अयोध्याकाण्ड: भाग-पांच
• भरतजी का प्रयाग जाना और भरत-भरद्वाज संवाद
• भरद्वाज द्वारा भरत का सत्कार
• इंद्र-बृहस्पति संवाद
• भरतजी चित्रकूट के मार्ग में
• श्री सीताजी का स्वप्न, श्री रामजी को कोल-किरातों द्वारा भरतजी के आगमन की सूचना, रामजी का शोक, लक्ष्मणजी का क्रोध
• श्री रामजी का लक्ष्मणजी को समझाना एवं भरतजी की महिमा कहना
• भरतजी का मन्दाकिनी स्नान, चित्रकूट में पहुँचना, भरतादि सबका परस्पर मिलाप, पिता का शोक और श्राद्ध
• वनवासियों द्वारा भरतजी की मंडली का सत्कार, कैकेयी का पश्चाताप
• श्री वशिष्ठजी का भाषण
भरतजी का प्रयाग जाना और भरत-भरद्वाज संवाद
भरद्वाज द्वारा भरत का सत्कार
अयोध्याकांड में श्रीराम वनगमन से लेकर श्रीराम-भरत मिलाप तक के घटनाक्रम
आते हैं। नीचे अयोध्याकांड से जुड़े घटनाक्रमों की विषय सूची दी गई है।
• भरतजी का प्रयाग जाना और भरत-भरद्वाज संवाद
• भरद्वाज द्वारा भरत का सत्कार
• इंद्र-बृहस्पति संवाद
• भरतजी चित्रकूट के मार्ग में
• श्री सीताजी का स्वप्न, श्री रामजी को कोल-किरातों द्वारा भरतजी के आगमन की सूचना, रामजी का शोक, लक्ष्मणजी का क्रोध
• श्री रामजी का लक्ष्मणजी को समझाना एवं भरतजी की महिमा कहना
• भरतजी का मन्दाकिनी स्नान, चित्रकूट में पहुँचना, भरतादि सबका परस्पर मिलाप, पिता का शोक और श्राद्ध
• वनवासियों द्वारा भरतजी की मंडली का सत्कार, कैकेयी का पश्चाताप
• श्री वशिष्ठजी का भाषण
भरतजी का प्रयाग जाना और भरत-भरद्वाज संवाद
दोहा :
* भरत तीसरे पहर कहँ कीन्ह प्रबेसु प्रयाग।
कहत राम सिय राम सिय उमगि उमगि अनुराग॥203॥
कहत राम सिय राम सिय उमगि उमगि अनुराग॥203॥
भावार्थ:-प्रेम में उमँग-उमँगकर सीताराम-सीताराम कहते हुए भरतजी ने तीसरे पहर प्रयाग में प्रवेश किया॥203॥
चौपाई :
* झलका झलकत पायन्ह कैसें। पंकज कोस ओस कन जैसें॥
भरत पयादेहिं आए आजू। भयउ दुखित सुनि सकल समाजू॥1॥
भरत पयादेहिं आए आजू। भयउ दुखित सुनि सकल समाजू॥1॥
भावार्थ:-उनके चरणों में
छाले कैसे चमकते हैं, जैसे कमल की कली पर ओस की बूँदें चमकती हों। भरतजी
आज पैदल ही चलकर आए हैं, यह समाचार सुनकर सारा समाज दुःखी हो गया॥1॥
* खबरि लीन्ह सब लोग नहाए। कीन्ह प्रनामु त्रिबेनिहिं आए॥
सबिधि सितासित नीर नहाने। दिए दान महिसुर सनमाने॥2॥
सबिधि सितासित नीर नहाने। दिए दान महिसुर सनमाने॥2॥
भावार्थ:-जब भरतजी ने यह
पता पा लिया कि सब लोग स्नान कर चुके, तब त्रिवेणी पर आकर उन्हें प्रणाम
किया। फिर विधिपूर्वक (गंगा-यमुना के) श्वेत और श्याम जल में स्नान किया और
दान देकर ब्राह्मणों का सम्मान किया॥2॥
* देखत स्यामल धवल हलोरे। पुलकि सरीर भरत कर जोरे॥
सकल काम प्रद तीरथराऊ। बेद बिदित जग प्रगट प्रभाऊ॥3॥
सकल काम प्रद तीरथराऊ। बेद बिदित जग प्रगट प्रभाऊ॥3॥
भावार्थ:-श्याम और सफेद
(यमुनाजी और गंगाजी की) लहरों को देखकर भरतजी का शरीर पुलकित हो उठा और
उन्होंने हाथ जोड़कर कहा- हे तीर्थराज! आप समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाले
हैं। आपका प्रभाव वेदों में प्रसिद्ध और संसार में प्रकट है॥3॥
* मागउँ भीख त्यागि निज धरमू। आरत काह न करइ कुकरमू॥
अस जियँ जानि सुजान सुदानी। सफल करहिं जग जाचक बानी॥4॥
अस जियँ जानि सुजान सुदानी। सफल करहिं जग जाचक बानी॥4॥
भावार्थ:-मैं अपना धर्म
(न माँगने का क्षत्रिय धर्म) त्यागकर आप से भीख माँगता हूँ। आर्त्त मनुष्य
कौन सा कुकर्म नहीं करता? ऐसा हृदय में जानकर सुजान उत्तम दानी जगत् में
माँगने वाले की वाणी को सफल किया करते हैं (अर्थात् वह जो माँगता है, सो
दे देते हैं)॥4॥
दोहा :
* अरथ न धरम न काम रुचि गति न चहउँ निरबान।
जनम-जनम रति राम पद यह बरदानु न आन॥204॥
जनम-जनम रति राम पद यह बरदानु न आन॥204॥
भावार्थ:-मुझे न अर्थ की
रुचि (इच्छा) है, न धर्म की, न काम की और न मैं मोक्ष ही चाहता हूँ।
जन्म-जन्म में मेरा श्री रामजी के चरणों में प्रेम हो, बस, यही वरदान
माँगता हूँ, दूसरा कुछ नहीं॥204॥
चौपाई :
* जानहुँ रामु कुटिल करि मोही। लोग कहउ गुर साहिब द्रोही॥
सीता राम चरन रति मोरें। अनुदिन बढ़उ अनुग्रह तोरें॥1॥
सीता राम चरन रति मोरें। अनुदिन बढ़उ अनुग्रह तोरें॥1॥
भावार्थ:-स्वयं श्री
रामचंद्रजी भी भले ही मुझे कुटिल समझें और लोग मुझे गुरुद्रोही तथा स्वामी
द्रोही भले ही कहें, पर श्री सीता-रामजी के चरणों में मेरा प्रेम आपकी कृपा
से दिन-दिन बढ़ता ही रहे॥1॥
* जलदु जनम भरि सुरति बिसारउ। जाचत जलु पबि पाहन डारउ॥
चातकु रटिन घटें घटि जाई। बढ़ें प्रेमु सब भाँति भलाई॥2॥
चातकु रटिन घटें घटि जाई। बढ़ें प्रेमु सब भाँति भलाई॥2॥
भावार्थ:-मेघ चाहे
जन्मभर चातक की सुध भुला दे और जल माँगने पर वह चाहे वज्र और पत्थर (ओले)
ही गिरावे, पर चातक की रटन घटने से तो उसकी बात ही घट जाएगी (प्रतिष्ठा ही
नष्ट हो जाएगी)। उसकी तो प्रेम बढ़ने में ही सब तरह से भलाई है॥2॥
* कनकहिं बान चढ़इ जिमि दाहें। तिमि प्रियतम पद नेम निबाहें॥
भरत बचन सुनि माझ त्रिबेनी। भइ मृदु बानि सुमंगल देनी॥3॥
भरत बचन सुनि माझ त्रिबेनी। भइ मृदु बानि सुमंगल देनी॥3॥
भावार्थ:-जैसे तपाने से
सोने पर आब (चमक) आ जाती है, वैसे ही प्रियतम के चरणों में प्रेम का नियम
निबाहने से प्रेमी सेवक का गौरव बढ़ जाता है। भरतजी के वचन सुनकर बीच
त्रिवेणी में से सुंदर मंगल देने वाली कोमल वाणी हुई॥3॥
* तात भरत तुम्ह सब बिधि साधू। राम चरन अनुराग अगाधू॥
बादि गलानि करहु मन माहीं। तुम्ह सम रामहि कोउ प्रिय नाहीं॥4॥
बादि गलानि करहु मन माहीं। तुम्ह सम रामहि कोउ प्रिय नाहीं॥4॥
भावार्थ:-हे तात भरत!
