एहि सुख जोग न लोग सब कहहिं कहाँ अस भागु।
सहज सुभायँ समाज दुहु राम चरन अनुरागु॥280॥
सहज सुभायँ समाज दुहु राम चरन अनुरागु॥280॥
भावार्थ:-सब लोग कह रहे
हैं कि हम इस सुख के योग्य नहीं हैं, हमारे ऐसे भाग्य कहाँ? दोनों समाजों
का श्री रामचन्द्रजी के चरणों में सहज स्वभाव से ही प्रेम है॥280॥
चौपाई :
* एहि बिधि सकल मनोरथ करहीं। बचन सप्रेम सुनत मन हरहीं॥
सीय मातु तेहि समय पठाईं। दासीं देखि सुअवसरु आईं॥1॥
सीय मातु तेहि समय पठाईं। दासीं देखि सुअवसरु आईं॥1॥
भावार्थ:-इस प्रकार सब
मनोरथ कर रहे हैं। उनके प्रेमयुक्त वचन सुनते ही (सुनने वालों के) मनों को
हर लेते हैं। उसी समय सीताजी की माता श्री सुनयनाजी की भेजी हुई दासियाँ
(कौसल्याजी आदि के मिलने का) सुंदर अवसर देखकर आईं॥1॥
* सावकास सुनि सब सिय सासू। आयउ जनकराज रनिवासू॥
कौसल्याँ सादर सनमानी। आसन दिए समय सम आनी॥2॥
कौसल्याँ सादर सनमानी। आसन दिए समय सम आनी॥2॥
भावार्थ:-उनसे यह सुनकर
कि सीता की सब सासुएँ इस समय फुरसत में हैं, जनकराज का रनिवास उनसे मिलने
आया। कौसल्याजी ने आदरपूर्वक उनका सम्मान किया और समयोचित आसन लाकर दिए॥2॥
* सीलु सनेहु सकल दुहु ओरा। द्रवहिं देखि सुनि कुलिस कठोरा॥
पुलक सिथिल तन बारि बिलोचन। महि नख लिखन लगीं सब सोचन॥3॥
पुलक सिथिल तन बारि बिलोचन। महि नख लिखन लगीं सब सोचन॥3॥
भावार्थ:-दोनों ओर सबके
शील और प्रेम को देखकर और सुनकर कठोर वज्र भी पिघल जाते हैं। शरीर पुलकित
और शिथिल हैं और नेत्रों में (शोक और प्रेम के) आँसू हैं। सब अपने (पैरों
के) नखों से जमीन कुरेदने और सोचने लगीं॥3॥
* सब सिय राम प्रीति की सि मूरति। जनु करुना बहु बेष बिसूरति॥
सीय मातु कह बिधि बुधि बाँकी। जो पय फेनु फोर पबि टाँकी॥4॥
सीय मातु कह बिधि बुधि बाँकी। जो पय फेनु फोर पबि टाँकी॥4॥
भावार्थ:-सभी श्री
सीता-रामजी के प्रेम की मूर्ति सी हैं, मानो स्वयं करुणा ही बहुत से वेष
(रूप) धारण करके विसूर रही हो (दुःख कर रही हो)। सीताजी की माता सुनयनाजी
ने कहा- विधाता की बुद्धि बड़ी टेढ़ी है, जो दूध के फेन जैसी कोमल वस्तु को
वज्र की टाँकी से फोड़ रहा है (अर्थात जो अत्यन्त कोमल और निर्दोष हैं उन पर
विपत्ति पर विपत्ति ढहा रहा है)॥4॥
दोहा :
* सुनिअ सुधा देखिअहिं गरल सब करतूति कराल।
जहँ तहँ काक उलूक बक मानस सकृत मराल॥281॥
जहँ तहँ काक उलूक बक मानस सकृत मराल॥281॥
भावार्थ:-अमृत केवल
सुनने में आता है और विष जहाँ-तहाँ प्रत्यक्ष देखे जाते हैं। विधाता की सभी
करतूतें भयंकर हैं। जहाँ-तहाँ कौए, उल्लू और बगुले ही (दिखाई देते) हैं,
हंस तो एक मानसरोवर में ही हैं॥281॥
चौपाई :
* सुनि ससोच कह देबि सुमित्रा। बिधि गति बड़ि बिपरीत बिचित्रा॥
जो सृजि पालइ हरइ बहोरी। बालकेलि सम बिधि मति भोरी॥1॥
जो सृजि पालइ हरइ बहोरी। बालकेलि सम बिधि मति भोरी॥1॥
भावार्थ:-यह सुनकर देवी
सुमित्राजी शोक के साथ कहने लगीं- विधाता की चाल बड़ी ही विपरीत और विचित्र
है, जो सृष्टि को उत्पन्न करके पालता है और फिर नष्ट कर डालता है। विधाता
की बुद्धि बालकों के खेल के समान भोली (विवेक शून्य) है॥1॥
* कौसल्या कह दोसु न काहू। करम बिबस दुख सुख छति लाहू॥
कठिन करम गति जान बिधाता। जो सुभ असुभ सकल फल दाता॥2॥
कठिन करम गति जान बिधाता। जो सुभ असुभ सकल फल दाता॥2॥
भावार्थ:-कौसल्याजी ने
कहा- किसी का दोष नहीं है, दुःख-सुख, हानि-लाभ सब कर्म के अधीन हैं। कर्म
की गति कठिन (दुर्विज्ञेय) है, उसे विधाता ही जानता है, जो शुभ और अशुभ सभी
फलों का देने वाला है॥2॥
* ईस रजाइ सीस सबही कें। उतपति थिति लय बिषहु अमी कें॥
देबि मोह बस सोचिअ बादी। बिधि प्रपंचु अस अचल अनादी॥3॥
देबि मोह बस सोचिअ बादी। बिधि प्रपंचु अस अचल अनादी॥3॥
भावार्थ:-ईश्वर की आज्ञा
सभी के सिर पर है। उत्पत्ति, स्थिति (पालन) और लय (संहार) तथा अमृत और विष
के भी सिर पर है (ये सब भी उसी के अधीन हैं)। हे देवि! मोहवश सोच करना
व्यर्थ है। विधाता का प्रपंच ऐसा ही अचल और अनादि है॥3॥
* भूपति जिअब मरब उर आनी। सोचिअ सखि लखि निज हित हानी॥
सीय मातु कह सत्य सुबानी। सुकृती अवधि अवधपति रानी॥4॥
सीय मातु कह सत्य सुबानी। सुकृती अवधि अवधपति रानी॥4॥
भावार्थ:-महाराज के मरने
और जीने की बात को हृदय में याद करके जो चिन्ता करती हैं, वह तो हे सखी!
हम अपने ही हित की हानि देखकर (स्वार्थवश) करती हैं। सीताजी की माता ने
कहा- आपका कथन उत्तम है और सत्य है। आप पुण्यात्माओं के सीमा रूप अवधपति
(महाराज दशरथजी) की ही तो रानी हैं। (फिर भला, ऐसा क्यों न कहेंगी)॥4॥
दोहा :
* लखनु रामु सिय जाहुँ बन भल परिनाम न पोचु।
गहबरि हियँ कह कौसिला मोहि भरत कर सोचु॥282॥
गहबरि हियँ कह कौसिला मोहि भरत कर सोचु॥282॥
भावार्थ:-कौसल्याजी ने
दुःख भरे हृदय से कहा- श्री राम, लक्ष्मण और सीता वन में जाएँ, इसका परिणाम
तो अच्छा ही होगा, बुरा नहीं। मुझे तो भरत की चिन्ता है॥282॥
चौपाई :
* ईस प्रसाद असीस तुम्हारी। सुत सुतबधू देवसरि बारी॥
राम सपथ मैं कीन्हि न काऊ। सो करि कहउँ सखी सति भाऊ॥1॥
राम सपथ मैं कीन्हि न काऊ। सो करि कहउँ सखी सति भाऊ॥1॥
भावार्थ:-ईश्वर के
अनुग्रह और आपके आशीर्वाद से मेरे (चारों) पुत्र और (चारों) बहुएँ गंगाजी
के जल के समान पवित्र हैं। हे सखी! मैंने कभी श्री राम की सौगंध नहीं की,
सो आज श्री राम की शपथ करके सत्य भाव से कहती हूँ-॥1॥
* भरत सील गुन बिनय बड़ाई। भायप भगति भरोस भलाई॥
कहत सारदहु कर मति हीचे। सागर सीप कि जाहिं उलीचे॥2॥
कहत सारदहु कर मति हीचे। सागर सीप कि जाहिं उलीचे॥2॥
भावार्थ:-भरत के शील,
गुण, नम्रता, बड़प्पन, भाईपन, भक्ति, भरोसे और अच्छेपन का वर्णन करने में
सरस्वतीजी की बुद्धि भी हिचकती है। सीप से कहीं समुद्र उलीचे जा सकते
हैं?॥2॥
* जानउँ सदा भरत कुलदीपा। बार बार मोहि कहेउ महीपा॥
कसें कनकु मनि पारिखि पाएँ। पुरुष परिखिअहिं समयँ सुभाएँ॥3॥
कसें कनकु मनि पारिखि पाएँ। पुरुष परिखिअहिं समयँ सुभाएँ॥3॥
भावार्थ:-मैं भरत को सदा
कुल का दीपक जानती हूँ। महाराज ने भी बार-बार मुझे यही कहा था। सोना कसौटी
पर कसे जाने पर और रत्न पारखी (जौहरी) के मिलने पर ही पहचाना जाता है।
वैसे ही पुरुष की परीक्षा समय पड़ने पर उसके स्वभाव से ही (उसका चरित्र
देखकर) हो जाती है॥3॥
* अनुचित आजु कहब अस मोरा। सोक सनेहँ सयानप थोरा॥
सुनि सुरसरि सम पावनि बानी। भईं सनेह बिकल सब रानी॥4॥
सुनि सुरसरि सम पावनि बानी। भईं सनेह बिकल सब रानी॥4॥
भावार्थ:-किन्तु आज मेरा
ऐसा कहना भी अनुचित है। शोक और स्नेह में सयानापन (विवेक) कम हो जाता है
(लोग कहेंगे कि मैं स्नेहवश भरत की बड़ाई कर रही हूँ)। कौसल्याजी की गंगाजी
के समान पवित्र करने वाली वाणी सुनकर सब रानियाँ स्नेह के मारे विकल हो
उठीं॥4॥
दोहा :
* कौसल्या कह धीर धरि सुनहु देबि मिथिलेसि।
को बिबेकनिधि बल्लभहि तुम्हहि सकइ उपदेसि॥283॥
को बिबेकनिधि बल्लभहि तुम्हहि सकइ उपदेसि॥283॥
भावार्थ:-कौसल्याजी ने फिर धीरज धरकर कहा- हे देवी मिथिलेश्वरी! सुनिए, ज्ञान के भंडार श्री जनकजी की प्रिया आपको कौन उपदेश दे सकता है?॥283॥
चौपाई :
* रानि राय सन अवसरु पाई। अपनी भाँति कहब समुझाई॥
रखिअहिं लखनु भरतु गवनहिं बन। जौं यह मत मानै महीप मन॥1॥
रखिअहिं लखनु भरतु गवनहिं बन। जौं यह मत मानै महीप मन॥1॥
भावार्थ:-हे रानी! मौका
पाकर आप राजा को अपनी ओर से जहाँ तक हो सके समझाकर कहिएगा कि लक्ष्मण को घर
रख लिया जाए और भरत वन को जाएँ। यदि यह राय राजा के मन में (ठीक) जँच
जाए,॥1॥
* तौ भल जतनु करब सुबिचारी। मोरें सोचु भरत कर भारी॥
गूढ़ सनेह भरत मन माहीं। रहें नीक मोहि लागत नाहीं॥2॥
गूढ़ सनेह भरत मन माहीं। रहें नीक मोहि लागत नाहीं॥2॥
भावार्थ:-तो भलीभाँति
खूब विचारकर ऐसा यत्न करें। मुझे भरत का अत्यधिक सोच है। भरत के मन में गूढ़
प्रेम है। उनके घर रहने में मुझे भलाई नहीं जान पड़ती (यह डर लगता है कि
उनके प्राणों को कोई भय न हो जाए)॥2॥
* लखि सुभाउ सुनि सरल सुबानी। सब भइ मगन करुन रस रानी॥
नभ प्रसून झरि धन्य धन्य धुनि। सिथिल सनेहँ सिद्ध जोगी मुनि॥3॥
नभ प्रसून झरि धन्य धन्य धुनि। सिथिल सनेहँ सिद्ध जोगी मुनि॥3॥
भावार्थ:-कौसल्याजी का
स्वभाव देखकर और उनकी सरल और उत्तम वाणी को सुनकर सब रानियाँ करुण रस में
निमग्न हो गईं। आकाश से पुष्प वर्षा की झड़ी लग गई और धन्य-धन्य की ध्वनि
होने लगी। सिद्ध, योगी और मुनि स्नेह से शिथिल हो गए॥3॥
* सबु रनिवासु बिथकि लखि रहेऊ। तब धरि धीर सुमित्राँ कहेऊ॥
देबि दंड जुग जामिनि बीती। राम मातु सुनि उठी सप्रीती॥4॥
देबि दंड जुग जामिनि बीती। राम मातु सुनि उठी सप्रीती॥4॥
भावार्थ:-सारा रनिवास
देखकर थकित रह गया (निस्तब्ध हो गया), तब सुमित्राजी ने धीरज करके कहा कि