तुम सब प्रकार से साधु हो। श्री रामचंद्रजी के चरणों में तुम्हारा अथाह
प्रेम है। तुम व्यर्थ ही मन में ग्लानि कर रहे हो। श्री रामचंद्रजी को
तुम्हारे समान प्रिय कोई नहीं है॥4॥
दोहा :
* तनु पुलकेउ हियँ हरषु सुनि बेनि बचन अनुकूल।
भरत धन्य कहि धन्य सुर हरषित बरषहिं फूल॥205॥
भरत धन्य कहि धन्य सुर हरषित बरषहिं फूल॥205॥
भावार्थ:-त्रिवेणीजी के
अनुकूल वचन सुनकर भरतजी का शरीर पुलकित हो गया, हृदय में हर्ष छा गया।
भरतजी धन्य हैं, कहकर देवता हर्षित होकर फूल बरसाने लगे॥205॥
चौपाई :
* प्रमुदित तीरथराज निवासी। बैखानस बटु गृही उदासी॥
कहहिं परसपर मिलि दस पाँचा। भरत सनेहु सीलु सुचि साँचा॥1॥
कहहिं परसपर मिलि दस पाँचा। भरत सनेहु सीलु सुचि साँचा॥1॥
भावार्थ:-तीर्थराज
प्रयाग में रहने वाले वनप्रस्थ, ब्रह्मचारी, गृहस्थ और उदासीन (संन्यासी)
सब बहुत ही आनंदित हैं और दस-पाँच मिलकर आपस में कहते हैं कि भरतजी का
प्रेम और शील पवित्र और सच्चा है॥1॥
* सुनत राम गुन ग्राम सुहाए। भरद्वाज मुनिबर पहिं आए॥
दंड प्रनामु करत मुनि देखे। मूरतिमंत भाग्य निज लेखे॥2॥
दंड प्रनामु करत मुनि देखे। मूरतिमंत भाग्य निज लेखे॥2॥
भावार्थ:-श्री
रामचन्द्रजी के सुंदर गुण समूहों को सुनते हुए वे मुनिश्रेष्ठ भरद्वाजजी के
पास आए। मुनि ने भरतजी को दण्डवत प्रणाम करते देखा और उन्हें अपना
मूर्तिमान सौभाग्य समझा॥2॥
* धाइ उठाइ लाइ उर लीन्हे। दीन्हि असीस कृतारथ कीन्हे॥
आसनु दीन्ह नाइ सिरु बैठे। चहत सकुच गृहँ जनु भजि पैठे॥3॥
आसनु दीन्ह नाइ सिरु बैठे। चहत सकुच गृहँ जनु भजि पैठे॥3॥
भावार्थ:-उन्होंने दौड़कर
भरतजी को उठाकर हृदय से लगा लिया और आशीर्वाद देकर कृतार्थ किया। मुनि ने
उन्हें आसन दिया। वे सिर नवाकर इस तरह बैठे मानो भागकर संकोच के घर में घुस
जाना चाहते हैं॥3॥
* मुनि पूँछब कछु यह बड़ सोचू। बोले रिषि लखि सीलु सँकोचू॥
सुनहु भरत हम सब सुधि पाई। बिधि करतब पर किछु न बसाई॥4॥
सुनहु भरत हम सब सुधि पाई। बिधि करतब पर किछु न बसाई॥4॥
भावार्थ:-उनके मन में यह
बड़ा सोच है कि मुनि कुछ पूछेंगे (तो मैं क्या उत्तर दूँगा)। भरतजी के शील
और संकोच को देखकर ऋषि बोले- भरत! सुनो, हम सब खबर पा चुके हैं। विधाता के
कर्तव्य पर कुछ वश नहीं चलता॥4॥
दोहा :
* तुम्ह गलानि जियँ जनि करहु समुझि मातु करतूति।
तात कैकइहि दोसु नहिं गई गिरा मति धूति॥206॥
तात कैकइहि दोसु नहिं गई गिरा मति धूति॥206॥
भावार्थ:-माता की करतूत
को समझकर (याद करके) तुम हृदय में ग्लानि मत करो। हे तात! कैकेयी का कोई
दोष नहीं है, उसकी बुद्धि तो सरस्वती बिगाड़ गई थी॥206॥
चौपाई :
* यहउ कहत भल कहिहि न कोऊ। लोकु बेदु बुध संमत दोऊ॥
तात तुम्हार बिमल जसु गाई। पाइहि लोकउ बेदु बड़ाई॥1॥
तात तुम्हार बिमल जसु गाई। पाइहि लोकउ बेदु बड़ाई॥1॥
भावार्थ:-यह कहते भी कोई
भला न कहेगा, क्योंकि लोक और वेद दोनों ही विद्वानों को मान्य है, किन्तु
हे तात! तुम्हारा निर्मल यश गाकर तो लोक और वेद दोनों बड़ाई पावेंगे॥1॥
* लोक बेद संमत सबु कहई। जेहि पितु देइ राजु सो लहई॥
राउ सत्यब्रत तुम्हहि बोलाई। देत राजु सुखु धरमु बड़ाई॥2॥
राउ सत्यब्रत तुम्हहि बोलाई। देत राजु सुखु धरमु बड़ाई॥2॥
भावार्थ:-यह लोक और वेद
दोनों को मान्य है और सब यही कहते हैं कि पिता जिसको राज्य दे वही पाता है।
राजा सत्यव्रती थे, तुमको बुलाकर राज्य देते, तो सुख मिलता, धर्म रहता और
बड़ाई होती॥2॥
* राम गवनु बन अनरथ मूला। जो सुनि सकल बिस्व भइ सूला॥
सो भावी बस रानि अयानी। करि कुचालि अंतहुँ पछितानी॥3॥
सो भावी बस रानि अयानी। करि कुचालि अंतहुँ पछितानी॥3॥
भावार्थ:-सारे अनर्थ की
जड़ तो श्री रामचन्द्रजी का वनगमन है, जिसे सुनकर समस्त संसार को पीड़ा हुई।
वह श्री राम का वनगमन भी भावीवश हुआ। बेसमझ रानी तो भावीवश कुचाल करके अंत
में पछताई॥3॥
* तहँउँ तुम्हार अलप अपराधू। कहै सो अधम अयान असाधू॥
करतेहु राजु त तुम्हहि ना दोषू। रामहि होत सुनत संतोषू॥4॥
करतेहु राजु त तुम्हहि ना दोषू। रामहि होत सुनत संतोषू॥4॥
भावार्थ:-उसमें भी
तुम्हारा कोई तनिक सा भी अपराध कहे, तो वह अधम, अज्ञानी और असाधु है। यदि
तुम राज्य करते तो भी तुम्हें दोष न होता। सुनकर श्री रामचन्द्रजी को भी
संतोष ही होता॥4॥
दोहा :
* अब अति कीन्हेहु भरत भल तुम्हहि उचित मत एहु।
सकल सुमंगल मूल जग रघुबर चरन सनेहु॥207॥
सकल सुमंगल मूल जग रघुबर चरन सनेहु॥207॥
भावार्थ:-हे भरत! अब तो
तुमने बहुत ही अच्छा किया, यही मत तुम्हारे लिए उचित था। श्री रामचन्द्रजी
के चरणों में प्रेम होना ही संसार में समस्त सुंदर मंगलों का मूल है॥207॥
चौपाई :
* सो तुम्हार धनु जीवनु प्राना। भूरिभाग को तुम्हहि समाना॥
यह तुम्हार आचरजु न ताता। दसरथ सुअन राम प्रिय भ्राता॥1॥
यह तुम्हार आचरजु न ताता। दसरथ सुअन राम प्रिय भ्राता॥1॥
भावार्थ:-सो वह (श्री
रामचन्द्रजी के चरणों का प्रेम) तो तुम्हारा धन, जीवन और प्राण ही है,
तुम्हारे समान बड़भागी कौन है? हे तात! तुम्हारे लिए यह आश्चर्य की बात नहीं
है, क्योंकि तुम दशरथजी के पुत्र और श्री रामचन्द्रजी के प्यारे भाई हो॥1॥
* सुनहु भरत रघुबर मन माहीं। पेम पात्रु तुम्ह सम कोउ नाहीं॥
लखन राम सीतहि अति प्रीती। निसि सब तुम्हहि सराहत बीती॥2॥
लखन राम सीतहि अति प्रीती। निसि सब तुम्हहि सराहत बीती॥2॥
भावार्थ:-हे भरत! सुनो,
श्री रामचन्द्र के मन में तुम्हारे समान प्रेम पात्र दूसरा कोई नहीं है।
लक्ष्मणजी, श्री रामजी और सीताजी तीनों की सारी रात उस दिन अत्यन्त प्रेम
के साथ तुम्हारी सराहना करते ही बीती॥2॥
* जाना मरमु नहात प्रयागा। मगन होहिं तुम्हरें अनुरागा॥
तुम्ह पर अस सनेहु रघुबर कें। सुख जीवन जग जस जड़ नर कें॥3॥
तुम्ह पर अस सनेहु रघुबर कें। सुख जीवन जग जस जड़ नर कें॥3॥
भावार्थ:-प्रयागराज में
जब वे स्नान कर रहे थे, उस समय मैंने उनका यह मर्म जाना। वे तुम्हारे प्रेम
में मग्न हो रहे थे। तुम पर श्री रामचन्द्रजी का ऐसा ही (अगाध) स्नेह है,
जैसा मूर्ख (विषयासक्त) मनुष्य का संसार में सुखमय जीवन पर होता है॥3॥
* यह न अधिक रघुबीर बड़ाई। प्रनत कुटुंब पाल रघुराई॥
तुम्ह तौ भरत मोर मत एहू। धरें देह जनु राम सनेहू॥4॥
तुम्ह तौ भरत मोर मत एहू। धरें देह जनु राम सनेहू॥4॥
भावार्थ:-यह श्री
रघुनाथजी की बहुत बड़ाई नहीं है, क्योंकि श्री रघुनाथजी तो शरणागत के
कुटुम्ब भर को पालने वाले हैं। हे भरत! मेरा यह मत है कि तुम तो मानो
शरीरधारी श्री रामजी के प्रेम ही हो॥4॥
दोहा :
* तुम्ह कहँ भरत कलंक यह हम सब कहँ उपदेसु।
राम भगति रस सिद्धि हित भा यह समउ गनेसु॥208॥
राम भगति रस सिद्धि हित भा यह समउ गनेसु॥208॥
भावार्थ:-हे भरत!
तुम्हारे लिए (तुम्हारी समझ में) यह कलंक है, पर हम सबके लिए तो उपदेश है।
श्री रामभक्ति रूपी रस की सिद्धि के लिए यह समय गणेश (बड़ा शुभ) हुआ है॥208॥
चौपाई :
* नव बिधु बिमल तात जसु तोरा। रघुबर किंकर कुमुद चकोरा॥
उदित सदा अँथइहि कबहूँ ना। घटिहि न जग नभ दिन दिन दूना॥1॥
उदित सदा अँथइहि कबहूँ ना। घटिहि न जग नभ दिन दिन दूना॥1॥
भावार्थ:-हे तात!
तुम्हारा यश निर्मल नवीन चन्द्रमा है और श्री रामचन्द्रजी के दास कुमुद और
चकोर हैं (वह चन्द्रमा तो प्रतिदिन अस्त होता और घटता है, जिससे कुमुद और
चकोर को दुःख होता है), परन्तु यह तुम्हारा यश रूपी चन्द्रमा सदा उदय
रहेगा, कभी अस्त होगा ही नहीं! जगत रूपी आकाश में यह घटेगा नहीं, वरन
दिन-दिन दूना होगा॥1॥
* कोक तिलोक प्रीति अति करिही। प्रभु प्रताप रबि छबिहि न हरिही॥
निसि दिन सुखद सदा सब काहू। ग्रसिहि न कैकइ करतबु राहू॥2॥
निसि दिन सुखद सदा सब काहू। ग्रसिहि न कैकइ करतबु राहू॥2॥
भावार्थ:-त्रैलोक्य रूपी
चकवा इस यश रूपी चन्द्रमा पर अत्यन्त प्रेम करेगा और प्रभु श्री
रामचन्द्रजी का प्रताप रूपी सूर्य इसकी छबि को हरण नहीं करेगा। यह चन्द्रमा
रात-दिन सदा सब किसी को सुख देने वाला होगा। कैकेयी का कुकर्म रूपी राहु
इसे ग्रास नहीं करेगा॥2॥
* पूरन राम सुपेम पियूषा। गुर अवमान दोष नहिं दूषा॥
राम भगत अब अमिअँ अघाहूँ। कीन्हेहु सुलभ सुधा बसुधाहूँ॥3॥
राम भगत अब अमिअँ अघाहूँ। कीन्हेहु सुलभ सुधा बसुधाहूँ॥3॥
भावार्थ:-यह चन्द्रमा
श्री रामचन्द्रजी के सुंदर प्रेम रूपी अमृत से पूर्ण है। यह गुरु के अपमान
रूपी दोष से दूषित नहीं है। तुमने इस यश रूपी चन्द्रमा की सृष्टि करके
पृथ्वी पर भी अमृत को सुलभ कर दिया। अब श्री रामजी के भक्त इस अमृत से
तृप्त हो लें॥3॥
* भूप भगीरथ सुरसरि आनी। सुमिरत सकल सुमंगल खानी॥
दसरथ गुन गन बरनि न जाहीं। अधिकु कहा जेहि सम जग नाहीं॥4॥
दसरथ गुन गन बरनि न जाहीं। अधिकु कहा जेहि सम जग नाहीं॥4॥
भावार्थ:-राजा भगीरथ
गंगाजी को लाए, जिन (गंगाजी) का स्मरण ही सम्पूर्ण सुंदर मंगलों की खान है।
दशरथजी के गुण समूहों का तो वर्णन ही नहीं किया जा सकता, अधिक क्या, जिनकी
बराबरी का जगत में कोई नहीं है॥4॥
दोहा :
* जासु सनेह सकोच बस राम प्रगट भए आई।
जे हर हिय नयननि कबहुँ निरखे नहीं अघाइ॥209॥
जे हर हिय नयननि कबहुँ निरखे नहीं अघाइ॥209॥
भावार्थ:-जिनके प्रेम और
संकोच (शील) के वश में होकर स्वयं (सच्चिदानंदघन) भगवान श्री राम आकर
प्रकट हुए, जिन्हें श्री महादेवजी अपने हृदय के नेत्रों से कभी अघाकर नहीं
देख पाए (अर्थात जिनका स्वरूप हृदय में देखते-देखते शिवजी कभी तृप्त नहीं
हुए)॥209॥
चौपाई :
* कीरति बिधु तुम्ह कीन्ह अनूपा। जहँ बस राम पेम मृगरूपा॥
तात गलानि करहु जियँ जाएँ। डरहु दरिद्रहि पारसु पाएँ॥1॥
तात गलानि करहु जियँ जाएँ। डरहु दरिद्रहि पारसु पाएँ॥1॥
भावार्थ:-(परन्तु उनसे
भी बढ़कर) तुमने कीर्ति रूपी अनुपम चंद्रमा को उत्पन्न किया, जिसमें श्री
राम प्रेम ही हिरन के (चिह्न के) रूप में बसता है। हे तात! तुम व्यर्थ ही
हृदय में ग्लानि कर रहे हो। पारस पाकर भी तुम दरिद्रता से डर रहे हो!॥1॥
* सुनहु भरत हम झूठ न कहहीं। उदासीन तापस बन रहहीं॥
सब साधन कर सुफल सुहावा। लखन राम सिय दरसनु पावा॥2॥
सब साधन कर सुफल सुहावा। लखन राम सिय दरसनु पावा॥2॥
भावार्थ:-हे भरत! सुनो,
हम झूठ नहीं कहते। हम उदासीन हैं (किसी का पक्ष नहीं करते), तपस्वी हैं
(किसी की मुँह देखी नहीं कहते) और वन में रहते हैं (किसी से कुछ प्रयोजन
नहीं रखते)। सब साधनों का उत्तम फल हमें लक्ष्मणजी, श्री रामजी और सीताजी
का दर्शन प्राप्त हुआ॥2॥
* तेहि फल कर फलु दरस तुम्हारा। सहित प्रयाग सुभाग हमारा॥
भरत धन्य तुम्ह जसु जगु जयऊ। कहि अस प्रेम मगन मुनि भयऊ॥3॥
भरत धन्य तुम्ह जसु जगु जयऊ। कहि अस प्रेम मगन मुनि भयऊ॥3॥
भावार्थ:-(सीता-लक्ष्मण
सहित श्री रामदर्शन रूप) उस महान फल का परम फल यह तुम्हारा दर्शन है!