हे देवी! दो घड़ी रात बीत गई है। यह सुनकर श्री रामजी की माता कौसल्याजी
प्रेमपूर्वक उठीं-॥4॥
* दोहाथ बेगि पाउ धारिअ थलहि कह सनेहँ सतिभाय।
हमरें तौ अब ईस गति कै मिथिलेस सहाय॥284॥
हमरें तौ अब ईस गति कै मिथिलेस सहाय॥284॥
भावार्थ:-और प्रेम सहित सद्भाव से बोलीं- अब आप शीघ्र डेरे को पधारिए। हमारे तो अब ईश्वर ही गति हैं, अथवा मिथिलेश्वर जनकजी सहायक हैं॥284॥
चौपाई :
* लखि सनेह सुनि बचन बिनीता। जनकप्रिया गह पाय पुनीता॥
देबि उचित असि बिनय तुम्हारी। दसरथ घरिनि राम महतारी॥1॥
देबि उचित असि बिनय तुम्हारी। दसरथ घरिनि राम महतारी॥1॥
भावार्थ:-कौसल्याजी के
प्रेम को देखकर और उनके विनम्र वचनों को सुनकर जनकजी की प्रिय पत्नी ने
उनके पवित्र चरण पकड़ लिए और कहा- हे देवी! आप राजा दशरथजी की रानी और श्री
रामजी की माता हैं। आपकी ऐसी नम्रता उचित ही है॥1॥
* प्रभु अपने नीचहु आदरहीं। अगिनि धूम गिरि सिर तिनु धरहीं॥
सेवकु राउ करम मन बानी। सदा सहाय महेसु भवानी॥2॥
सेवकु राउ करम मन बानी। सदा सहाय महेसु भवानी॥2॥
भावार्थ:-प्रभु अपने निज
जनों का भी आदर करते हैं। अग्नि धुएँ को और पर्वत तृण (घास) को अपने सिर
पर धारण करते हैं। हमारे राजा तो कर्म, मन और वाणी से आपके सेवक हैं और सदा
सहायक तो श्री महादेव-पार्वतीजी हैं॥2॥
* रउरे अंग जोगु जग को है। दीप सहाय की दिनकर सोहै॥
रामु जाइ बनु करि सुर काजू। अचल अवधपुर करिहहिं राजू॥3॥
रामु जाइ बनु करि सुर काजू। अचल अवधपुर करिहहिं राजू॥3॥
भावार्थ:-आपका सहायक
होने योग्य जगत में कौन है? दीपक सूर्य की सहायता करने जाकर कहीं शोभा पा
सकता है? श्री रामचन्द्रजी वन में जाकर देवताओं का कार्य करके अवधपुरी में
अचल राज्य करेंगे॥3॥
* अमर नाग नर राम बाहुबल। सुख बसिहहिं अपनें अपनें थल॥
यह सब जागबलिक कहि राखा। देबि न होइ मुधा मुनि भाषा॥4॥
यह सब जागबलिक कहि राखा। देबि न होइ मुधा मुनि भाषा॥4॥
भावार्थ:-देवता, नाग और
मनुष्य सब श्री रामचन्द्रजी की भुजाओं के बल पर अपने-अपने स्थानों (लोकों)
में सुखपूर्वक बसेंगे। यह सब याज्ञवल्क्य मुनि ने पहले ही से कह रखा है। हे
देवि! मुनि का कथन व्यर्थ (झूठा) नहीं हो सकता॥4॥
दोहा :
* अस कहि पग परि प्रेम अति सिय हित बिनय सुनाइ।
सिय समेत सियमातु तब चली सुआयसु पाइ॥285॥
सिय समेत सियमातु तब चली सुआयसु पाइ॥285॥
भावार्थ:-ऐसा कहकर बड़े
प्रेम से पैरों पड़कर सीताजी (को साथ भेजने) के लिए विनती करके और सुंदर
आज्ञा पाकर तब सीताजी समेत सीताजी की माता डेरे को चलीं॥285॥
चौपाई :
* प्रिय परिजनहि मिली बैदेही। जो जेहि जोगु भाँति तेहि तेही॥
तापस बेष जानकी देखी। भा सबु बिकल बिषाद बिसेषी॥1॥
तापस बेष जानकी देखी। भा सबु बिकल बिषाद बिसेषी॥1॥
भावार्थ:-जानकीजी अपने
प्यारे कुटुम्बियों से- जो जिस योग्य था, उससे उसी प्रकार मिलीं। जानकीजी
को तपस्विनी के वेष में देखकर सभी शोक से अत्यन्त व्याकुल हो गए॥1॥
* जनक राम गुर आयसु पाई। चले थलहि सिय देखी आई॥
लीन्हि लाइ उर जनक जानकी। पाहुनि पावन प्रेम प्रान की॥2॥
लीन्हि लाइ उर जनक जानकी। पाहुनि पावन प्रेम प्रान की॥2॥
भावार्थ:-जनकजी श्री
रामजी के गुरु वशिष्ठजी की आज्ञा पाकर डेरे को चले और आकर उन्होंने सीताजी
को देखा। जनकजी ने अपने पवित्र प्रेम और प्राणों की पाहुनी जानकीजी को हृदय
से लगा लिया॥2॥
* उर उमगेउ अंबुधि अनुरागू। भयउ भूप मनु मनहुँ पयागू॥
सिय सनेह बटु बाढ़त जोहा। ता पर राम पेम सिसु सोहा॥3॥
सिय सनेह बटु बाढ़त जोहा। ता पर राम पेम सिसु सोहा॥3॥
भावार्थ:-उनके हृदय में
(वात्सल्य) प्रेम का समुद्र उमड़ पड़ा। राजा का मन मानो प्रयाग हो गया। उस
समुद्र के अंदर उन्होंने (आदि शक्ति) सीताजी के (अलौकिक) स्नेह रूपी
अक्षयवट को बढ़ते हुए देखा। उस (सीताजी के प्रेम रूपी वट) पर श्री रामजी का
प्रेम रूपी बालक (बाल रूप धारी भगवान) सुशोभित हो रहा है॥3॥
* चिरजीवी मुनि ग्यान बिकल जनु। बूड़त लहेउ बाल अवलंबनु॥
मोह मगन मति नहिं बिदेह की। महिमा सिय रघुबर सनेह की॥4॥
मोह मगन मति नहिं बिदेह की। महिमा सिय रघुबर सनेह की॥4॥
भावार्थ:-जनकजी का ज्ञान
रूपी चिरंजीवी (मार्कण्डेय) मुनि व्याकुल होकर डूबते-डूबते मानो उस श्री
राम प्रेम रूपी बालक का सहारा पाकर बच गया। वस्तुतः (ज्ञानिशिरोमणि)
विदेहराज की बुद्धि मोह में मग्न नहीं है। यह तो श्री सीता-रामजी के प्रेम
की महिमा है (जिसने उन जैसे महान ज्ञानी के ज्ञान को भी विकल कर दिया)॥4॥
दोहा :
* सिय पितु मातु सनेह बस बिकल न सकी सँभारि।
धरनिसुताँ धीरजु धरेउ समउ सुधरमु बिचारि॥286॥
धरनिसुताँ धीरजु धरेउ समउ सुधरमु बिचारि॥286॥
भावार्थ:-पिता-माता के
प्रेम के मारे सीताजी ऐसी विकल हो गईं कि अपने को सँभाल न सकीं। (परन्तु
परम धैर्यवती) पृथ्वी की कन्या सीताजी ने समय और सुंदर धर्म का विचार कर
धैर्य धारण किया॥286॥
चौपाई :
* तापस बेष जनक सिय देखी। भयउ पेमु परितोषु बिसेषी॥
पुत्रि पबित्र किए कुल दोऊ। सुजस धवल जगु कह सबु कोऊ॥1॥
पुत्रि पबित्र किए कुल दोऊ। सुजस धवल जगु कह सबु कोऊ॥1॥
भावार्थ:-सीताजी को
तपस्विनी वेष में देखकर जनकजी को विशेष प्रेम और संतोष हुआ। (उन्होंने
कहा-) बेटी! तूने दोनों कुल पवित्र कर दिए। तेरे निर्मल यश से सारा जगत
उज्ज्वल हो रहा है, ऐसा सब कोई कहते हैं॥1॥
* जिति सुरसरि कीरति सरि तोरी। गवनु कीन्ह बिधि अंड करोरी॥
गंग अवनि थल तीनि बड़ेरे। एहिं किए साधु समाज घनेरे॥2॥
गंग अवनि थल तीनि बड़ेरे। एहिं किए साधु समाज घनेरे॥2॥
भावार्थ:-तेरी कीर्ति
रूपी नदी देवनदी गंगाजी को भी जीतकर (जो एक ही ब्रह्माण्ड में बहती है)
करोड़ों ब्रह्माण्डों में बह चली है। गंगाजी ने तो पृथ्वी पर तीन ही स्थानों
(हरिद्वार, प्रयागराज और गंगासागर) को बड़ा (तीर्थ) बनाया है। पर तेरी इस
कीर्ति नदी ने तो अनेकों संत समाज रूपी तीर्थ स्थान बना दिए हैं॥2॥
* पितु कह सत्य सनेहँ सुबानी। सीय सकुच महुँ मनहुँ समानी॥
पुनि पितु मातु लीन्हि उर लाई। सिख आसिष हित दीन्हि सुहाई॥3॥
पुनि पितु मातु लीन्हि उर लाई। सिख आसिष हित दीन्हि सुहाई॥3॥
भावार्थ:-पिता जनकजी ने
तो स्नेह से सच्ची सुंदर वाणी कही, परन्तु अपनी बड़ाई सुनकर सीताजी मानो
संकोच में समा गईं। पिता-माता ने उन्हें फिर हृदय से लगा लिया और हितभरी
सुंदर सीख और आशीष दिया॥3॥
* कहति न सीय सकुचि मन माहीं। इहाँ बसब रजनीं भल नाहीं॥
लखि रुख रानि जनायउ राऊ। हृदयँ सराहत सीलु सुभाऊ॥4॥
लखि रुख रानि जनायउ राऊ। हृदयँ सराहत सीलु सुभाऊ॥4॥
भावार्थ:-सीताजी कुछ
कहती नहीं हैं, परन्तु सकुचा रही हैं कि रात में (सासुओं की सेवा छोड़कर)
यहाँ रहना अच्छा नहीं है। रानी सुनयनाजी ने जानकीजी का रुख देखकर (उनके मन
की बात समझकर) राजा जनकजी को जना दिया। तब दोनों अपने हृदयों में सीताजी के
शील और स्वभाव की सराहना करने लगे॥4॥
जनक-सुनयना संवाद, भरतजी की महिमा
दोहा :
* बार बार मिलि भेंटि सिय बिदा कीन्हि सनमानि।
कही समय सिर भरत गति रानि सुबानि सयानि॥287॥
कही समय सिर भरत गति रानि सुबानि सयानि॥287॥
भावार्थ:-राजा-रानी ने
बार-बार मिलकर और हृदय से लगाकर तथा सम्मान करके सीताजी को विदा किया। चतुर
रानी ने समय पाकर राजा से सुंदर वाणी में भरतजी की दशा का वर्णन किया॥287॥
चौपाई :
* सुनि भूपाल भरत ब्यवहारू। सोन सुगंध सुधा ससि सारू॥
मूदे सजन नयन पुलके तन। सुजसु सराहन लगे मुदित मन॥1॥
मूदे सजन नयन पुलके तन। सुजसु सराहन लगे मुदित मन॥1॥
भावार्थ:-सोने में सुगंध
और (समुद्र से निकली हुई) सुधा में चन्द्रमा के सार अमृत के समान भरतजी का
व्यवहार सुनकर राजा ने (प्रेम विह्वल होकर) अपने (प्रेमाश्रुओं के) जल से
भरे नेत्रों को मूँद लिया (वे भरतजी के प्रेम में मानो ध्यानस्थ हो गए)। वे
शरीर से पुलकित हो गए और मन में आनंदित होकर भरतजी के सुंदर यश की सराहना
करने लगे॥1॥
* सावधान सुनु सुमुखि सुलोचनि। भरत कथा भव बंध बिमोचनि॥
धरम राजनय ब्रह्मबिचारू। इहाँ जथामति मोर प्रचारू॥2॥
धरम राजनय ब्रह्मबिचारू। इहाँ जथामति मोर प्रचारू॥2॥
भावार्थ:-(वे बोले-) हे
सुमुखि! हे सुनयनी! सावधान होकर सुनो। भरतजी की कथा संसार के बंधन से
छुड़ाने वाली है। धर्म, राजनीति और ब्रह्मविचार- इन तीनों विषयों में अपनी
बुद्धि के अनुसार मेरी (थोड़ी-बहुत) गति है (अर्थात इनके संबंध में मैं कुछ
जानता हूँ)॥2॥
* सो मति मोरि भरत महिमाही। कहै काह छलि छुअति न छाँही॥
बिधि गनपति अहिपति सिव सारद। कबि कोबिद बुध बुद्धि बिसारद॥3॥
बिधि गनपति अहिपति सिव सारद। कबि कोबिद बुध बुद्धि बिसारद॥3॥
भावार्थ:-वह (धर्म,
राजनीति और ब्रह्मज्ञान में प्रवेश रखने वाली) मेरी बुद्धि भरतजी की महिमा
का वर्णन तो क्या करे, छल करके भी उसकी छाया तक को नहीं छू पाती!
ब्रह्माजी, गणेशजी, शेषजी, महादेवजी, सरस्वतीजी, कवि, ज्ञानी, पण्डित और
बुद्धिमान-॥3॥
* भरत चरित कीरति करतूती। धरम सील गुन बिमल बिभूती॥
समुझत सुनत सुखद सब काहू। सुचि सुरसरि रुचि निदर सुधाहू॥4॥
समुझत सुनत सुखद सब काहू। सुचि सुरसरि रुचि निदर सुधाहू॥4॥
भावार्थ:-सब किसी को
भरतजी के चरित्र, कीर्ति, करनी, धर्म, शील, गुण और निर्मल ऐश्वर्य समझने
में और सुनने में सुख देने वाले हैं और पवित्रता में गंगाजी का तथा स्वाद
(मधुरता) में अमृत का भी तिरस्कार करने वाले हैं॥4॥
दोहा :
* निरवधि गुन निरुपम पुरुषु भरतु भरत सम जानि।
कहिअ सुमेरु कि सेर सम कबिकुल मति सकुचानि॥288॥
कहिअ सुमेरु कि सेर सम कबिकुल मति सकुचानि॥288॥
भावार्थ:-भरतजी असीम गुण
सम्पन्न और उपमारहित पुरुष हैं। भरतजी के समान बस, भरतजी ही हैं, ऐसा
जानो। सुमेरु पर्वत को क्या सेर के बराबर कह सकते हैं? इसलिए (उन्हें किसी
पुरुष के साथ उपमा देने में) कवि समाज की बुद्धि भी सकुचा गई!॥288॥
चौपाई :
* अगम सबहि बरनत बरबरनी। जिमि जलहीन मीन गमु धरनी॥
भरत अमित महिमा सुनु रानी। जानहिं रामु न सकहिं बखानी॥1॥
भरत अमित महिमा सुनु रानी। जानहिं रामु न सकहिं बखानी॥1॥
भावार्थ:-हे श्रेष्ठ
वर्णवाली! भरतजी की महिमा का वर्णन करना सभी के लिए वैसे ही अगम है जैसे
जलरहित पृथ्वी पर मछली का चलना। हे रानी! सुनो, भरतजी की अपरिमित महिमा को
एक श्री रामचन्द्रजी ही जानते हैं, किन्तु वे भी उसका वर्णन नहीं कर
सकते॥1॥
* बरनि सप्रेम भरत अनुभाऊ। तिय जिय की रुचि लखि कह राऊ॥
बहुरहिं लखनु भरतु बन जाहीं। सब कर भल सब के मन माहीं॥2॥
बहुरहिं लखनु भरतु बन जाहीं। सब कर भल सब के मन माहीं॥2॥
भावार्थ:-इस प्रकार
प्रेमपूर्वक भरतजी के प्रभाव का वर्णन करके, फिर पत्नी के मन की रुचि जानकर
राजा ने कहा- लक्ष्मणजी लौट जाएँ और भरतजी वन को जाएँ, इसमें सभी का भला
है और यही सबके मन में है॥2॥
* देबि परन्तु भरत रघुबर की। प्रीति प्रतीति जाइ नहिं तरकी॥
भरतु अवधि सनेह ममता की। जद्यपि रामु सीम समता की॥3॥
भरतु अवधि सनेह ममता की। जद्यपि रामु सीम समता की॥3॥
भावार्थ:-परन्तु हे
देवि! भरतजी और श्री रामचन्द्रजी का प्रेम और एक-दूसरे पर विश्वास, बुद्धि
और विचार की सीमा में नहीं आ सकता। यद्यपि श्री रामचन्द्रजी समता की सीमा
हैं, तथापि भरतजी प्रेम और ममता की सीमा हैं॥3॥
* परमारथ स्वारथ सुख सारे। भरत न सपनेहुँ मनहुँ निहारे॥
साधन सिद्धि राम पग नेहू। मोहि लखि परत भरत मत एहू॥4॥
साधन सिद्धि राम पग नेहू। मोहि लखि परत भरत मत एहू॥4॥
भावार्थ:-(श्री
रामचन्द्रजी के प्रति अनन्य प्रेम को छोड़कर) भरतजी ने समस्त परमार्थ,
स्वार्थ और सुखों की ओर स्वप्न में भी मन से भी नहीं ताका है। श्री रामजी
के चरणों का प्रेम ही उनका साधन है और वही सिद्धि है। मुझे तो भरतजी का बस,
यही एक मात्र सिद्धांत जान पड़ता है॥4॥
दोहा :
* भोरेहुँ भरत न पेलिहहिं मनसहुँ राम रजाइ।
करिअ न सोचु सनेह बस कहेउ भूप बिलखाइ॥289॥
करिअ न सोचु सनेह बस कहेउ भूप बिलखाइ॥289॥
भावार्थ:-राजा ने बिलखकर
(प्रेम से गद्गद होकर) कहा- भरतजी भूलकर भी श्री रामचन्द्रजी की आज्ञा को
मन से भी नहीं टालेंगे। अतः स्नेह के वश होकर चिंता नहीं करनी चाहिए॥289॥
चौपाई :
* राम भरत गुन गनत सप्रीती। निसि दंपतिहि पलक सम बीती॥
राज समाज प्रात जुग जागे। न्हाइ न्हाइ सुर पूजन लागे॥1॥
राज समाज प्रात जुग जागे। न्हाइ न्हाइ सुर पूजन लागे॥1॥
भावार्थ:-श्री रामजी और
भरतजी के गुणों की प्रेमपूर्वक गणना करते (कहते-सुनते) पति-पत्नी को रात
पलक के समान बीत गई। प्रातःकाल दोनों राजसमाज जागे और नहा-नहाकर देवताओं की
पूजा करने लगे॥1॥
* गे नहाइ गुर पहिं रघुराई। बंदि चरन बोले रुख पाई॥
नाथ भरतु पुरजन महतारी। सोक बिकल बनबास दुखारी॥2॥
नाथ भरतु पुरजन महतारी। सोक बिकल बनबास दुखारी॥2॥
भावार्थ:-श्री रघुनाथजी
स्नान करके गुरु वशिष्ठजी के पास गए और चरणों की वंदना करके उनका रुख पाकर
बोले- हे नाथ! भरत, अवधपुर वासी तथा माताएँ, सब शोक से व्याकुल और वनवास से
दुःखी हैं॥2॥
* सहित समाज राउ मिथिलेसू। बहुत दिवस भए सहत कलेसू॥
उचित होइ सोइ कीजिअ नाथा। हित सबही कर रौरें हाथा॥3॥
उचित होइ सोइ कीजिअ नाथा। हित सबही कर रौरें हाथा॥3॥
भावार्थ:-मिथिलापति राजा
जनकजी को भी समाज सहित क्लेश सहते बहुत दिन हो गए, इसलिए हे नाथ! जो उचित
हो वही कीजिए। आप ही के हाथ सभी का हित है॥3॥
* अस कहि अति सकुचे रघुराऊ। मुनि पुल के लखि सीलु सुभाऊ॥
तुम्ह बिनु राम सकल सुख साजा। नरक सरिस दुहु राज समाजा॥4॥
तुम्ह बिनु राम सकल सुख साजा। नरक सरिस दुहु राज समाजा॥4॥
भावार्थ:-ऐसा कहकर श्री
रघुनाथजी अत्यन्त ही सकुचा गए। उनका शील स्वभाव देखकर (प्रेम और आनंद से)
मुनि वशिष्ठजी पुलकित हो गए। (उन्होंने खुलकर कहा-) हे राम! तुम्हारे बिना
(घर-बार आदि) सम्पूर्ण सुखों के साज दोनों राजसमाजों को नरक के समान हैं॥4॥
दोहा :
* प्रान-प्रान के जीव के जिव सुख के सुख राम।
तुम्ह तजि तात सोहात गृह जिन्हहि तिन्हहि बिधि बाम॥290॥
तुम्ह तजि तात सोहात गृह जिन्हहि तिन्हहि बिधि बाम॥290॥
भावार्थ:-हे राम! तुम
प्राणों के भी प्राण, आत्मा के भी आत्मा और सुख के भी सुख हो। हे तात!
तुम्हें छोड़कर जिन्हें घर सुहाता है, उन्हे विधाता विपरीत है॥290॥
चौपाई :
* सो सुखु करमु धरमु जरि जाऊ। जहँ न राम पद पंकज भाऊ॥
जोगु कुजोगु ग्यानु अग्यानू। जहँ नहिं राम प्रेम परधानू॥1॥
जोगु कुजोगु ग्यानु अग्यानू। जहँ नहिं राम प्रेम परधानू॥1॥
भावार्थ:-जहाँ श्री राम
के चरण कमलों में प्रेम नहीं है, वह सुख, कर्म और धर्म जल जाए, जिसमें श्री
राम प्रेम की प्रधानता नहीं है, वह योग कुयोग है और वह ज्ञान अज्ञान है॥1॥
* तुम्ह बिनु दुखी सुखी तुम्ह तेहीं। तुम्ह जानहु जिय जो जेहि केहीं॥
राउर आयसु सिर सबही कें। बिदित कृपालहि गति सब नीकें॥2॥
राउर आयसु सिर सबही कें। बिदित कृपालहि गति सब नीकें॥2॥
भावार्थ:-तुम्हारे बिना
ही सब दुःखी हैं और जो सुखी हैं वे तुम्हीं से सुखी हैं। जिस किसी के जी
में जो कुछ है तुम सब जानते हो। आपकी आज्ञा सभी के सिर पर है। कृपालु (आप)
को सभी की स्थिति अच्छी तरह मालूम है॥2॥
जनक-वशिष्ठादि संवाद, इंद्र की चिंता, सरस्वती का इंद्र को समझाना
* आपु आश्रमहि धारिअ पाऊ। भयउ सनेह सिथिल मुनिराऊ॥
करि प्रनामु तब रामु सिधाए। रिषि धरि धीर जनक पहिं आए॥3॥
करि प्रनामु तब रामु सिधाए। रिषि धरि धीर जनक पहिं आए॥3॥
भावार्थ:-अतः आप आश्रम
को पधारिए। इतना कह मुनिराज स्नेह से शिथिल हो गए। तब श्री रामजी प्रणाम
करके चले गए और ऋषि वशिष्ठजी धीरज धरकर जनकजी के पास आए॥3॥
* राम बचन गुरु नृपहि सुनाए। सील सनेह सुभायँ सुहाए॥
महाराज अब कीजिअ सोई। सब कर धरम सहित हित होई॥4॥
महाराज अब कीजिअ सोई। सब कर धरम सहित हित होई॥4॥
भावार्थ:-गुरुजी ने श्री
रामचन्द्रजी के शील और स्नेह से युक्त स्वभाव से ही सुंदर वचन राजा जनकजी
को सुनाए (और कहा-) हे महाराज! अब वही कीजिए, जिसमें सबका धर्म सहित हित
हो॥4॥
दोहा :
* ग्यान निधान सुजान सुचि धरम धीर नरपाल।
तुम्ह बिनु असमंजस समन को समरथ एहि काल॥291॥
तुम्ह बिनु असमंजस समन को समरथ एहि काल॥291॥
भावार्थ:-हे राजन्! तुम
ज्ञान के भंडार, सुजान, पवित्र और धर्म में धीर हो। इस समय तुम्हारे बिना
इस दुविधा को दूर करने में और कौन समर्थ है?॥291॥
चौपाई :
* सुनि मुनि बचन जनक अनुरागे। लखि गति ग्यानु बिरागु बिरागे॥
सिथिल सनेहँ गुनत मन माहीं। आए इहाँ कीन्ह भल नाहीं॥1॥
सिथिल सनेहँ गुनत मन माहीं। आए इहाँ कीन्ह भल नाहीं॥1॥
भावार्थ:-मुनि वशिष्ठजी
के वचन सुनकर जनकजी प्रेम में मग्न हो गए। उनकी दशा देखकर ज्ञान और वैराग्य
को भी वैराग्य हो गया (अर्थात उनके ज्ञान-वैराग्य छूट से गए)। वे प्रेम से
शिथिल हो गए और मन में विचार करने लगे कि हम यहाँ आए, यह अच्छा नहीं
किया॥1॥
* रामहि रायँ कहेउ बन जाना। कीन्ह आपु प्रिय प्रेम प्रवाना॥
हम अब बन तें बनहि पठाई। प्रमुदित फिरब बिबेक बड़ाई॥2॥
हम अब बन तें बनहि पठाई। प्रमुदित फिरब बिबेक बड़ाई॥2॥
भावार्थ:-राजा दशरथजी ने
श्री रामजी को वन जाने के लिए कहा और स्वयं अपने प्रिय के प्रेम को
प्रमाणित (सच्चा) कर दिया (प्रिय वियोग में प्राण त्याग दिए), परन्तु हम अब
इन्हें वन से (और गहन) वन को भेजकर अपने विवेक की बड़ाई में आनन्दित होते
हुए लौटेंगे (कि हमें जरा भी मोह नहीं है, हम श्री रामजी को वन में छोड़कर
चले आए, दशरथजी की तरह मरे नहीं!)॥2॥
* तापस मुनि महिसुर सुनि देखी। भए प्रेम बस बिकल बिसेषी॥
समउ समुझि धरि धीरजु राजा। चले भरत पहिं सहित समाजा॥3॥
समउ समुझि धरि धीरजु राजा। चले भरत पहिं सहित समाजा॥3॥
भावार्थ:-तपस्वी, मुनि
और ब्राह्मण यह सब सुन और देखकर प्रेमवश बहुत ही व्याकुल हो गए। समय का
विचार करके राजा जनकजी धीरज धरकर समाज सहित भरतजी के पास चले॥3॥
* भरत आइ आगें भइ लीन्हे। अवसर सरिस सुआसन दीन्हे॥
तात भरत कह तेरहुति राऊ। तुम्हहि बिदित रघुबीर सुभाऊ॥4॥
तात भरत कह तेरहुति राऊ। तुम्हहि बिदित रघुबीर सुभाऊ॥4॥
भावार्थ:-भरतजी ने आकर
उन्हें आगे होकर लिया (सामने आकर उनका स्वागत किया) और समयानुकूल अच्छे आसन
दिए। तिरहुतराज जनकजी कहने लगे- हे तात भरत! तुमको श्री रामजी का स्वभाव
मालूम ही है॥4॥
दोहा :
* राम सत्यब्रत धरम रत सब कर सीलु स्नेहु।
संकट सहत सकोच बस कहिअ जो आयसु देहु ॥292॥
संकट सहत सकोच बस कहिअ जो आयसु देहु ॥292॥
भावार्थ:-श्री
रामचन्द्रजी सत्यव्रती और धर्मपरायण हैं, सबका शील और स्नेह रखने वाले हैं,
इसीलिए वे संकोचवश संकट सह रहे हैं, अब तुम जो आज्ञा दो, वह उनसे कही
जाए॥292॥
चौपाई :
* सुनि तन पुलकि नयन भरि बारी। बोले भरतु धीर धरि भारी॥
प्रभु प्रिय पूज्य पिता सम आपू। कुलगुरु सम हित माय न बापू॥1॥
प्रभु प्रिय पूज्य पिता सम आपू। कुलगुरु सम हित माय न बापू॥1॥
भावार्थ:-भरतजी यह सुनकर
पुलकित शरीर हो नेत्रों में जल भरकर बड़ा भारी धीरज धरकर बोले- हे प्रभो!