प्रयागराज समेत हमारा बड़ा भाग्य है। हे भरत! तुम धन्य हो, तुमने अपने यश से
जगत को जीत लिया है। ऐसा कहकर मुनि प्रेम में मग्न हो गए॥3॥
* सुनि मुनि बचन सभासद हरषे। साधु सराहि सुमन सुर बरषे॥
धन्य धन्य धुनि गगन प्रयागा। सुनि सुनि भरतु मगन अनुरागा॥4
धन्य धन्य धुनि गगन प्रयागा। सुनि सुनि भरतु मगन अनुरागा॥4
भावार्थ:-भरद्वाज मुनि
के वचन सुनकर सभासद् हर्षित हो गए। 'साधु-साधु' कहकर सराहना करते हुए
देवताओं ने फूल बरसाए। आकाश में और प्रयागराज में 'धन्य, धन्य' की ध्वनि
सुन-सुनकर भरतजी प्रेम में मग्न हो रहे हैं॥4॥
दोहा :
* पुलक गात हियँ रामु सिय सजल सरोरुह नैन।
करि प्रनामु मुनि मंडलिहि बोले गदगद बैन॥210॥
करि प्रनामु मुनि मंडलिहि बोले गदगद बैन॥210॥
भावार्थ:-भरतजी का शरीर
पुलकित है, हृदय में श्री सीता-रामजी हैं और कमल के समान नेत्र (प्रेमाश्रु
के) जल से भरे हैं। वे मुनियों की मंडली को प्रणाम करके गद्गद वचन
बोले-॥210॥
चौपाई :
* मुनि समाजु अरु तीरथराजू। साँचिहुँ सपथ अघाइ अकाजू॥
एहिं थल जौं किछु कहिअ बनाई। एहि सम अधिक न अघ अधमाई॥1॥
एहिं थल जौं किछु कहिअ बनाई। एहि सम अधिक न अघ अधमाई॥1॥
भावार्थ:-मुनियों का
समाज है और फिर तीर्थराज है। यहाँ सच्ची सौगंध खाने से भी भरपूर हानि होती
है। इस स्थान में यदि कुछ बनाकर कहा जाए, तो इसके समान कोई बड़ा पाप और
नीचता न होगी॥1॥
* तुम्ह सर्बग्य कहउँ सतिभाऊ। उर अंतरजामी रघुराऊ॥
मोहि न मातु करतब कर सोचू। नहिं दुखु जियँ जगु जानिहि पोचू॥2॥
मोहि न मातु करतब कर सोचू। नहिं दुखु जियँ जगु जानिहि पोचू॥2॥
भावार्थ:-मैं सच्चे भाव
से कहता हूँ। आप सर्वज्ञ हैं और श्री रघुनाथजी हृदय के भीतर की जानने वाले
हैं (मैं कुछ भी असत्य कहूँगा तो आपसे और उनसे छिपा नहीं रह सकता)। मुझे
माता कैकेयी की करनी का कुछ भी सोच नहीं है और न मेरे मन में इसी बात का
दुःख है कि जगत मुझे नीच समझेगा॥2॥
* नाहिन डरु बिगरिहि परलोकू। पितहु मरन कर मोहि न सोकू॥
सुकृत सुजस भरि भुअन सुहाए। लछिमन राम सरिस सुत पाए॥3॥
सुकृत सुजस भरि भुअन सुहाए। लछिमन राम सरिस सुत पाए॥3॥
भावार्थ:-न यही डर है कि
मेरा परलोक बिगड़ जाएगा और न पिताजी के मरने का ही मुझे शोक है, क्योंकि
उनका सुंदर पुण्य और सुयश विश्व भर में सुशोभित है। उन्होंने श्री
राम-लक्ष्मण सरीखे पुत्र पाए॥3॥
* राम बिरहँ तजि तनु छनभंगू। भूप सोच कर कवन प्रसंगू॥
राम लखन सिय बिनु पग पनहीं। करि मुनि बेष फिरहिं बन बनहीं॥4॥
राम लखन सिय बिनु पग पनहीं। करि मुनि बेष फिरहिं बन बनहीं॥4॥
भावार्थ:-फिर जिन्होंने
श्री रामचन्द्रजी के विरह में अपने क्षणभंगुर शरीर को त्याग दिया, ऐसे राजा
के लिए सोच करने का कौन प्रसंग है? (सोच इसी बात का है कि) श्री रामजी,
लक्ष्मणजी और सीताजी पैरों में बिना जूती के मुनियों का वेष बनाए वन-वन में
फिरते हैं॥4॥
दोहा :
* अजिन बसन फल असन महि सयन डासि कुस पात।
बसि तरु तर नित सहत हिम आतप बरषा बात॥211॥
बसि तरु तर नित सहत हिम आतप बरषा बात॥211॥
भावार्थ:-वे वल्कल
वस्त्र पहनते हैं, फलों का भोजन करते हैं, पृथ्वी पर कुश और पत्ते बिछाकर
सोते हैं और वृक्षों के नीचे निवास करके नित्य सर्दी, गर्मी, वर्षा और हवा
सहते हैं। 211॥
चौपाई :
* एहि दुख दाहँ दहइ दिन छाती। भूख न बासर नीद न राती॥
एहि कुरोग कर औषधु नाहीं। सोधेउँ सकल बिस्व मन माहीं॥1॥
एहि कुरोग कर औषधु नाहीं। सोधेउँ सकल बिस्व मन माहीं॥1॥
भावार्थ:-इसी दुःख की
जलन से निरंतर मेरी छाती जलती रहती है। मुझे न दिन में भूख लगती है, न रात
को नींद आती है। मैंने मन ही मन समस्त विश्व को खोज डाला, पर इस कुरोग की
औषध कहीं नहीं है॥1॥
* मातु कुमत बढ़ई अघ मूला। तेहिं हमार हित कीन्ह बँसूला॥
कलि कुकाठ कर कीन्ह कुजंत्रू। गाड़ि अवधि पढ़ि कठिन कुमंत्रू॥2॥
कलि कुकाठ कर कीन्ह कुजंत्रू। गाड़ि अवधि पढ़ि कठिन कुमंत्रू॥2॥
भावार्थ:-माता का कुमत
(बुरा विचार) पापों का मूल बढ़ई है। उसने हमारे हित का बसूला बनाया। उससे
कलह रूपी कुकाठ का कुयंत्र बनाया और चौदह वर्ष की अवधि रूपी कठिन कुमंत्र
पढ़कर उस यंत्र को गाड़ दिया। (यहाँ माता का कुविचार बढ़ई है, भरत को राज्य
बसूला है, राम का वनवास कुयंत्र है और चौदह वर्ष की अवधि कुमंत्र है)॥2॥
* मोहि लगि यहु कुठाटु तेहिं ठाटा। घालेसि सब जगु बारहबाटा॥
मिटइ कुजोगु राम फिरि आएँ। बसइ अवध नहिं आन उपाएँ॥3॥
मिटइ कुजोगु राम फिरि आएँ। बसइ अवध नहिं आन उपाएँ॥3॥
भावार्थ:-मेरे लिए उसने
यह सारा कुठाट (बुरा साज) रचा और सारे जगत को बारहबाट (छिन्न-भिन्न) करके
नष्ट कर डाला। यह कुयोग श्री रामचन्द्रजी के लौट आने पर ही मिट सकता है और
तभी अयोध्या बस सकती है, दूसरे किसी उपाय से नहीं॥3॥
* भरत बचन सुनि मुनि सुखु पाई। सबहिं कीन्हि बहु भाँति बड़ाई॥
तात करहु जनि सोचु बिसेषी। सब दुखु मिटिहि राम पग देखी॥4॥
तात करहु जनि सोचु बिसेषी। सब दुखु मिटिहि राम पग देखी॥4॥
भावार्थ:-भरतजी के वचन
सुनकर मुनि ने सुख पाया और सभी ने उनकी बहुत प्रकार से बड़ाई की। (मुनि ने
कहा-) हे तात! अधिक सोच मत करो। श्री रामचन्द्रजी के चरणों का दर्शन करते
ही सारा दुःख मिट जाएगा॥4॥
भरद्वाज द्वारा भरत का सत्कार
दोहा :
* करि प्रबोधु मुनिबर कहेउ अतिथि पेमप्रिय होहु।
कंद मूल फल फूल हम देहिं लेहु करि छोहु॥212॥
कंद मूल फल फूल हम देहिं लेहु करि छोहु॥212॥
भावार्थ:-इस प्रकार
मुनिश्रेष्ठ भरद्वाजजी ने उनका समाधान करके कहा- अब आप लोग हमारे प्रेम
प्रिय अतिथि बनिए और कृपा करके कंद-मूल, फल-फूल जो कुछ हम दें, स्वीकार
कीजिए॥212॥
चौपाई :
* सुनि मुनि बचन भरत हियँ सोचू। भयउ कुअवसर कठिन सँकोचू॥
जानि गुरुइ गुर गिरा बहोरी। चरन बंदि बोले कर जोरी॥1॥
जानि गुरुइ गुर गिरा बहोरी। चरन बंदि बोले कर जोरी॥1॥
भावार्थ:-मुनि के वचन
सुनकर भरत के हृदय में सोच हुआ कि यह बेमौके बड़ा बेढब संकोच आ पड़ा! फिर
गुरुजनों की वाणी को महत्वपूर्ण (आदरणीय) समझकर, चरणों की वंदना करके हाथ
जोड़कर बोले-॥1॥
* सिर धरि आयसु करिअ तुम्हारा। परम धरम यहु नाथ हमारा॥
भरत बचन मुनिबर मन भाए। सुचि सेवक सिष निकट बोलाए॥2॥
भरत बचन मुनिबर मन भाए। सुचि सेवक सिष निकट बोलाए॥2॥
भावार्थ:-हे नाथ! आपकी
आज्ञा को सिर चढ़ाकर उसका पालन करना, यह हमारा परम धर्म है। भरतजी के ये वचन
मुनिश्रेष्ठ के मन को अच्छे लगे। उन्होंने विश्वासपात्र सेवकों और शिष्यों
को पास बुलाया॥2॥
* चाहिअ कीन्हि भरत पहुनाई। कंद मूल फल आनहु जाई।
भलेहिं नाथ कहि तिन्ह सिर नाए। प्रमुदित निज निज काज सिधाए॥3॥
भलेहिं नाथ कहि तिन्ह सिर नाए। प्रमुदित निज निज काज सिधाए॥3॥
भावार्थ:-(और कहा कि)
भरत की पहुनाई करनी चाहिए। जाकर कंद, मूल और फल लाओ। उन्होंने 'हे नाथ!
बहुत अच्छा' कहकर सिर नवाया और तब वे बड़े आनंदित होकर अपने-अपने काम को चल
दिए॥3॥
* मुनिहि सोच पाहुन बड़ नेवता। तसि पूजा चाहिअ जस देवता॥
सुनि रिधि सिधि अनिमादिक आईं। आयसु होइ सो करहिं गोसाईं॥4॥
सुनि रिधि सिधि अनिमादिक आईं। आयसु होइ सो करहिं गोसाईं॥4॥
भावार्थ:-मुनि को चिंता
हुई कि हमने बहुत बड़े मेहमान को न्योता है। अब जैसा देवता हो, वैसी ही उसकी
पूजा भी होनी चाहिए। यह सुनकर ऋद्धियाँ और अणिमादि सिद्धियाँ आ गईं (और
बोलीं-) हे गोसाईं! जो आपकी आज्ञा हो सो हम करें॥4॥
दोहा :
* राम बिरह ब्याकुल भरतु सानुज सहित समाज।
पहुनाई करि हरहु श्रम कहा मुदित मुनिराज॥213॥
पहुनाई करि हरहु श्रम कहा मुदित मुनिराज॥213॥
भावार्थ:-मुनिराज ने
प्रसन्न होकर कहा- छोटे भाई शत्रुघ्न और समाज सहित भरतजी श्री रामचन्द्रजी
के विरह में व्याकुल हैं, इनकी पहुनाई (आतिथ्य सत्कार) करके इनके श्रम को
दूर करो॥213॥
चौपाई :
* रिधि सिधि सिर धरि मुनिबर बानी। बड़भागिनि आपुहि अनुमानी॥
कहहिं परसपर सिधि समुदाई। अतुलित अतिथि राम लघु भाई॥1॥
कहहिं परसपर सिधि समुदाई। अतुलित अतिथि राम लघु भाई॥1॥
भावार्थ:-ऋद्धि-सिद्धि
ने मुनिराज की आज्ञा को सिर चढ़ाकर अपने को बड़भागिनी समझा। सब सिद्धियाँ आपस
में कहने लगीं- श्री रामचन्द्रजी के छोटे भाई भरत ऐसे अतिथि हैं, जिनकी
तुलना में कोई नहीं आ सकता॥1॥
* मुनि पद बंदि करिअ सोइ आजू। होइ सुखी सब राज समाजू॥
अस कहि रचेउ रुचिर गृह नाना। जेहि बिलोकि बिलखाहिं बिमाना॥2॥
अस कहि रचेउ रुचिर गृह नाना। जेहि बिलोकि बिलखाहिं बिमाना॥2॥
भावार्थ:-अतः मुनि के
चरणों की वंदना करके आज वही करना चाहिए, जिससे सारा राज-समाज सुखी हो। ऐसा
कहकर उन्होंने बहुत से सुंदर घर बनाए, जिन्हें देखकर विमान भी विलखते हैं
(लजा जाते हैं)॥2॥
* भोग बिभूति भूरि भरि राखे। देखत जिन्हहि अमर अभिलाषे॥
दासीं दास साजु सब लीन्हें। जोगवत रहहिं मनहि मनु दीन्हें॥3॥
दासीं दास साजु सब लीन्हें। जोगवत रहहिं मनहि मनु दीन्हें॥3॥
भावार्थ:-उन घरों में
बहुत से भोग (इन्द्रियों के विषय) और ऐश्वर्य (ठाट-बाट) का सामान भरकर रख
दिया, जिन्हें देखकर देवता भी ललचा गए। दासी-दास सब प्रकार की सामग्री लिए
हुए मन लगाकर उनके मनों को देखते रहते हैं (अर्थात उनके मन की रुचि के
अनुसार करते रहते हैं)॥3॥
* सब समाजु सजि सिधि पल माहीं। जे सुख सुरपुर सपनेहुँ नाहीं॥
प्रथमहिं बास दिए सब केही। सुंदर सुखद जथा रुचि जेही॥4॥
प्रथमहिं बास दिए सब केही। सुंदर सुखद जथा रुचि जेही॥4॥
भावार्थ:-जो सुख के
सामान स्वर्ग में भी स्वप्न में भी नहीं हैं, ऐसे सब सामान सिद्धियों ने पल
भर में सजा दिए। पहले तो उन्होंने सब किसी को, जिसकी जैसी रुचि थी, वैसे
ही, सुंदर सुखदायक निवास स्थान दिए॥4॥
दोहा :
* बहुरि सपरिजन भरत कहुँ रिषि अस आयसु दीन्ह।
बिधि बिसमय दायकु बिभव मुनिबर तपबल कीन्ह॥214॥
बिधि बिसमय दायकु बिभव मुनिबर तपबल कीन्ह॥214॥
भावार्थ:-और फिर कुटुम्ब
सहित भरतजी को दिए, क्योंकि ऋषि भरद्वाजजी ने ऐसी ही आज्ञा दे रखी थी।
(भरतजी चाहते थे कि उनके सब संगियों को आराम मिले, इसलिए उनके मन की बात
जानकर मुनि ने पहले उन लोगों को स्थान देकर पीछे सपरिवार भरतजी को स्थान
देने के लिए आज्ञा दी थी।) मुनि श्रेष्ठ ने तपोबल से ब्रह्मा को भी चकित कर
देने वाला वैभव रच दिया॥214॥
चौपाई :
* मुनि प्रभाउ जब भरत बिलोका। सब लघु लगे लोकपति लोका॥
सुख समाजु नहिं जाइ बखानी। देखत बिरति बिसारहिं ग्यानी॥1॥
सुख समाजु नहिं जाइ बखानी। देखत बिरति बिसारहिं ग्यानी॥1॥
भावार्थ:-जब भरतजी ने
मुनि के प्रभाव को देखा, तो उसके सामने उन्हें (इन्द्र, वरुण, यम, कुबेर
आदि) सभी लोकपालों के लोक तुच्छ जान पड़े। सुख की सामग्री का वर्णन नहीं हो
सकता, जिसे देखकर ज्ञानी लोग भी वैराग्य भूल जाते हैं॥1॥
* आसन सयन सुबसन बिताना। बन बाटिका बिहग मृग नाना॥
सुरभि फूल फल अमिअ समाना। बिमल जलासय बिबिध बिधाना॥2॥
सुरभि फूल फल अमिअ समाना। बिमल जलासय बिबिध बिधाना॥2॥
भावार्थ:-आसन, सेज,
सुंदर वस्त्र, चँदोवे, वन, बगीचे, भाँति-भाँति के पक्षी और पशु, सुगंधित
फूल और अमृत के समान स्वादिष्ट फल, अनेकों प्रकार के (तालाब, कुएँ, बावली
आदि) निर्मल जलाशय,॥2॥
* असन पान सुचि अमिअ अमी से। देखि लोग सकुचात जमी से॥
सुर सुरभी सुरतरु सबही कें। लखि अभिलाषु सुरेस सची कें॥3॥
सुर सुरभी सुरतरु सबही कें। लखि अभिलाषु सुरेस सची कें॥3॥
भावार्थ:-तथा अमृत के भी
अमृत-सरीखे पवित्र खान-पान के पदार्थ थे, जिन्हें देखकर सब लोग संयमी
पुरुषों (विरक्त मुनियों) की भाँति सकुचा रहे हैं। सभी के डेरों में
(मनोवांछित वस्तु देने वाले) कामधेनु और कल्पवृक्ष हैं, जिन्हें देखकर
इन्द्र और इन्द्राणी को भी अभिलाषा होती है (उनका भी मन ललचा जाता है)॥3॥
* रितु बसंत बह त्रिबिध बयारी। सब कहँ सुलभ पदारथ चारी॥
स्रक चंदन बनितादिक भोगा। देखि हरष बिसमय बस लोगा॥4॥
स्रक चंदन बनितादिक भोगा। देखि हरष बिसमय बस लोगा॥4॥
भावार्थ:-वसन्त ऋतु है।
शीतल, मंद, सुगंध तीन प्रकार की हवा बह रही है। सभी को (धर्म, अर्थ, काम और
मोक्ष) चारों पदार्थ सुलभ हैं। माला, चंदन, स्त्री आदि भोगों को देखकर सब
लोग हर्ष और विषाद के वश हो रहे हैं। (हर्ष तो भोग सामग्रियों को और मुनि
के तप प्रभाव को देखकर होता है और विषाद इस बात से होता है कि श्री राम के
वियोग में नियम-व्रत से रहने वाले हम लोग भोग-विलास में क्यों आ फँसे, कहीं