आप हमारे पिता के समान प्रिय और पूज्य हैं और कुल गुरु श्री वशिष्ठजी के
समान हितैषी तो माता-पिता भी नहीं है॥1॥
* कौसिकादि मुनि सचिव समाजू। ग्यान अंबुनिधि आपुनु आजू॥
सिसु सेवकु आयसु अनुगामी। जानि मोहि सिख देइअ स्वामी॥2॥
सिसु सेवकु आयसु अनुगामी। जानि मोहि सिख देइअ स्वामी॥2॥
भावार्थ:-विश्वामित्रजी
आदि मुनियों और मंत्रियों का समाज है और आज के दिन ज्ञान के समुद्र आप भी
उपस्थित हैं। हे स्वामी! मुझे अपना बच्चा, सेवक और आज्ञानुसार चलने वाला
समझकर शिक्षा दीजिए॥2॥
* एहिं समाज थल बूझब राउर। मौन मलिन मैं बोलब बाउर॥
छोटे बदन कहउँ बड़ि बाता। छमब तात लखि बाम बिधाता॥3॥
छोटे बदन कहउँ बड़ि बाता। छमब तात लखि बाम बिधाता॥3॥
भावार्थ:-इस समाज और
(पुण्य) स्थल में आप (जैसे ज्ञानी और पूज्य) का पूछना! इस पर यदि मैं मौन
रहता हूँ तो मलिन समझा जाऊँगा और बोलना पागलपन होगा तथापि मैं छोटे मुँह
बड़ी बात कहता हूँ। हे तात! विधाता को प्रतिकूल जानकर क्षमा कीजिएगा॥3॥
* आगम निगम प्रसिद्ध पुराना। सेवाधरमु कठिन जगु जाना॥
स्वामि धरम स्वारथहि बिरोधू। बैरु अंध प्रेमहि न प्रबोधू॥4॥
स्वामि धरम स्वारथहि बिरोधू। बैरु अंध प्रेमहि न प्रबोधू॥4॥
भावार्थ:-वेद, शास्त्र
और पुराणों में प्रसिद्ध है और जगत जानता है कि सेवा धर्म बड़ा कठिन है।
स्वामी धर्म में (स्वामी के प्रति कर्तव्य पालन में) और स्वार्थ में विरोध
है (दोनों एक साथ नहीं निभ सकते) वैर अंधा होता है और प्रेम को ज्ञान नहीं
रहता (मैं स्वार्थवश कहूँगा या प्रेमवश, दोनों में ही भूल होने का भय
है)॥4॥
दोहा :
* राखि राम रुख धरमु ब्रतु पराधीन मोहि जानि।
सब कें संमत सर्ब हित करिअ प्रेमु पहिचानि॥293॥
सब कें संमत सर्ब हित करिअ प्रेमु पहिचानि॥293॥
भावार्थ:-अतएव मुझे
पराधीन जानकर (मुझसे न पूछकर) श्री रामचन्द्रजी के रुख (रुचि), धर्म और
(सत्य के) व्रत को रखते हुए, जो सबके सम्मत और सबके लिए हितकारी हो आप सबका
प्रेम पहचानकर वही कीजिए॥293॥
चौपाई :
* भरत बचन सुनि देखि सुभाऊ। सहित समाज सराहत राऊ॥
सुगम अगम मृदु मंजु कठोरे। अरथु अमित अति आखर थोरे॥1॥
सुगम अगम मृदु मंजु कठोरे। अरथु अमित अति आखर थोरे॥1॥
भावार्थ:-भरतजी के वचन
सुनकर और उनका स्वभाव देखकर समाज सहित राजा जनक उनकी सराहना करने लगे।
भरतजी के वचन सुगम और अगम, सुंदर, कोमल और कठोर हैं। उनमें अक्षर थोड़े हैं,
परन्तु अर्थ अत्यन्त अपार भरा हुआ है॥1॥
* ज्यों मुखु मुकुर मुकुरु निज पानी। गहि न जाइ अस अदभुत बानी॥
भूप भरतू मुनि सहित समाजू। गे जहँ बिबुध कुमुद द्विजराजू॥2॥
भूप भरतू मुनि सहित समाजू। गे जहँ बिबुध कुमुद द्विजराजू॥2॥
भावार्थ:-जैसे मुख (का
प्रतिबिम्ब) दर्पण में दिखता है और दर्पण अपने हाथ में है, फिर भी वह (मुख
का प्रतिबिम्ब) पकड़ा नहीं जाता, इसी प्रकार भरतजी की यह अद्भुत वाणी भी पकड़
में नहीं आती (शब्दों से उसका आशय समझ में नहीं आता)। (किसी से कुछ उत्तर
देते नहीं बना) तब राजा जनकजी, भरतजी तथा मुनि वशिष्ठजी समाज के साथ वहाँ
गए, जहाँ देवता रूपी कुमुदों को खिलाने वाले (सुख देने वाले) चन्द्रमा श्री
रामचन्द्रजी थे॥2॥
* सुनि सुधि सोच बिकल सब लोगा। मनहुँ मीनगन नव जल जोगा॥
देवँ प्रथम कुलगुर गति देखी। निरखि बिदेह सनेह बिसेषी॥3॥
देवँ प्रथम कुलगुर गति देखी। निरखि बिदेह सनेह बिसेषी॥3॥
भावार्थ:-यह समाचार
सुनकर सब लोग सोच से व्याकुल हो गए, जैसे नए (पहली वर्षा के) जल के संयोग
से मछलियाँ व्याकुल होती हैं। देवताओं ने पहले कुलगुरु वशिष्ठजी की
(प्रेमविह्वल) दशा देखी, फिर विदेहजी के विशेष स्नेह को देखा,॥3॥
* राम भगतिमय भरतु निहारे। सुर स्वारथी हहरि हियँ हारे॥
सब कोउ राम प्रेममय पेखा। भए अलेख सोच बस लेखा॥4॥
सब कोउ राम प्रेममय पेखा। भए अलेख सोच बस लेखा॥4॥
भावार्थ:-और तब श्री
रामभक्ति से ओतप्रोत भरतजी को देखा। इन सबको देखकर स्वार्थी देवता घबड़ाकर
हृदय में हार मान गए (निराश हो गए)। उन्होंने सब किसी को श्री राम प्रेम
में सराबोर देखा। इससे देवता इतने सोच के वश हो गए कि जिसका कोई हिसाब
नहीं॥4॥
दोहा :
* रामु सनेह सकोच बस कह ससोच सुरराजु।
रचहु प्रपंचहि पंच मिलि नाहिं त भयउ अकाजु॥294॥
रचहु प्रपंचहि पंच मिलि नाहिं त भयउ अकाजु॥294॥
भावार्थ:-देवराज इन्द्र
सोच में भरकर कहने लगे कि श्री रामचन्द्रजी तो स्नेह और संकोच के वश में
हैं, इसलिए सब लोग मिलकर कुछ प्रपंच (माया) रचो, नहीं तो काम बिगड़ा (ही
समझो)॥294॥
चौपाई :
* सुरन्ह सुमिरि सारदा सराही। देबि देव सरनागत पाही॥
फेरि भरत मति करि निज माया। पालु बिबुध कुल करि छल छाया॥1॥
फेरि भरत मति करि निज माया। पालु बिबुध कुल करि छल छाया॥1॥
भावार्थ:-देवताओं ने
सरस्वती का स्मरण कर उनकी सराहना (स्तुति) की और कहा- हे देवी! देवता आपके
शरणागत हैं, उनकी रक्षा कीजिए। अपनी माया रचकर भरतजी की बुद्धि को फेर
दीजिए और छल की छाया कर देवताओं के कुल का पालन (रक्षा) कीजिए॥1॥
* बिबुध बिनय सुनि देबि सयानी। बोली सुर स्वारथ जड़ जानी॥
मो सन कहहु भरत मति फेरू। लोचन सहस न सूझ सुमेरू॥2॥
मो सन कहहु भरत मति फेरू। लोचन सहस न सूझ सुमेरू॥2॥
भावार्थ:-देवताओं की
विनती सुनकर और देवताओं को स्वार्थ के वश होने से मूर्ख जानकर बुद्धिमती
सरस्वतीजी बोलीं- मुझसे कह रहे हो कि भरतजी की मति पलट दो! हजार नेत्रों से
भी तुमको सुमेरू नहीं सूझ पड़ता!॥2॥
* बिधि हरि हर माया बड़ि भारी। सोउ न भरत मति सकइ निहारी॥
सो मति मोहि कहत करु भोरी। चंदिनि कर कि चंडकर चोरी॥3॥
सो मति मोहि कहत करु भोरी। चंदिनि कर कि चंडकर चोरी॥3॥
भावार्थ:-ब्रह्मा,
विष्णु और महेश की माया बड़ी प्रबल है! किन्तु वह भी भरतजी की बुद्धि की ओर
ताक नहीं सकती। उस बुद्धि को, तुम मुझसे कह रहे हो कि, भोली कर दो (भुलावे
में डाल दो)! अरे! चाँदनी कहीं प्रचंड किरण वाले सूर्य को चुरा सकती है?॥3॥
* भरत हृदयँ सिय राम निवासू। तहँ कि तिमिर जहँ तरनि प्रकासू॥
अस कहि सारद गइ बिधि लोका। बिबुध बिकल निसि मानहुँ कोका॥4॥
अस कहि सारद गइ बिधि लोका। बिबुध बिकल निसि मानहुँ कोका॥4॥
भावार्थ:-भरतजी के हृदय
में श्री सीता-रामजी का निवास है। जहाँ सूर्य का प्रकाश है, वहाँ कहीं
अँधेरा रह सकता है? ऐसा कहकर सरस्वतीजी ब्रह्मलोक को चली गईं। देवता ऐसे
व्याकुल हुए जैसे रात्रि में चकवा व्याकुल होता है॥4॥
दोहा :
* सुर स्वारथी मलीन मन कीन्ह कुमंत्र कुठाटु।
रचि प्रपंच माया प्रबल भय भ्रम अरति उचाटु॥295॥
रचि प्रपंच माया प्रबल भय भ्रम अरति उचाटु॥295॥
भावार्थ:-मलिन मन वाले
स्वार्थी देवताओं ने बुरी सलाह करके बुरा ठाट (षड्यन्त्र) रचा। प्रबल
माया-जाल रचकर भय, भ्रम, अप्रीति और उच्चाटन फैला दिया॥295॥
चौपाई :
* करि कुचालि सोचत सुरराजू। भरत हाथ सबु काजु अकाजू॥
गए जनकु रघुनाथ समीपा। सनमाने सब रबिकुल दीपा॥1॥
गए जनकु रघुनाथ समीपा। सनमाने सब रबिकुल दीपा॥1॥
भावार्थ:-कुचाल करके
देवराज इन्द्र सोचने लगे कि काम का बनना-बिगड़ना सब भरतजी के हाथ है। इधर
राजा जनकजी (मुनि वशिष्ठ आदि के साथ) श्री रघुनाथजी के पास गए। सूर्यकुल के
दीपक श्री रामचन्द्रजी ने सबका सम्मान किया,॥1॥
* समय समाज धरम अबिरोधा। बोले तब रघुबंस पुरोधा॥
जनक भरत संबादु सुनाई। भरत कहाउति कही सुहाई॥2॥
जनक भरत संबादु सुनाई। भरत कहाउति कही सुहाई॥2॥
भावार्थ:-तब रघुकुल के
पुरोहित वशिष्ठजी समय, समाज और धर्म के अविरोधी (अर्थात अनुकूल) वचन बोले।
उन्होंने पहले जनकजी और भरतजी का संवाद सुनाया। फिर भरतजी की कही हुई सुंदर
बातें कह सुनाईं॥2॥
* तात राम जस आयसु देहू। सो सबु करै मोर मत एहू॥
सुनि रघुनाथ जोरि जुग पानी। बोले सत्य सरल मृदु बानी॥3॥
सुनि रघुनाथ जोरि जुग पानी। बोले सत्य सरल मृदु बानी॥3॥
भावार्थ:-(फिर बोले-) हे
तात राम! मेरा मत तो यह है कि तुम जैसी आज्ञा दो, वैसा ही सब करें! यह
सुनकर दोनों हाथ जोड़कर श्री रघुनाथजी सत्य, सरल और कोमल वाणी बोले-॥3॥
* बिद्यमान आपुनि मिथिलेसू। मोर कहब सब भाँति भदेसू॥
राउर राय रजायसु होई। राउरि सपथ सही सिर सोई॥4॥
राउर राय रजायसु होई। राउरि सपथ सही सिर सोई॥4॥
भावार्थ:-आपके और
मिथिलेश्वर जनकजी के विद्यमान रहते मेरा कुछ कहना सब प्रकार से भद्दा
(अनुचित) है। आपकी और महाराज की जो आज्ञा होगी, मैं आपकी शपथ करके कहता हूँ
वह सत्य ही सबको शिरोधार्य होगी॥4॥
श्री राम-भरत संवाद
दोहा :
* राम सपथ सुनि मुनि जनकु सकुचे सभा समेत।
सकल बिलोकत भरत मुखु बनइ न ऊतरु देत॥296॥
सकल बिलोकत भरत मुखु बनइ न ऊतरु देत॥296॥
भावार्थ:-श्री
रामचन्द्रजी की शपथ सुनकर सभा समेत मुनि और जनकजी सकुचा गए (स्तम्भित रह
गए)। किसी से उत्तर देते नहीं बनता, सब लोग भरतजी का मुँह ताक रहे हैं॥296॥
चौपाई :
* सभा सकुच बस भरत निहारी। राम बंधु धरि धीरजु भारी॥
कुसमउ देखि सनेहु सँभारा। बढ़त बिंधि जिमि घटज निवारा॥1॥
कुसमउ देखि सनेहु सँभारा। बढ़त बिंधि जिमि घटज निवारा॥1॥
भावार्थ:-भरतजी ने सभा
को संकोच के वश देखा। रामबंधु (भरतजी) ने बड़ा भारी धीरज धरकर और कुसमय
देखकर अपने (उमड़ते हुए) प्रेम को संभाला, जैसे बढ़ते हुए विन्ध्याचल को
अगस्त्यजी ने रोका था॥1॥
* सोक कनकलोचन मति छोनी। हरी बिमल गुन गन जगजोनी॥
भरत बिबेक बराहँ बिसाला। अनायास उधरी तेहि काला॥2॥
भरत बिबेक बराहँ बिसाला। अनायास उधरी तेहि काला॥2॥
भावार्थ:-शोक रूपी
हिरण्याक्ष ने (सारी सभा की) बुद्धि रूपी पृथ्वी को हर लिया जो विमल गुण
समूह रूपी जगत की योनि (उत्पन्न करने वाली) थी। भरतजी के विवेक रूपी विशाल
वराह (वराह रूप धारी भगवान) ने (शोक रूपी हिरण्याक्ष को नष्ट कर) बिना ही
परिश्रम उसका उद्धार कर दिया!॥2॥
* करि प्रनामु सब कहँ कर जोरे। रामु राउ गुर साधु निहोरे॥
छमब आजु अति अनुचित मोरा। कहउँ बदन मृदु बचन कठोरा॥3॥
छमब आजु अति अनुचित मोरा। कहउँ बदन मृदु बचन कठोरा॥3॥
भावार्थ:-भरतजी ने
प्रणाम करके सबके प्रति हाथ जोड़े तथा श्री रामचन्द्रजी, राजा जनकजी, गुरु
वशिष्ठजी और साधु-संत सबसे विनती की और कहा- आज मेरे इस अत्यन्त अनुचित