इनमें आसक्त होकर हमारा मन नियम-व्रतों को न त्याग दे)॥4॥
दोहा :
* संपति चकई भरतु चक मुनि आयस खेलवार।
तेहि निसि आश्रम पिंजराँ राखे भा भिनुसार॥215॥
तेहि निसि आश्रम पिंजराँ राखे भा भिनुसार॥215॥
भावार्थ:-सम्पत्ति
(भोग-विलास की सामग्री) चकवी है और भरतजी चकवा हैं और मुनि की आज्ञा खेल
है, जिसने उस रात को आश्रम रूपी पिंजड़े में दोनों को बंद कर रखा और ऐसे ही
सबेरा हो गया। (जैसे किसी बहेलिए के द्वारा एक पिंजड़े में रखे जाने पर भी
चकवी-चकवे का रात को संयोग नहीं होता, वैसे ही भरद्वाजजी की आज्ञा से रात
भर भोग सामग्रियों के साथ रहने पर भी भरतजी ने मन से भी उनका स्पर्श तक
नहीं किया।)॥215॥
मासपारायण, उन्नीसवाँ विश्राम
मासपारायण, उन्नीसवाँ विश्राम
चौपाई :
* कीन्ह निमज्जनु तीरथराजा। नाई मुनिहि सिरु सहित समाजा।
रिषि आयसु असीस सिर राखी। करि दंडवत बिनय बहु भाषी॥1॥
रिषि आयसु असीस सिर राखी। करि दंडवत बिनय बहु भाषी॥1॥
भावार्थ:-(प्रातःकाल)
भरतजी ने तीर्थराज में स्नान किया और समाज सहित मुनि को सिर नवाकर और ऋषि
की आज्ञा तथा आशीर्वाद को सिर चढ़ाकर दण्डवत् करके बहुत विनती की॥1॥
* पथ गति कुसल साथ सब लीन्हें। चले चित्रकूटहिं चितु दीन्हें॥
रामसखा कर दीन्हें लागू। चलत देह धरि जनु अनुरागू॥2॥
रामसखा कर दीन्हें लागू। चलत देह धरि जनु अनुरागू॥2॥
भावार्थ:-तदनन्तर रास्ते
की पहचान रखने वाले लोगों (कुशल पथप्रदर्शकों) के साथ सब लोगों को लिए हुए
भरतजी त्रिकूट में चित्त लगाए चले। भरतजी रामसखा गुह के हाथ में हाथ दिए
हुए ऐसे जा रहे हैं, मानो साक्षात् प्रेम ही शरीर धारण किए हुए हो॥2॥
* नहिं पद त्रान सीस नहिं छाया। पेमु नेमु ब्रतु धरमु अमाया॥
लखन राम सिय पंथ कहानी। पूँछत सखहि कहत मृदु बानी॥3॥
लखन राम सिय पंथ कहानी। पूँछत सखहि कहत मृदु बानी॥3॥
भावार्थ:-न तो उनके
पैरों में जूते हैं और न सिर पर छाया है, उनका प्रेम नियम, व्रत और धर्म
निष्कपट (सच्चा) है। वे सखा निषादराज से लक्ष्मणजी, श्री रामचंद्रजी और
सीताजी के रास्ते की बातें पूछते हैं और वह कोमल वाणी से कहता है॥3॥
* राम बास थल बिटप बिलोकें। उर अनुराग रहत नहिं रोकें॥
देखि दसा सुर बरिसहिं फूला। भइ मृदु महि मगु मंगल मूला॥4॥
देखि दसा सुर बरिसहिं फूला। भइ मृदु महि मगु मंगल मूला॥4॥
भावार्थ:-श्री
रामचंद्रजी के ठहरने की जगहों और वृक्षों को देखकर उनके हृदय में प्रेम
रोके नहीं रुकता। भरतजी की यह दशा देखकर देवता फूल बरसाने लगे। पृथ्वी कोमल
हो गई और मार्ग मंगल का मूल बन गया॥4॥
दोहा :
* किएँ जाहिं छाया जलद सुखद बहइ बर बात।
तस मगु भयउ न राम कहँ जस भा भरतहि जात॥216॥
तस मगु भयउ न राम कहँ जस भा भरतहि जात॥216॥
भावार्थ:-बादल छाया किए
जा रहे हैं, सुख देने वाली सुंदर हवा बह रही है। भरतजी के जाते समय मार्ग
जैसा सुखदायक हुआ, वैसा श्री रामचंद्रजी को भी नहीं हुआ था॥216॥
चौपाई :
* जड़ चेतन मग जीव घनेरे। जे चितए प्रभु जिन्ह प्रभु हेरे॥
ते सब भए परम पद जोगू। भरत दरस मेटा भव रोगू॥1॥
ते सब भए परम पद जोगू। भरत दरस मेटा भव रोगू॥1॥
भावार्थ:-रास्ते में
असंख्य जड़-चेतन जीव थे। उनमें से जिनको प्रभु श्री रामचंद्रजी ने देखा,
अथवा जिन्होंने प्रभु श्री रामचंद्रजी को देखा, वे सब (उसी समय) परमपद के
अधिकारी हो गए, परन्तु अब भरतजी के दर्शन ने तो उनका भव (जन्म-मरण) रूपी
रोग मिटा ही दिया। (श्री रामदर्शन से तो वे परमपद के अधिकारी ही हुए थे,
परन्तु भरत दर्शन से उन्हें वह परमपद प्राप्त हो गया)॥1॥
* यह बड़ि बात भरत कइ नाहीं। सुमिरत जिनहि रामु मन माहीं॥
बारक राम कहत जग जेऊ। होत तरन तारन नर तेऊ॥2॥
बारक राम कहत जग जेऊ। होत तरन तारन नर तेऊ॥2॥
भावार्थ:-भरतजी के लिए
यह कोई बड़ी बात नहीं है, जिन्हें श्री रामजी स्वयं अपने मन में स्मरण करते
रहते हैं। जगत् में जो भी मनुष्य एक बार 'राम' कह लेते हैं, वे भी
तरने-तारने वाले हो जाते हैं॥2॥
* भरतु राम प्रिय पुनि लघु भ्राता। कस न होइ मगु मंगलदाता॥
सिद्ध साधु मुनिबर अस कहहीं। भरतहि निरखि हरषु हियँ लहहीं॥3॥
सिद्ध साधु मुनिबर अस कहहीं। भरतहि निरखि हरषु हियँ लहहीं॥3॥
भावार्थ:-फिर भरतजी तो
श्री रामचंद्रजी के प्यारे तथा उनके छोटे भाई ठहरे। तब भला उनके लिए मार्ग
मंगल (सुख) दायक कैसे न हो? सिद्ध, साधु और श्रेष्ठ मुनि ऐसा कह रहे हैं और
भरतजी को देखकर हृदय में हर्ष लाभ करते हैं॥3॥
इंद्र-बृहस्पति संवाद
* देखि प्रभाउ सुरेसहि सोचू। जगु भल भलेहि पोच कहुँ पोचू॥
गुर सन कहेउ करिअ प्रभु सोई। रामहि भरतहि भेंट न होई॥4॥
गुर सन कहेउ करिअ प्रभु सोई। रामहि भरतहि भेंट न होई॥4॥
भावार्थ:-भरतजी के (इस
प्रेम के) प्रभाव को देखकर देवराज इन्द्र को सोच हो गया (कि कहीं इनके
प्रेमवश श्री रामजी लौट न जाएँ और हमारा बना-बनाया काम बिगड़ जाए)। संसार
भले के लिए भला और बुरे के लिए बुरा है (मनुष्य जैसा आप होता है जगत् उसे
वैसा ही दिखता है)। उसने गुरु बृहस्पतिजी से कहा- हे प्रभो! वही उपाय कीजिए
जिससे श्री रामचंद्रजी और भरतजी की भेंट ही न हो॥4॥
दोहा :
* रामु सँकोची प्रेम बस भरत सप्रेम पयोधि।
बनी बात बेगरन चहति करिअ जतनु छलु सोधि॥217॥
बनी बात बेगरन चहति करिअ जतनु छलु सोधि॥217॥
भावार्थ:-श्री
रामचंद्रजी संकोची और प्रेम के वश हैं और भरतजी प्रेम के समुद्र हैं।
बनी-बनाई बात बिगड़ना चाहती है, इसलिए कुछ छल ढूँढकर इसका उपाय कीजिए॥217॥
चौपाई :
* बचन सुनत सुरगुरु मुसुकाने। सहसनयन बिनु लोचन जाने॥