बर्ताव को क्षमा कीजिएगा। मैं कोमल (छोटे) मुख से कठोर (धृष्टतापूर्ण) वचन
कह रहा हूँ॥3॥
* हियँ सुमिरी सारदा सुहाई। मानस तें मुख पंकज आई॥
बिमल बिबेक धरम नय साली। भरत भारती मंजु मराली॥4॥
बिमल बिबेक धरम नय साली। भरत भारती मंजु मराली॥4॥
भावार्थ:-फिर उन्होंने
हृदय में सुहावनी सरस्वती का स्मरण किया। वे मानस से (उनके मन रूपी
मानसरोवर से) उनके मुखारविंद पर आ विराजीं। निर्मल विवेक, धर्म और नीति से
युक्त भरतजी की वाणी सुंदर हंसिनी (के समान गुण-दोष का विवेचन करने वाली)
है॥4॥
दोहा :
* निरखि बिबेक बिलोचनन्हि सिथिल सनेहँ समाजु।
करि प्रनामु बोले भरतु सुमिरि सीय रघुराजु॥297॥
करि प्रनामु बोले भरतु सुमिरि सीय रघुराजु॥297॥
भावार्थ:-विवेक के नेत्रों से सारे समाज को प्रेम से शिथिल देख, सबको प्रणाम कर, श्री सीताजी और श्री रघुनाथजी का स्मरण करके भरतजी बोले-॥297॥
चौपाई :
* प्रभु पितु मातु सुहृद गुर स्वामी। पूज्य परम हित अंतरजामी॥
सरल सुसाहिबु सील निधानू। प्रनतपाल सर्बग्य सुजानू॥1॥
सरल सुसाहिबु सील निधानू। प्रनतपाल सर्बग्य सुजानू॥1॥
भावार्थ:-हे प्रभु! आप
पिता, माता, सुहृद् (मित्र), गुरु, स्वामी, पूज्य, परम हितैषी और
अन्तर्यामी हैं। सरल हृदय, श्रेष्ठ मालिक, शील के भंडार, शरणागत की रक्षा
करने वाले, सर्वज्ञ, सुजान,॥1॥
* समरथ सरनागत हितकारी। गुनगाहकु अवगुन अघ हारी॥
स्वामि गोसाँइहि सरिस गोसाईं। मोहि समान मैं साइँ दोहाईं॥2॥
स्वामि गोसाँइहि सरिस गोसाईं। मोहि समान मैं साइँ दोहाईं॥2॥
भावार्थ:-समर्थ, शरणागत
का हित करने वाले, गुणों का आदर करने वाले और अवगुणों तथा पापों को हरने
वाले हैं। हे गोसाईं! आप सरीखे स्वामी आप ही हैं और स्वामी के साथ द्रोह
करने में मेरे समान मैं ही हूँ॥2॥
* प्रभु पितु बचन मोह बस पेली। आयउँ इहाँ समाजु सकेली॥
जग भल पोच ऊँच अरु नीचू। अमिअ अमरपद माहुरु मीचू॥3॥
जग भल पोच ऊँच अरु नीचू। अमिअ अमरपद माहुरु मीचू॥3॥
भावार्थ:-मैं मोहवश
प्रभु (आप) के और पिताजी के वचनों का उल्लंघन कर और समाज बटोरकर यहाँ आया
हूँ। जगत में भले-बुरे, ऊँचे और नीचे, अमृत और अमर पद (देवताओं का पद), विष
और मृत्यु आदि-॥3॥
* राम रजाइ मेट मन माहीं। देखा सुना कतहुँ कोउ नाहीं॥
सो मैं सब बिधि कीन्हि ढिठाई। प्रभु मानी सनेह सेवकाई॥4॥
सो मैं सब बिधि कीन्हि ढिठाई। प्रभु मानी सनेह सेवकाई॥4॥
भावार्थ:-किसी को भी
कहीं ऐसा नहीं देखा-सुना जो मन में भी श्री रामचन्द्रजी (आप) की आज्ञा को
मेट दे। मैंने सब प्रकार से वही ढिठाई की, परन्तु प्रभु ने उस ढिठाई को
स्नेह और सेवा मान लिया!॥4॥
दोहा :
* कृपाँ भलाईं आपनी नाथ कीन्ह भल मोर।
दूषन भे भूषन सरिस सुजसु चारु चहुँ ओर॥298॥
दूषन भे भूषन सरिस सुजसु चारु चहुँ ओर॥298॥
भावार्थ:-हे नाथ! आपने
अपनी कृपा और भलाई से मेरा भला किया, जिससे मेरे दूषण (दोष) भी भूषण (गुण)
के समान हो गए और चारों ओर मेरा सुंदर यश छा गया॥298॥
चौपाई :
* राउरि रीति सुबानि बड़ाई। जगत बिदित निगमागम गाई॥
कूर कुटिल खल कुमति कलंकी। नीच निसील निरीस निसंकी॥1॥
कूर कुटिल खल कुमति कलंकी। नीच निसील निरीस निसंकी॥1॥
भावार्थ:-हे नाथ! आपकी
रीति और सुंदर स्वभाव की बड़ाई जगत में प्रसिद्ध है और वेद-शास्त्रों ने गाई
है। जो क्रूर, कुटिल, दुष्ट, कुबुद्धि, कलंकी, नीच, शीलरहित, निरीश्वरवादी
(नास्तिक) और निःशंक (निडर) है॥1॥
* तेउ सुनि सरन सामुहें आए। सकृत प्रनामु किहें अपनाए॥
देखि दोष कबहुँ न उर आने। सुनि गुन साधु समाज बखाने॥2॥
देखि दोष कबहुँ न उर आने। सुनि गुन साधु समाज बखाने॥2॥
भावार्थ:-उन्हें भी आपने
शरण में सम्मुख आया सुनकर एक बार प्रणाम करने पर ही अपना लिया। उन
(शरणागतों) के दोषों को देखकर भी आप कभी हृदय में नहीं लाए और उनके गुणों
को सुनकर साधुओं के समाज में उनका बखान किया॥2॥
* को साहिब सेवकहि नेवाजी। आपु समाज साज सब साजी॥
निज करतूति न समुझिअ सपनें। सेवक सकुच सोचु उर अपनें॥3॥
निज करतूति न समुझिअ सपनें। सेवक सकुच सोचु उर अपनें॥3॥
भावार्थ:-ऐसा सेवक पर
कृपा करने वाला स्वामी कौन है, जो आप ही सेवक का सारा साज-सामान सज दे
(उसकी सारी आवश्यकताओं को पूर्ण कर दे) और स्वप्न में भी अपनी कोई करनी न
समझकर (अर्थात मैंने सेवक के लिए कुछ किया है, ऐसा न जानकर) उलटा सेवक को
संकोच होगा, इसका सोच अपने हृदय में रखे!॥3॥
* सो गोसाइँ नहिं दूसर कोपी। भुजा उठाइ कहउँ पन रोपी॥
पसु नाचत सुक पाठ प्रबीना। गुन गति नट पाठक आधीना॥4॥
पसु नाचत सुक पाठ प्रबीना। गुन गति नट पाठक आधीना॥4॥
भावार्थ:-मैं भुजा उठाकर
और प्रण रोपकर (बड़े जोर के साथ) कहता हूँ, ऐसा स्वामी आपके सिवा दूसरा कोई
नहीं है। (बंदर आदि) पशु नाचते और तोते (सीखे हुए) पाठ में प्रवीण हो जाते
हैं, परन्तु तोते का (पाठ प्रवीणता रूप) गुण और पशु के नाचने की गति
(क्रमशः) पढ़ाने वाले और नचाने वाले के अधीन है॥4॥
दोहा :
* यों सुधारि सनमानि जन किए साधु सिरमोर।
को कृपाल बिनु पालिहै बिरिदावलि बरजोर॥299॥
को कृपाल बिनु पालिहै बिरिदावलि बरजोर॥299॥
भावार्थ:-इस प्रकार अपने
सेवकों की (बिगड़ी) बात सुधारकर और सम्मान देकर आपने उन्हें साधुओं का
शिरोमणि बना दिया। कृपालु (आप) के सिवा अपनी विरदावली का और कौन जबर्दस्ती
(हठपूर्वक) पालन करेगा?॥299॥
चौपाई :
* सोक सनेहँ कि बाल सुभाएँ। आयउँ लाइ रजायसु बाएँ॥
तबहुँ कृपाल हेरि निज ओरा। सबहि भाँति भल मानेउ मोरा॥1॥
तबहुँ कृपाल हेरि निज ओरा। सबहि भाँति भल मानेउ मोरा॥1॥
भावार्थ:-मैं शोक से या
स्नेह से या बालक स्वभाव से आज्ञा को बाएँ लाकर (न मानकर) चला आया, तो भी
कृपालु स्वामी (आप) ने अपनी ओर देखकर सभी प्रकार से मेरा भला ही माना (मेरे
इस अनुचित कार्य को अच्छा ही समझा)॥1॥
* देखेउँ पाय सुमंगल मूला। जानेउँ स्वामि सहज अनुकूला।
बड़ें समाज बिलोकेउँ भागू। बड़ीं चूक साहिब अनुरागू॥2॥
बड़ें समाज बिलोकेउँ भागू। बड़ीं चूक साहिब अनुरागू॥2॥
भावार्थ:-मैंने सुंदर
मंगलों के मूल आपके चरणों का दर्शन किया और यह जान लिया कि स्वामी मुझ पर
स्वभाव से ही अनुकूल हैं। इस बड़े समाज में अपने भाग्य को देखा कि इतनी बड़ी
चूक होने पर भी स्वामी का मुझ पर कितना अनुराग है!॥2॥
* कृपा अनुग्रहु अंगु अघाई। कीन्हि कृपानिधि सब अधिकाई॥
राखा मोर दुलार गोसाईं। अपनें सील सुभायँ भलाई॥3॥
राखा मोर दुलार गोसाईं। अपनें सील सुभायँ भलाई॥3॥
भावार्थ:-कृपानिधान ने
मुझ पर सांगोपांग भरपेट कृपा और अनुग्रह, सब अधिक ही किए हैं (अर्थात मैं
जिसके जरा भी लायक नहीं था, उतनी अधिक सर्वांगपूर्ण कृपा आपने मुझ पर की
है)। हे गोसाईं! आपने अपने शील, स्वभाव और भलाई से मेरा दुलार रखा॥3॥
* नाथ निपट मैं कीन्हि ढिठाई। स्वामि समाज सकोच बिहाई॥
अबिनय बिनय जथारुचि बानी। छमिहि देउ अति आरति जानी॥4॥
अबिनय बिनय जथारुचि बानी। छमिहि देउ अति आरति जानी॥4॥
भावार्थ:-हे नाथ! मैंने
स्वामी और समाज के संकोच को छोड़कर अविनय या विनय भरी जैसी रुचि हुई वैसी ही
वाणी कहकर सर्वथा ढिठाई की है। हे देव! मेरे आर्तभाव (आतुरता) को जानकर आप
क्षमा करेंगे॥4॥
दोहा :
* सुहृद सुजान सुसाहिबहि बहुत कहब बड़ि खोरि।
आयसु देइअ देव अब सबइ सुधारी मोरि॥300॥
आयसु देइअ देव अब सबइ सुधारी मोरि॥300॥
भावार्थ:-सुहृद् (बिना
ही हेतु के हित करने वाले), बुद्धिमान और श्रेष्ठ मालिक से बहुत कहना बड़ा
अपराध है, इसलिए हे देव! अब मुझे आज्ञा दीजिए, आपने मेरी सभी बात सुधार
दी॥300॥
चौपाई :
* प्रभु पद पदुम पराग दोहाई। सत्य सुकृत सुख सीवँ सुहाई॥
सो करि कहउँ हिए अपने की। रुचि जागत सोवत सपने की॥1॥
सो करि कहउँ हिए अपने की। रुचि जागत सोवत सपने की॥1॥
भावार्थ:-प्रभु (आप) के
चरणकमलों की रज, जो सत्य, सुकृत (पुण्य) और सुख की सुहावनी सीमा (अवधि) है,
उसकी दुहाई करके मैं अपने हृदय को जागते, सोते और स्वप्न में भी बनी रहने
वाली रुचि (इच्छा) कहता हूँ॥1॥
* सहज सनेहँ स्वामि सेवकाई। स्वारथ छल फल चारि बिहाई॥
अग्यासम न सुसाहिब सेवा। सो प्रसादु जन पावै देवा।2॥
अग्यासम न सुसाहिब सेवा। सो प्रसादु जन पावै देवा।2॥
भावार्थ:-वह रुचि है-
कपट, स्वार्थ और (अर्थ-धर्म-काम-मोक्ष रूप) चारों फलों को छोड़कर स्वाभाविक
प्रेम से स्वामी की सेवा करना। और आज्ञा पालन के समान श्रेष्ठ स्वामी की और
कोई सेवा नहीं है। हे देव! अब वही आज्ञा रूप प्रसाद सेवक को मिल जाए॥2॥
* अस कहि प्रेम बिबस भए भारी। पुलक सरीर बिलोचन बारी॥
प्रभु पद कमल गहे अकुलाई। समउ सनेहु न सो कहि जाई॥3॥
प्रभु पद कमल गहे अकुलाई। समउ सनेहु न सो कहि जाई॥3॥
भावार्थ:-भरतजी ऐसा कहकर
प्रेम के बहुत ही विवश हो गए। शरीर पुलकित हो उठा, नेत्रों में
(प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया। अकुलाकर (व्याकुल होकर) उन्होंने प्रभु श्री
रामचन्द्रजी के चरणकमल पकड़ लिए। उस समय को और स्नेह को कहा नहीं जा सकता॥3॥
* कृपासिंधु सनमानि सुबानी। बैठाए समीप गहि पानी॥
भरत बिनय सुनिदेखि सुभाऊ। सिथिल सनेहँ सभा रघुराऊ॥4॥
भरत बिनय सुनिदेखि सुभाऊ। सिथिल सनेहँ सभा रघुराऊ॥4॥
भावार्थ:-कृपासिन्धु
श्री रामचन्द्रजी ने सुंदर वाणी से भरतजी का सम्मान करके हाथ पकड़कर उनको
अपने पास बिठा लिया। भरतजी की विनती सुनकर और उनका स्वभाव देखकर सारी सभा
और श्री रघुनाथजी स्नेह से शिथिल हो गए॥4॥
छन्द :
* रघुराउ सिथिल सनेहँ साधु समाज मुनि मिथिला धनी।
मन महुँ सराहत भरत भायप भगति की महिमा घनी॥
भरतहि प्रसंसत बिबुध बरषत सुमन मानस मलिन से।
तुलसी बिकल सब लोग सुनि सकुचे निसागम नलिन से॥
मन महुँ सराहत भरत भायप भगति की महिमा घनी॥
भरतहि प्रसंसत बिबुध बरषत सुमन मानस मलिन से।
तुलसी बिकल सब लोग सुनि सकुचे निसागम नलिन से॥
भावार्थ:-श्री रघुनाथजी,
साधुओं का समाज, मुनि वशिष्ठजी और मिथिलापति जनकजी स्नेह से शिथिल हो गए।
सब मन ही मन भरतजी के भाईपन और उनकी भक्ति की अतिशय महिमा को सराहने लगे।
देवता मलिन से मन से भरतजी की प्रशंसा करते हुए उन पर फूल बरसाने लगे।
तुलसीदासजी कहते हैं- सब लोग भरतजी का भाषण सुनकर व्याकुल हो गए और ऐसे
सकुचा गए जैसे रात्रि के आगमन से कमल!
सोरठा :
* देखि दुखारी दीन दुहु समाज नर नारि सब।
मघवा महा मलीन मुए मारि मंगल चहत॥301॥
मघवा महा मलीन मुए मारि मंगल चहत॥301॥
भावार्थ:-दोनों समाजों के सभी नर-नारियों को दीन और दुःखी देखकर महामलिन मन इन्द्र मरे हुओं को मारकर अपना मंगल चाहता है॥301॥
चौपाई :
* कपट कुचालि सीवँ सुरराजू। पर अकाज प्रिय आपन काजू॥
काक समान पाकरिपु रीती। छली मलीन कतहुँ न प्रतीती॥1॥
काक समान पाकरिपु रीती। छली मलीन कतहुँ न प्रतीती॥1॥
भावार्थ:-देवराज इन्द्र
कपट और कुचाल की सीमा है। उसे पराई हानि और अपना लाभ ही प्रिय है। इन्द्र
की रीति कौए के समान है। वह छली और मलिन मन है, उसका कहीं किसी पर विश्वास
नहीं है॥1॥
* प्रथम कुमत करि कपटु सँकेला। सो उचाटु सब कें सिर मेला॥
सुरमायाँ सब लोग बिमोहे। राम प्रेम अतिसय न बिछोहे॥2॥
सुरमायाँ सब लोग बिमोहे। राम प्रेम अतिसय न बिछोहे॥2॥
भावार्थ:-पहले तो कुमत
(बुरा विचार) करके कपट को बटोरा (अनेक प्रकार के कपट का साज सजा)। फिर वह
(कपटजनित) उचाट सबके सिर पर डाल दिया। फिर देवमाया से सब लोगों को विशेष
रूप से मोहित कर दिया, किन्तु श्री रामचन्द्रजी के प्रेम से उनका अत्यन्त
बिछोह नहीं हुआ (अर्थात उनका श्री रामजी के प्रति प्रेम कुछ तो बना ही
रहा)॥2॥
* भय उचाट बस मन थिर नाहीं। छन बन रुचि छन सदन सोहाहीं॥
दुबिध मनोगति प्रजा दुखारी। सरित सिंधु संगम जनु बारी॥3॥
दुबिध मनोगति प्रजा दुखारी। सरित सिंधु संगम जनु बारी॥3॥
भावार्थ:-भय और उचाट के
वश किसी का मन स्थिर नहीं है। क्षण में उनकी वन में रहने की इच्छा होती है
और क्षण में उन्हें घर अच्छे लगने लगते हैं। मन की इस प्रकार की दुविधामयी
स्थिति से प्रजा दुःखी हो रही है। मानो नदी और समुद्र के संगम का जल
क्षुब्ध हो रहा हो। (जैसे नदी और समुद्र के संगम का जल स्थिर नहीं रहता,
कभी इधर आता और कभी उधर जाता है, उसी प्रकार की दशा प्रजा के मन की हो
गई)॥3॥
* दुचित कतहुँ परितोषु न लहहीं। एक एक सन मरमु न कहहीं॥
लखि हियँ हँसि कह कृपानिधानू। सरिस स्वान मघवान जुबानू॥4॥
लखि हियँ हँसि कह कृपानिधानू। सरिस स्वान मघवान जुबानू॥4॥
भावार्थ:-चित्त दो तरफा
हो जाने से वे कहीं संतोष नहीं पाते और एक-दूसरे से अपना मर्म भी नहीं
कहते। कृपानिधान श्री रामचन्द्रजी यह दशा देखकर हृदय में हँसकर कहने लगे-
कुत्ता, इन्द्र और नवयुवक (कामी पुरुष) एक सरीखे (एक ही स्वभाव के) हैं।
(पाणिनीय व्याकरण के अनुसार, श्वन, युवन और मघवन शब्दों के रूप भी एक सरीखे
होते हैं)॥4॥
दोहा :
* भरतु जनकु मुनिजन सचिव साधु सचेत बिहाइ।
लागि देवमाया सबहि जथाजोगु जनु पाइ॥302॥
लागि देवमाया सबहि जथाजोगु जनु पाइ॥302॥
भावार्थ:-भरतजी, जनकजी,
मुनिजन, मंत्री और ज्ञानी साधु-संतों को छोड़कर अन्य सभी पर जिस मनुष्य को
जिस योग्य (जिस प्रकृति और जिस स्थिति का) पाया, उस पर वैसे ही देवमाया लग
गई॥302॥
चौपाई :
* कृपासिंधु लखि लोग दुखारे। निज सनेहँ सुरपति छल भारे॥
सभा राउ गुर महिसुर मंत्री। भरत भगति सब कै मति जंत्री॥1॥
सभा राउ गुर महिसुर मंत्री। भरत भगति सब कै मति जंत्री॥1॥
भावार्थ:-कृपासिंधु श्री
रामचन्द्रजी ने लोगों को अपने स्नेह और देवराज इन्द्र के भारी छल से दुःखी
देखा। सभा, राजा जनक, गुरु, ब्राह्मण और मंत्री आदि सभी की बुद्धि को
भरतजी की भक्ति ने कील दिया॥1॥
* रामहि चितवत चित्र लिखे से। सकुचत बोलत बचन सिखे से॥
भरत प्रीति नति बिनय बड़ाई। सुनत सुखद बरनत कठिनाई॥2॥
भरत प्रीति नति बिनय बड़ाई। सुनत सुखद बरनत कठिनाई॥2॥
भावार्थ:-सब लोग
चित्रलिखे से श्री रामचन्द्रजी की ओर देख रहे हैं। सकुचाते हुए सिखाए हुए
से वचन बोलते हैं। भरतजी की प्रीति, नम्रता, विनय और बड़ाई सुनने में सुख
देने वाली है, पर उसका वर्णन करने में कठिनता है॥2॥
* जासु बिलोकि भगति लवलेसू। प्रेम मगन मुनिगन मिथिलेसू॥
महिमा तासु कहै किमि तुलसी। भगति सुभायँ सुमति हियँ हुलसी॥3॥
महिमा तासु कहै किमि तुलसी। भगति सुभायँ सुमति हियँ हुलसी॥3॥
भावार्थ:-जिनकी भक्ति का
लवलेश देखकर मुनिगण और मिथिलेश्वर जनकजी प्रेम में मग्न हो गए, उन भरतजी
की महिमा तुलसीदास कैसे कहे? उनकी भक्ति और सुंदर भाव से (कवि के) हृदय में
सुबुद्धि हुलस रही है (विकसित हो रही है)॥3॥
* आपु छोटि महिमा बड़ि जानी। कबिकुल कानि मानि सकुचानी॥
कहि न सकति गुन रुचि अधिकाई। मति गति बाल बचन की नाई॥4॥
कहि न सकति गुन रुचि अधिकाई। मति गति बाल बचन की नाई॥4॥
भावार्थ:-परन्तु वह
बुद्धि अपने को छोटी और भरतजी की महिमा को बड़ी जानकर कवि परम्परा की
मर्यादा को मानकर सकुचा गई (उसका वर्णन करने का साहस नहीं कर सकी)। उसकी
गुणों में रुचि तो बहुत है, पर उन्हें कह नहीं सकती। बुद्धि की गति बालक के
वचनों की तरह हो गई (वह कुण्ठित हो गई)!॥4॥
दोहा :
* भरत बिमल जसु बिमल बिधु सुमति चकोरकुमारि।
उदित बिमल जन हृदय नभ एकटक रही निहारि॥303॥
उदित बिमल जन हृदय नभ एकटक रही निहारि॥303॥
भावार्थ:-भरतजी का
निर्मल यश निर्मल चन्द्रमा है और कवि की सुबुद्धि चकोरी है, जो भक्तों के
हृदय रूपी निर्मल आकाश में उस चन्द्रमा को उदित देखकर उसकी ओर टकटकी लगाए
देखती ही रह गई है (तब उसका वर्णन कौन करे?)॥303॥
चौपाई :
* भरत सुभाउ न सुगम निगमहूँ। लघु मति चापलता कबि छमहूँ॥
कहत सुनत सति भाउ भरत को। सीय राम पद होइ न रत को॥1॥
कहत सुनत सति भाउ भरत को। सीय राम पद होइ न रत को॥1॥
भावार्थ:-भरतजी के
स्वभाव का वर्णन वेदों के लिए भी सुगम नहीं है। (अतः) मेरी तुच्छ बुद्धि की
चंचलता को कवि लोग क्षमा करें! भरतजी के सद्भाव को कहते-सुनते कौन मनुष्य
श्री सीता-रामजी के चरणों में अनुरक्त न हो जाएगा॥1॥
* सुमिरत भरतहि प्रेमु राम को। जेहि न सुलभु तेहि सरिस बाम को॥
देखि दयाल दसा सबही की। राम सुजान जानि जन जी की॥2॥
देखि दयाल दसा सबही की। राम सुजान जानि जन जी की॥2॥
भावार्थ:-भरतजी का स्मरण
करने से जिसको श्री रामजी का प्रेम सुलभ न हुआ, उसके समान वाम (अभागा) और
कौन होगा? दयालु और सुजान श्री रामजी ने सभी की दशा देखकर और भक्त (भरतजी)
के हृदय की स्थिति जानकर,॥2॥
* धरम धुरीन धीर नय नागर। सत्य सनेह सील सुख सागर॥
देसु कालु लखि समउ समाजू। नीति प्रीति पालक रघुराजू॥3॥
देसु कालु लखि समउ समाजू। नीति प्रीति पालक रघुराजू॥3॥
भावार्थ:-धर्मधुरंधर,
धीर, नीति में चतुर, सत्य, स्नेह, शील और सुख के समुद्र, नीति और प्रीति के
पालन करने वाले श्री रघुनाथजी देश, काल, अवसर और समाज को देखकर,॥3॥
* बोले बचन बानि सरबसु से। हित परिनाम सुनत ससि रसु से॥
तात भरत तुम्ह धरम धुरीना। लोक बेद बिद प्रेम प्रबीना॥4॥
तात भरत तुम्ह धरम धुरीना। लोक बेद बिद प्रेम प्रबीना॥4॥
भावार्थ:-(तदनुसार) ऐसे
वचन बोले जो मानो वाणी के सर्वस्व ही थे, परिणाम में हितकारी थे और सुनने
में चन्द्रमा के रस (अमृत) सरीखे थे। (उन्होंने कहा-) हे तात भरत! तुम धर्म
की धुरी को धारण करने वाले हो, लोक और वेद दोनों के जानने वाले और प्रेम
में प्रवीण हो॥4॥
दोहा :
* करम बचन मानस बिमल तुम्ह समान तुम्ह तात।
गुर समाज लघु बंधु गुन कुसमयँ किमि कहि जात॥304॥
गुर समाज लघु बंधु गुन कुसमयँ किमि कहि जात॥304॥
भावार्थ:-हे तात! कर्म
से, वचन से और मन से निर्मल तुम्हारे समान तुम्हीं हो। गुरुजनों के समाज
में और ऐसे कुसमय में छोटे भाई के गुण किस तरह कहे जा सकते हैं?॥304॥
चौपाई :
* जानहु तात तरनि कुल रीती। सत्यसंध पितु कीरति प्रीती॥
समउ समाजु लाज गुरजन की। उदासीन हित अनहित मन की॥1॥
समउ समाजु लाज गुरजन की। उदासीन हित अनहित मन की॥1॥
भावार्थ:-हे तात! तुम
सूर्यकुल की रीति को, सत्यप्रतिज्ञ पिताजी की कीर्ति और प्रीति को, समय,
समाज और गुरुजनों की लज्जा (मर्यादा) को तथा उदासीन, मित्र और शत्रु सबके
मन की बात को जानते हो॥1॥
* तुम्हहि बिदित सबही कर करमू। आपन मोर परम हित धरमू॥
मोहि सब भाँति भरोस तुम्हारा। तदपि कहउँ अवसर अनुसारा॥2॥
मोहि सब भाँति भरोस तुम्हारा। तदपि कहउँ अवसर अनुसारा॥2॥
भावार्थ:-तुमको सबके
कर्मों (कर्तव्यों) का और अपने तथा मेरे परम हितकारी धर्म का पता है।
यद्यपि मुझे तुम्हारा सब प्रकार से भरोसा है, तथापि मैं समय के अनुसार कुछ
कहता हूँ॥2॥