मायापति सेवक सन माया। करइ त उलटि परइ सुरराया॥1॥
मायापति सेवक सन माया। करइ त उलटि परइ सुरराया॥1॥
भावार्थ:-इंद्र के वचन
सुनते ही देवगुरु बृहस्पतिजी मुस्कुराए। उन्होंने हजार नेत्रों वाले इंद्र
को (ज्ञान रूपी) नेत्रोंरहित (मूर्ख) समझा और कहा- हे देवराज! माया के
स्वामी श्री रामचंद्रजी के सेवक के साथ कोई माया करता है तो वह उलटकर अपने
ही ऊपर आ पड़ती है॥1॥
* तब किछु कीन्ह राम रुख जानी। अब कुचालि करि होइहि हानी।
सुनु सुरेस रघुनाथ सुभाऊ। निज अपराध रिसाहिं न काऊ॥2॥
सुनु सुरेस रघुनाथ सुभाऊ। निज अपराध रिसाहिं न काऊ॥2॥
भावार्थ:-उस समय (पिछली
बार) तो श्री रामचंद्रजी का रुख जानकर कुछ किया था, परन्तु इस समय कुचाल
करने से हानि ही होगी। हे देवराज! श्री रघुनाथजी का स्वभाव सुनो, वे अपने
प्रति किए हुए अपराध से कभी रुष्ट नहीं होते॥2॥
* जो अपराधु भगत कर करई। राम रोष पावक सो जरई॥
लोकहुँ बेद बिदित इतिहासा। यह महिमा जानहिं दुरबासा॥3॥
लोकहुँ बेद बिदित इतिहासा। यह महिमा जानहिं दुरबासा॥3॥
भावार्थ:-पर जो कोई उनके
भक्त का अपराध करता है, वह श्री राम की क्रोधाग्नि में जल जाता है। लोक और
वेद दोनों में इतिहास (कथा) प्रसिद्ध है। इस महिमा को दुर्वासाजी जानते
हैं॥3॥
* भरत सरिस को राम सनेही। जगु जप राम रामु जप जेही॥4॥
भावार्थ:-सारा जगत् श्री राम को जपता है, वे श्री रामजी जिनको जपते हैं, उन भरतजी के समान श्री रामचंद्रजी का प्रेमी कौन होगा?॥4॥
दोहा :
* मनहुँ न आनिअ अमरपति रघुबर भगत अकाजु।
अजसु लोक परलोक दुख दिन दिन सोक समाजु॥218॥
अजसु लोक परलोक दुख दिन दिन सोक समाजु॥218॥
भावार्थ:-हे देवराज!
रघुकुलश्रेष्ठ श्री रामचंद्रजी के भक्त का काम बिगाड़ने की बात मन में भी न
लाइए। ऐसा करने से लोक में अपयश और परलोक में दुःख होगा और शोक का सामान
दिनोंदिन बढ़ता ही चला जाएगा॥218॥
चौपाई :
* सुनु सुरेस उपदेसु हमारा। रामहि सेवकु परम पिआरा॥
मानत सुखु सेवक सेवकाईं। सेवक बैर बैरु अधिकाईं॥1॥
मानत सुखु सेवक सेवकाईं। सेवक बैर बैरु अधिकाईं॥1॥
भावार्थ:-हे देवराज!
हमारा उपदेश सुनो। श्री रामजी को अपना सेवक परम प्रिय है। वे अपने सेवक की
सेवा से सुख मानते हैं और सेवक के साथ वैर करने से बड़ा भारी वैर मानते
हैं॥1॥
* जद्यपि सम नहिं राग न रोषू। गहहिं न पाप पूनु गुन दोषू॥
करम प्रधान बिस्व करि राखा। जो जस करइ सो तस फलु चाखा॥2॥
करम प्रधान बिस्व करि राखा। जो जस करइ सो तस फलु चाखा॥2॥
भावार्थ:-यद्यपि वे सम
हैं- उनमें न राग है, न रोष है और न वे किसी का पाप-पुण्य और गुण-दोष ही
ग्रहण करते हैं। उन्होंने विश्व में कर्म को ही प्रधान कर रखा है। जो जैसा
करता है, वह वैसा ही फल भोगता है॥2॥
* तदपि करहिं सम बिषम बिहारा। भगत अभगत हृदय अनुसारा॥
अगनु अलेप अमान एकरस। रामु सगुन भए भगत प्रेम बस॥3॥
अगनु अलेप अमान एकरस। रामु सगुन भए भगत प्रेम बस॥3॥
भावार्थ:-तथापि वे भक्त
और अभक्त के हृदय के अनुसार सम और विषम व्यवहार करते हैं (भक्त को प्रेम से
गले लगा लेते हैं और अभक्त को मारकर तार देते हैं)। गुणरहित, निर्लेप,
मानरहित और सदा एकरस भगवान् श्री राम भक्त के प्रेमवश ही सगुण हुए हैं॥3॥
* राम सदा सेवक रुचि राखी। बेद पुरान साधु सुर साखी॥
अस जियँ जानि तजहु कुटिलाई। करहु भरत पद प्रीति सुहाई॥4॥
अस जियँ जानि तजहु कुटिलाई। करहु भरत पद प्रीति सुहाई॥4॥
भावार्थ:-श्री रामजी सदा
अपने सेवकों (भक्तों) की रुचि रखते आए हैं। वेद, पुराण, साधु और देवता
इसके साक्षी हैं। ऐसा हृदय में जानकर कुटिलता छोड़ दो और भरतजी के चरणों में
सुंदर प्रीति करो॥4॥
दोहा :
* राम भगत परहित निरत पर दुख दुखी दयाल।
भगत सिरोमनि भरत तें जनि डरपहु सुरपाल॥219॥
भगत सिरोमनि भरत तें जनि डरपहु सुरपाल॥219॥
भावार्थ:-हे देवराज
इंद्र! श्री रामचंद्रजी के भक्त सदा दूसरों के हित में लगे रहते हैं, वे
दूसरों के दुःख से दुःखी और दयालु होते हैं। फिर भरतजी तो भक्तों के
शिरोमणि हैं, उनसे बिलकुल न डरो॥219॥
चौपाई :
* सत्यसंध प्रभु सुर हितकारी। भरत राम आयस अनुसारी॥
स्वारथ बिबस बिकल तुम्ह होहू। भरत दोसु नहिं राउर मोहू॥1॥
स्वारथ बिबस बिकल तुम्ह होहू। भरत दोसु नहिं राउर मोहू॥1॥
भावार्थ:-प्रभु श्री
रामचंद्रजी सत्यप्रतिज्ञ और देवताओं का हित करने वाले हैं और भरतजी श्री
रामजी की आज्ञा के अनुसार चलने वाले हैं। तुम व्यर्थ ही स्वार्थ के विशेष
वश होकर व्याकुल हो रहे हो। इसमें भरतजी का कोई दोष नहीं, तुम्हारा ही मोह
है॥1॥
* सुनि सुरबर सुरगुर बर बानी। भा प्रमोदु मन मिटी गलानी॥
बरषि प्रसून हरषि सुरराऊ। लगे सराहन भरत सुभाऊ॥2॥
बरषि प्रसून हरषि सुरराऊ। लगे सराहन भरत सुभाऊ॥2॥
भावार्थ:-देवगुरु
बृहस्पतिजी की श्रेष्ठ वाणी सुनकर इंद्र के मन में बड़ा आनंद हुआ और उनकी
चिंता मिट गई। तब हर्षित होकर देवराज फूल बरसाकर भरतजी के स्वभाव की सराहना
करने लगे॥2॥
भरतजी चित्रकूट के मार्ग में
* एहि बिधि भरत चले मग जाहीं। दसा देखि मुनि सिद्ध सिहाहीं॥
जबहि रामु कहि लेहिं उसासा। उमगत प्रेमु मनहुँ चहु पासा॥3॥
जबहि रामु कहि लेहिं उसासा। उमगत प्रेमु मनहुँ चहु पासा॥3॥
भावार्थ:-इस प्रकार
भरतजी मार्ग में चले जा रहे हैं। उनकी (प्रेममयी) दशा देखकर मुनि और सिद्ध
लोग भी सिहाते हैं। भरतजी जब भी 'राम' कहकर लंबी साँस लेते हैं, तभी मानो
चारों ओर प्रेम उमड़ पड़ता है॥3॥
* द्रवहिं बचन सुनि कुलिस पषाना। पुरजन पेमु न जाइ बखाना॥