* तात तात बिनु बात हमारी। केवल गुरकुल कृपाँ सँभारी॥
नतरु प्रजा परिजन परिवारू। हमहि सहित सबु होत खुआरू॥3॥
नतरु प्रजा परिजन परिवारू। हमहि सहित सबु होत खुआरू॥3॥
भावार्थ:-हे तात! पिताजी
के बिना (उनकी अनुपस्थिति में) हमारी बात केवल गुरुवंश की कृपा ने ही
सम्हाल रखी है, नहीं तो हमारे समेत प्रजा, कुटुम्ब, परिवार सभी बर्बाद हो
जाते॥3॥
* जौं बिनु अवसर अथवँ दिनेसू। जग केहि कहहु न होइ कलेसू॥
तस उतपातु तात बिधि कीन्हा। मुनि मिथिलेस राखि सबु लीन्हा॥4॥
तस उतपातु तात बिधि कीन्हा। मुनि मिथिलेस राखि सबु लीन्हा॥4॥
भावार्थ:-यदि बिना समय
के (सन्ध्या से पूर्व ही) सूर्य अस्त हो जाए, तो कहो जगत में किस को क्लेश न
होगा? हे तात! उसी प्रकार का उत्पात विधाता ने यह (पिता की असामयिक
मृत्यु) किया है। पर मुनि महाराज ने तथा मिथिलेश्वर ने सबको बचा लिया॥4॥
दोहा :
* राज काज सब लाज पति धरम धरनि धन धाम।
गुर प्रभाउ पालिहि सबहि भल होइहि परिनाम॥305॥
गुर प्रभाउ पालिहि सबहि भल होइहि परिनाम॥305॥
भावार्थ:-राज्य का सब
कार्य, लज्जा, प्रतिष्ठा, धर्म, पृथ्वी, धन, घर- इन सभी का पालन (रक्षण)
गुरुजी का प्रभाव (सामर्थ्य) करेगा और परिणाम शुभ होगा॥305॥
चौपाई :
* सहित समाज तुम्हार हमारा। घर बन गुर प्रसाद रखवारा॥
मातु पिता गुर स्वामि निदेसू। सकल धरम धरनीधर सेसू॥1॥
मातु पिता गुर स्वामि निदेसू। सकल धरम धरनीधर सेसू॥1॥
भावार्थ:-गुरुजी का
प्रसाद (अनुग्रह) ही घर में और वन में समाज सहित तुम्हारा और हमारा रक्षक
है। माता, पिता, गुरु और स्वामी की आज्ञा (का पालन) समस्त धर्म रूपी पृथ्वी
को धारण करने में शेषजी के समान है॥1॥
* सो तुम्ह करहु करावहु मोहू। तात तरनिकुल पालक होहू॥
साधक एक सकल सिधि देनी। कीरति सुगति भूतिमय बेनी॥2॥
साधक एक सकल सिधि देनी। कीरति सुगति भूतिमय बेनी॥2॥
भावार्थ:-हे तात! तुम
वही करो और मुझसे भी कराओ तथा सूर्यकुल के रक्षक बनो। साधक के लिए यह एक ही
(आज्ञा पालन रूपी साधना) सम्पूर्ण सिद्धियों की देने वाली, कीर्तिमयी,
सद्गतिमयी और ऐश्वर्यमयी त्रिवेणी है॥2॥
* सो बिचारि सहि संकटु भारी। करहु प्रजा परिवारू सुखारी॥
बाँटी बिपति सबहिं मोहि भाई। तुम्हहि अवधि भरि बड़ि कठिनाई॥3॥
बाँटी बिपति सबहिं मोहि भाई। तुम्हहि अवधि भरि बड़ि कठिनाई॥3॥
भावार्थ:-इसे विचारकर
भारी संकट सहकर भी प्रजा और परिवार को सुखी करो। हे भाई! मेरी विपत्ति सभी
ने बाँट ली है, परन्तु तुमको तो अवधि (चौदह वर्ष) तक बड़ी कठिनाई है (सबसे
अधिक दुःख है)॥3॥
* जानि तुम्हहि मृदु कहउँ कठोरा। कुसमयँ तात न अनुचित मोरा॥
होहिं कुठायँ सुबंधु सहाए। ओड़िअहिं हाथ असनिहु के धाए॥4॥
होहिं कुठायँ सुबंधु सहाए। ओड़िअहिं हाथ असनिहु के धाए॥4॥
भावार्थ:-तुमको कोमल
जानकर भी मैं कठोर (वियोग की बात) कह रहा हूँ। हे तात! बुरे समय में मेरे
लिए यह कोई अनुचित बात नहीं है। कुठौर (कुअवसर) में श्रेष्ठ भाई ही सहायक
होते हैं। वज्र के आघात भी हाथ से ही रोके जाते हैं॥4॥
दोहा :
* सेवक कर पद नयन से मुख सो साहिबु होइ।
तुलसी प्रीति कि रीति सुनि सुकबि सराहहिं सोइ॥306॥
तुलसी प्रीति कि रीति सुनि सुकबि सराहहिं सोइ॥306॥
भावार्थ:-सेवक हाथ, पैर
और नेत्रों के समान और स्वामी मुख के समान होना चाहिए। तुलसीदासजी कहते हैं
कि सेवक-स्वामी की ऐसी प्रीति की रीति सुनकर सुकवि उसकी सराहना करते
हैं॥306॥
चौपाई :
* सभा सकल सुनि रघुबर बानी। प्रेम पयोधि अमिअँ जनु सानी॥
सिथिल समाज सनेह समाधी। देखि दसा चुप सारद साधी॥1॥
सिथिल समाज सनेह समाधी। देखि दसा चुप सारद साधी॥1॥
भावार्थ:-श्री रघुनाथजी
की वाणी सुनकर, जो मानो प्रेम रूपी समुद्र के (मंथन से निकले हुए) अमृत में
सनी हुई थी, सारा समाज शिथिल हो गया, सबको प्रेम समाधि लग गई। यह दशा
देखकर सरस्वती ने चुप साध ली॥1॥
* भरतहि भयउ परम संतोषू। सनमुख स्वामि बिमुख दुख दोषू॥
मुख प्रसन्न मन मिटा बिषादू। भा जनु गूँगेहि गिरा प्रसादू॥2॥
मुख प्रसन्न मन मिटा बिषादू। भा जनु गूँगेहि गिरा प्रसादू॥2॥
भावार्थ:-भरतजी को परम
संतोष हुआ। स्वामी के सम्मुख (अनुकूल) होते ही उनके दुःख और दोषों ने मुँह
मोड़ लिया (वे उन्हें छोड़कर भाग गए)। उनका मुख प्रसन्न हो गया और मन का
विषाद मिट गया। मानो गूँगे पर सरस्वती की कृपा हो गई हो॥2॥
* कीन्ह सप्रेम प्रनामु बहोरी। बोले पानि पंकरुह जोरी॥
नाथ भयउ सुखु साथ गए को। लहेउँ लाहु जग जनमु भए को॥3॥
नाथ भयउ सुखु साथ गए को। लहेउँ लाहु जग जनमु भए को॥3॥
भावार्थ:-उन्होंने फिर
प्रेमपूर्वक प्रणाम किया और करकमलों को जोड़कर वे बोले- हे नाथ! मुझे आपके
साथ जाने का सुख प्राप्त हो गया और मैंने जगत में जन्म लेने का लाभ भी पा
लिया।3॥
* अब कृपाल जस आयसु होई। करौं सीस धरि सादर सोई॥
सो अवलंब देव मोहि देई। अवधि पारु पावौं जेहि सेई॥4॥
सो अवलंब देव मोहि देई। अवधि पारु पावौं जेहि सेई॥4॥
भावार्थ:-हे कृपालु! अब
जैसी आज्ञा हो, उसी को मैं सिर पर धर कर आदरपूर्वक करूँ! परन्तु देव! आप
मुझे वह अवलम्बन (कोई सहारा) दें, जिसकी सेवा कर मैं अवधि का पार पा जाऊँ
(अवधि को बिता दूँ)॥4॥
दोहा :
* देव देव अभिषेक हित गुर अनुसासनु पाइ।
आनेउँ सब तीरथ सलिलु तेहि कहँ काह रजाइ॥307॥
आनेउँ सब तीरथ सलिलु तेहि कहँ काह रजाइ॥307॥
भावार्थ:-हे देव! स्वामी (आप) के अभिषेक के लिए गुरुजी की आज्ञा पाकर मैं सब तीर्थों का जल लेता आया हूँ, उसके लिए क्या आज्ञा होती है?॥307॥
चौपाई :
* एकु मनोरथु बड़ मन माहीं। सभयँ सकोच जात कहि नाहीं॥
कहहु तात प्रभु आयसु पाई। बोले बानि सनेह सुहाई॥1॥
कहहु तात प्रभु आयसु पाई। बोले बानि सनेह सुहाई॥1॥
भावार्थ:-मेरे मन में एक
और बड़ा मनोरथ है, जो भय और संकोच के कारण कहा नहीं जाता। (श्री
रामचन्द्रजी ने कहा-) हे भाई! कहो। तब प्रभु की आज्ञा पाकर भरतजी
स्नेहपूर्ण सुंदर वाणी बोले-॥1॥
* चित्रकूट सुचि थल तीरथ बन। खग मृग सर सरि निर्झर गिरिगन॥
प्रभु पद अंकित अवनि बिसेषी। आयसु होइ त आवौं देखी॥2॥
प्रभु पद अंकित अवनि बिसेषी। आयसु होइ त आवौं देखी॥2॥
भावार्थ:-आज्ञा हो तो
चित्रकूट के पवित्र स्थान, तीर्थ, वन, पक्षी-पशु, तालाब-नदी, झरने और
पर्वतों के समूह तथा विशेष कर प्रभु (आप) के चरण चिह्नों से अंकित भूमि को
देख आऊँ॥2॥
* अवसि अत्रि आयसु सिर धरहू। तात बिगतभय कानन चरहू॥
मुनि प्रसाद बनु मंगल दाता। पावन परम सुहावन भ्राता॥3॥
मुनि प्रसाद बनु मंगल दाता। पावन परम सुहावन भ्राता॥3॥
भावार्थ:-(श्री रघुनाथजी
बोले-) अवश्य ही अत्रि ऋषि की आज्ञा को सिर पर धारण करो (उनसे पूछकर वे
जैसा कहें वैसा करो) और निर्भय होकर वन में विचरो। हे भाई! अत्रि मुनि के
प्रसाद से वन मंगलों का देने वाला, परम पवित्र और अत्यन्त सुंदर है-॥3॥
* रिषिनायकु जहँ आयसु देहीं। राखेहु तीरथ जलु थल तेहीं॥
सुनि प्रभु बचन भरत सुखु पावा। मुनि पद कमल मुदित सिरु नावा॥4॥
सुनि प्रभु बचन भरत सुखु पावा। मुनि पद कमल मुदित सिरु नावा॥4॥
भावार्थ:-और ऋषियों के
प्रमुख अत्रिजी जहाँ आज्ञा दें, वहीं (लाया हुआ) तीर्थों का जल स्थापित कर
देना। प्रभु के वचन सुनकर भरतजी ने सुख पाया और आनंदित होकर मुनि अत्रिजी
के चरणकमलों में सिर नवाया॥4॥
दोहा :
* भरत राम संबादु सुनि सकल सुमंगल मूल।
सुर स्वारथी सराहि कुल बरषत सुरतरु फूल॥308॥
सुर स्वारथी सराहि कुल बरषत सुरतरु फूल॥308॥
भावार्थ:-समस्त सुंदर
मंगलों का मूल भरतजी और श्री रामचन्द्रजी का संवाद सुनकर स्वार्थी देवता
रघुकुल की सराहना करके कल्पवृक्ष के फूल बरसाने लगे॥308॥
चौपाई :
* धन्य भरत जय राम गोसाईं। कहत देव हरषत बरिआईं॥
मुनि मिथिलेस सभाँ सब काहू। भरत बचन सुनि भयउ उछाहू॥1॥
मुनि मिथिलेस सभाँ सब काहू। भरत बचन सुनि भयउ उछाहू॥1॥
भावार्थ:-'भरतजी धन्य
हैं, स्वामी श्री रामजी की जय हो!' ऐसा कहते हुए देवता बलपूर्वक (अत्यधिक)
हर्षित होने लगे। भरतजी के वचन सुनकर मुनि वशिष्ठजी, मिथिलापति जनकजी और
सभा में सब किसी को बड़ा उत्साह (आनंद) हुआ॥1॥
* भरत राम गुन ग्राम सनेहू। पुलकि प्रसंसत राउ बिदेहू॥
सेवक स्वामि सुभाउ सुहावन। नेमु पेमु अति पावन पावन॥2॥
सेवक स्वामि सुभाउ सुहावन। नेमु पेमु अति पावन पावन॥2॥
भावार्थ:-भरतजी और श्री
रामचन्द्रजी के गुण समूह की तथा प्रेम की विदेहराज जनकजी पुलकित होकर
प्रशंसा कर रहे हैं। सेवक और स्वामी दोनों का सुंदर स्वभाव है। इनके नियम
और प्रेम पवित्र को भी अत्यन्त पवित्र करने वाले हैं॥2॥
* मति अनुसार सराहन लागे। सचिव सभासद सब अनुरागे॥
सुनि सुनि राम भरत संबादू। दुहु समाज हियँ हरषु विषादू॥3
सुनि सुनि राम भरत संबादू। दुहु समाज हियँ हरषु विषादू॥3
भावार्थ:-मंत्री और
सभासद् सभी प्रेममुग्ध होकर अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार सराहना करने लगे।
श्री रामचन्द्रजी और भरतजी का संवाद सुन-सुनकर दोनों समाजों के हृदयों में
हर्ष और विषाद (भरतजी के सेवा धर्म को देखकर हर्ष और रामवियोग की सम्भावना
से विषाद) दोनों हुए॥3॥
* राम मातु दुखु सुखु सम जानी। कहि गुन राम प्रबोधीं रानी॥
एक कहहिं रघुबीर बड़ाई। एक सराहत भरत भलाई॥4॥
एक कहहिं रघुबीर बड़ाई। एक सराहत भरत भलाई॥4॥
भावार्थ:-श्री
रामचन्द्रजी की माता कौसल्याजी ने दुःख और सुख को समान जानकर श्री रामजी के
गुण कहकर दूसरी रानियों को धैर्य बँधाया। कोई श्री रामजी की बड़ाई (बड़प्पन)
की चर्चा कर रहे हैं, तो कोई भरतजी के अच्छेपन की सराहना करते हैं॥4॥
भरतजी का तीर्थ जल स्थापन तथा चित्रकूट भ्रमण
दोहा :
* अत्रि कहेउ तब भरत सन सैल समीप सुकूप।
राखिअ तीरथ तोय तहँ पावन अमिअ अनूप॥309॥
राखिअ तीरथ तोय तहँ पावन अमिअ अनूप॥309॥
भावार्थ:-तब अत्रिजी ने
भरतजी से कहा- इस पर्वत के समीप ही एक सुंदर कुआँ है। इस पवित्र, अनुपम और
अमृत जैसे तीर्थजल को उसी में स्थापित कर दीजिए॥309॥
चौपाई :
* भरत अत्रि अनुसासन पाई। जल भाजन सब दिए चलाई॥
सानुज आपु अत्रि मुनि साधू। सहित गए जहँ कूप अगाधू॥1॥
सानुज आपु अत्रि मुनि साधू। सहित गए जहँ कूप अगाधू॥1॥
भावार्थ:-भरतजी ने
अत्रिमुनि की आज्ञा पाकर जल के सब पात्र रवाना कर दिए और छोटे भाई
शत्रुघ्न, अत्रि मुनि तथा अन्य साधु-संतों सहित आप वहाँ गए, जहाँ वह अथाह
कुआँ था॥1॥
* पावन पाथ पुन्यथल राखा। प्रमुदित प्रेम अत्रि अस भाषा॥
तात अनादि सिद्ध थल एहू। लोपेउ काल बिदित नहिं केहू॥2॥
तात अनादि सिद्ध थल एहू। लोपेउ काल बिदित नहिं केहू॥2॥
भावार्थ:-और उस पवित्र
जल को उस पुण्य स्थल में रख दिया। तब अत्रि ऋषि ने प्रेम से आनंदित होकर
ऐसा कहा- हे तात! यह अनादि सिद्धस्थल है। कालक्रम से यह लोप हो गया था,
इसलिए किसी को इसका पता नहीं था॥2॥
* तब सेवकन्ह सरस थलुदेखा। कीन्ह सुजल हित कूप बिसेषा॥
बिधि बस भयउ बिस्व उपकारू। सुगम अगम अति धरम बिचारू॥3॥
बिधि बस भयउ बिस्व उपकारू। सुगम अगम अति धरम बिचारू॥3॥
भावार्थ:-तब (भरतजी के)
सेवकों ने उस जलयुक्त स्थान को देखा और उस सुंदर (तीर्थों के) जल के लिए एक
खास कुआँ बना लिया। दैवयोग से विश्वभर का उपकार हो गया। धर्म का विचार जो
अत्यन्त अगम था, वह (इस कूप के प्रभाव से) सुगम हो गया॥3॥
* भरतकूप अब कहिहहिं लोगा। अति पावन तीरथ जल जोगा॥
प्रेम सनेम निमज्जत प्रानी। होइहहिं बिमल करम मन बानी॥4॥
प्रेम सनेम निमज्जत प्रानी। होइहहिं बिमल करम मन बानी॥4॥
भावार्थ:-अब इसको लोग
भरतकूप कहेंगे। तीर्थों के जल के संयोग से तो यह अत्यन्त ही पवित्र हो गया।
इसमें प्रेमपूर्वक नियम से स्नान करने पर प्राणी मन, वचन और कर्म से
निर्मल हो जाएँगे॥4॥
दोहा :
* कहत कूप महिमा सकल गए जहाँ रघुराउ।
अत्रि सुनायउ रघुबरहि तीरथ पुन्य प्रभाउ॥310॥
अत्रि सुनायउ रघुबरहि तीरथ पुन्य प्रभाउ॥310॥
भावार्थ:-कूप की महिमा कहते हुए सब लोग वहाँ गए जहाँ श्री रघुनाथजी थे। श्री रघुनाथजी को अत्रिजी ने उस तीर्थ का पुण्य प्रभाव सुनाया॥310॥
चौपाई :
* कहत धरम इतिहास सप्रीती। भयउ भोरु निसि सो सुख बीती॥
नित्य निबाहि भरत दोउ भाई। राम अत्रि गुर आयसु पाई॥1॥
नित्य निबाहि भरत दोउ भाई। राम अत्रि गुर आयसु पाई॥1॥
भावार्थ:-प्रेमपूर्वक
धर्म के इतिहास कहते वह रात सुख से बीत गई और सबेरा हो गया। भरत-शत्रुघ्न
दोनों भाई नित्यक्रिया पूरी करके, श्री रामजी, अत्रिजी और गुरु वशिष्ठजी की
आज्ञा पाकर,॥1॥
* सहित समाज साज सब सादें। चले राम बन अटन पयादें॥
कोमल चरन चलत बिनु पनहीं। भइ मृदु भूमि सकुचि मन मनहीं॥2॥
कोमल चरन चलत बिनु पनहीं। भइ मृदु भूमि सकुचि मन मनहीं॥2॥
भावार्थ:-समाज सहित सब
सादे साज से श्री रामजी के वन में भ्रमण (प्रदक्षिणा) करने के लिए पैदल ही
चले। कोमल चरण हैं और बिना जूते के चल रहे हैं, यह देखकर पृथ्वी मन ही मन
सकुचाकर कोमल हो गई॥2॥
* कुस कंटक काँकरीं कुराईं। कटुक कठोर कुबस्तु दुराईं॥
महि मंजुल मृदु मारग कीन्हे। बहत समीर त्रिबिध सुख लीन्हे॥3॥
महि मंजुल मृदु मारग कीन्हे। बहत समीर त्रिबिध सुख लीन्हे॥3॥
भावार्थ:-कुश, काँटे,
कंकड़ी, दरारों आदि कड़वी, कठोर और बुरी वस्तुओं को छिपाकर पृथ्वी ने सुंदर
और कोमल मार्ग कर दिए। सुखों को साथ लिए (सुखदायक) शीतल, मंद, सुगंध हवा
चलने लगी॥3॥
* सुमन बरषि सुर घन करि छाहीं। बिटप फूलि फलि तृन मृदुताहीं॥
मृग बिलोकि खग बोलि सुबानी। सेवहिं सकल राम प्रिय जानी॥4॥
मृग बिलोकि खग बोलि सुबानी। सेवहिं सकल राम प्रिय जानी॥4॥
भावार्थ:-रास्ते में
देवता फूल बरसाकर, बादल छाया करके, वृक्ष फूल-फलकर, तृण अपनी कोमलता से,
मृग (पशु) देखकर और पक्षी सुंदर वाणी बोलकर सभी भरतजी को श्री रामचन्द्रजी
के प्यारे जानकर उनकी सेवा करने लगे॥4॥
दोहा :
* सुलभ सिद्धि सब प्राकृतहु राम कहत जमुहात।
राम प्रानप्रिय भरत कहुँ यह न होइ बड़ि बात॥311॥
राम प्रानप्रिय भरत कहुँ यह न होइ बड़ि बात॥311॥
भावार्थ:-जब एक साधारण
मनुष्य को भी (आलस्य से) जँभाई लेते समय 'राम' कह देने से ही सब सिद्धियाँ
सुलभ हो जाती हैं, तब श्री रामचन्द्रजी के प्राण प्यारे भरतजी के लिए यह
कोई बड़ी (आश्चर्य की) बात नहीं है॥311॥
चौपाई :
* एहि बिधि भरतु फिरत बन माहीं। नेमु प्रेमु लखि मुनि सकुचाहीं॥
पुन्य जलाश्रय भूमि बिभागा। खग मृग तरु तृन गिरि बन बागा॥1॥
पुन्य जलाश्रय भूमि बिभागा। खग मृग तरु तृन गिरि बन बागा॥1॥
भावार्थ:-इस प्रकार
भरतजी वन में फिर रहे हैं। उनके नियम और प्रेम को देखकर मुनि भी सकुचा जाते
हैं। पवित्र जल के स्थान (नदी, बावली, कुंड आदि) पृथ्वी के पृथक-पृथक भाग,
पक्षी, पशु, वृक्ष, तृण (घास), पर्वत, वन और बगीचे-॥1॥
* चारु बिचित्र पबित्र बिसेषी। बूझत भरतु दिब्य सब देखी॥
सुनि मन मुदित कहत रिषिराऊ। हेतु नाम गुन पुन्य प्रभाऊ॥2॥
सुनि मन मुदित कहत रिषिराऊ। हेतु नाम गुन पुन्य प्रभाऊ॥2॥
भावार्थ:-सभी विशेष रूप
से सुंदर, विचित्र, पवित्र और दिव्य देखकर भरतजी पूछते हैं और उनका प्रश्न
सुनकर ऋषिराज अत्रिजी प्रसन्न मन से सबके कारण, नाम, गुण और पुण्य प्रभाव
को कहते हैं॥2॥
* कतहुँ निमज्जन कतहुँ प्रनामा। कतहुँ बिलोकत मन अभिरामा॥
कतहुँ बैठि मुनि आयसु पाई। सुमिरत सीय सहित दोउ भाई॥3॥
कतहुँ बैठि मुनि आयसु पाई। सुमिरत सीय सहित दोउ भाई॥3॥
भावार्थ:-भरतजी कहीं
स्नान करते हैं, कहीं प्रणाम करते हैं, कहीं मनोहर स्थानों के दर्शन करते
हैं और कहीं मुनि अत्रिजी की आज्ञा पाकर बैठकर, सीताजी सहित श्री
राम-लक्ष्मण दोनों भाइयों का स्मरण करते हैं॥3॥
तो इसमें लाभ अधिक और हानि कम प्रतीत हुई, परन्तु रानियों को दुःख-सुख समान
ही थे (राम-लक्ष्मण वन में रहें या भरत-शत्रुघ्न, दो पुत्रों का वियोग तो
रहेगा ही), यह समझकर वे सब रोने लगीं॥3॥
* देखि सुभाउ सनेहु सुसेवा। देहिं असीस मुदित बनदेवा॥
फिरहिं गएँ दिनु पहर अढ़ाई। प्रभु पद कमल बिलोकहिं आई॥4॥
फिरहिं गएँ दिनु पहर अढ़ाई। प्रभु पद कमल बिलोकहिं आई॥4॥
भावार्थ:-भरतजी के
स्वभाव, प्रेम और सुंदर सेवाभाव को देखकर वनदेवता आनंदित होकर आशीर्वाद
देते हैं। यों घूम-फिरकर ढाई पहर दिन बीतने पर लौट पड़ते हैं और आकर प्रभु
श्री रघुनाथजी के चरणकमलों का दर्शन करते हैं॥4॥
दोहा :
* देखे थल तीरथ सकल भरत पाँच दिन माझ।
कहत सुनत हरि हर सुजसु गयउ दिवसु भइ साँझ॥312॥
कहत सुनत हरि हर सुजसु गयउ दिवसु भइ साँझ॥312॥
भावार्थ:-भरतजी ने पाँच
दिन में सब तीर्थ स्थानों के दर्शन कर लिए। भगवान विष्णु और महादेवजी का
सुंदर यश कहते-सुनते वह (पाँचवाँ) दिन भी बीत गया, संध्या हो गई॥312॥
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