बीच बास करि जमुनहिं आए। निरखि नीरु लोचन जल छाए॥4॥
बीच बास करि जमुनहिं आए। निरखि नीरु लोचन जल छाए॥4॥
भावार्थ:-उनके (प्रेम और
दीनता से पूर्ण) वचनों को सुनकर वज्र और पत्थर भी पिघल जाते हैं।
अयोध्यावासियों का प्रेम कहते नहीं बनता। बीच में निवास (मुकाम) करके भरतजी
यमुनाजी के तट पर आए। यमुनाजी का जल देखकर उनके नेत्रों में जल भर आया॥4॥
दोहा :
* रघुबर बरन बिलोकि बर बारि समेत समाज।
होत मगन बारिधि बिरह चढ़े बिबेक जहाज॥220॥
होत मगन बारिधि बिरह चढ़े बिबेक जहाज॥220॥
भावार्थ:-श्री रघुनाथजी
के (श्याम) रंग का सुंदर जल देखकर सारे समाज सहित भरतजी (प्रेम विह्वल
होकर) श्री रामजी के विरह रूपी समुद्र में डूबते-डूबते विवेक रूपी जहाज पर
चढ़ गए (अर्थात् यमुनाजी का श्यामवर्ण जल देखकर सब लोग श्यामवर्ण भगवान के
प्रेम में विह्वल हो गए और उन्हें न पाकर विरह व्यथा से पीड़ित हो गए, तब
भरतजी को यह ध्यान आया कि जल्दी चलकर उनके साक्षात् दर्शन करेंगे, इस
विवेक से वे फिर उत्साहित हो गए)॥220॥
चौपाई :
* जमुन तीर तेहि दिन करि बासू। भयउ समय सम सबहि सुपासू॥
रातिहिं घाट घाट की तरनी। आईं अगनित जाहिं न बरनी॥1॥
रातिहिं घाट घाट की तरनी। आईं अगनित जाहिं न बरनी॥1॥
भावार्थ:-उस दिन यमुनाजी
के किनारे निवास किया। समयानुसार सबके लिए (खान-पान आदि की) सुंदर
व्यवस्था हुई (निषादराज का संकेत पाकर) रात ही रात में घाट-घाट की अगणित
नावें वहाँ आ गईं, जिनका वर्णन नहीं किया जा सकता॥1॥
* प्रात पार भए एकहि खेवाँ। तोषे रामसखा की सेवाँ॥
चले नहाइ नदिहि सिर नाई। साथ निषादनाथ दोउ भाई॥2॥
चले नहाइ नदिहि सिर नाई। साथ निषादनाथ दोउ भाई॥2॥
भावार्थ:-सबेरे एक ही
खेवे में सब लोग पार हो गए और श्री रामचंद्रजी के सखा निषादराज की इस सेवा
से संतुष्ट हुए। फिर स्नान करके और नदी को सिर नवाकर निषादराज के साथ दोनों
भाई चले॥2॥
* आगें मुनिबर बाहन आछें। राजसमाज जाइ सबु पाछें॥
तेहि पाछें दोउ बंधु पयादें। भूषन बसन बेष सुठि सादें॥3॥
तेहि पाछें दोउ बंधु पयादें। भूषन बसन बेष सुठि सादें॥3॥
भावार्थ:-आगे
अच्छी-अच्छी सवारियों पर श्रेष्ठ मुनि हैं, उनके पीछे सारा राजसमाज जा रहा
है। उसके पीछे दोनों भाई बहुत सादे भूषण-वस्त्र और वेष से पैदल चल रहे
हैं॥3॥
* सेवक सुहृद सचिवसुत साथा। सुमिरत लखनु सीय रघुनाथा॥
जहँ जहँ राम बास बिश्रामा। तहँ तहँ करहिं सप्रेम प्रनामा॥4॥
जहँ जहँ राम बास बिश्रामा। तहँ तहँ करहिं सप्रेम प्रनामा॥4॥
भावार्थ:-सेवक, मित्र और
मंत्री के पुत्र उनके साथ हैं। लक्ष्मण, सीताजी और श्री रघुनाथजी का स्मरण
करते जा रहे हैं। जहाँ-जहाँ श्री रामजी ने निवास और विश्राम किया था,
वहाँ-वहाँ वे प्रेमसहित प्रणाम करते हैं॥4॥
दोहा :
* मगबासी नर नारि सुनि धाम काम तजि धाइ।
देखि सरूप सनेह सब मुदित जनम फलु पाइ॥221॥
देखि सरूप सनेह सब मुदित जनम फलु पाइ॥221॥
भावार्थ:-मार्ग में रहने
वाले स्त्री-पुरुष यह सुनकर घर और काम-काज छोड़कर दौड़ पड़ते हैं और उनके रूप
(सौंदर्य) और प्रेम को देखकर वे सब जन्म लेने का फल पाकर आनंदित होते
हैं॥221॥
चौपाई :
* कहहिं सप्रेम एक एक पाहीं। रामु लखनु सखि होहिं कि नाहीं॥
बय बपु बरन रूपु सोइ आली। सीलु सनेहु सरिस सम चाली॥1॥
बय बपु बरन रूपु सोइ आली। सीलु सनेहु सरिस सम चाली॥1॥
भावार्थ:-गाँवों की
स्त्रियाँ एक-दूसरे से प्रेमपूर्वक कहती हैं- सखी! ये राम-लक्ष्मण हैं कि
नहीं? हे सखी! इनकी अवस्था, शरीर और रंग-रूप तो वही है। शील, स्नेह उन्हीं
के सदृश है और चाल भी उन्हीं के समान है॥1॥
* बेषु न सो सखि सीय न संगा। आगें अनी चली चतुरंगा॥
नहिं प्रसन्न मुख मानस खेदा। सखि संदेहु होइ एहिं भेदा॥2॥
नहिं प्रसन्न मुख मानस खेदा। सखि संदेहु होइ एहिं भेदा॥2॥
भावार्थ:-परन्तु सखी!
इनका न तो वह वेष (वल्कल वस्त्रधारी मुनिवेष) है, न सीताजी ही संग हैं और
इनके आगे चतुरंगिणी सेना चली जा रही है। फिर इनके मुख प्रसन्न नहीं हैं,
इनके मन में खेद है। हे सखी! इसी भेद के कारण संदेह होता है॥2॥
* तासु तरक तियगन मन मानी। कहहिं सकल तेहि सम न सयानी॥
तेहि सराहि बानी फुरि पूजी। बोली मधुर बचन तिय दूजी॥3॥
तेहि सराहि बानी फुरि पूजी। बोली मधुर बचन तिय दूजी॥3॥
भावार्थ:-उसका तर्क
(युक्ति) अन्य स्त्रियों के मन भाया। सब कहती हैं कि इसके समान सयानी
(चतुर) कोई नहीं है। उसकी सराहना करके और 'तेरी वाणी सत्य है' इस प्रकार
उसका सम्मान करके दूसरी स्त्री मीठे वचन बोली॥3॥
* कहि सप्रेम बस कथाप्रसंगू। जेहि बिधि राम राज रस भंगू॥
भरतहि बहुरि सराहन लागी। सील सनेह सुभाय सुभागी॥4॥
भरतहि बहुरि सराहन लागी। सील सनेह सुभाय सुभागी॥4॥
भावार्थ:-श्री रामजी के
राजतिलक का आनंद जिस प्रकार से भंग हुआ था, वह सब कथाप्रसंग प्रेमपूर्वक
कहकर फिर वह भाग्यवती स्त्री श्री भरतजी के शील, स्नेह और स्वभाव की सराहना
करने लगी॥4॥
दोहा :
* चलत पयादें खात फल पिता दीन्ह तजि राजु।
जात मनावन रघुबरहि भरत सरिस को आजु॥222॥
जात मनावन रघुबरहि भरत सरिस को आजु॥222॥
भावार्थ:-(वह बोली-)
देखो, ये भरतजी पिता के दिए हुए राज्य को त्यागकर पैदल चलते और फलाहार करते
हुए श्री रामजी को मनाने के लिए जा रहे हैं। इनके समान आज कौन है?॥222॥।
चौपाई :
* भायप भगति भरत आचरनू। कहत सुनत दुख दूषन हरनू॥
जो किछु कहब थोर सखि सोई। राम बंधु अस काहे न होई॥1॥
जो किछु कहब थोर सखि सोई। राम बंधु अस काहे न होई॥1॥
भावार्थ:-भरतजी का
भाईपना, भक्ति और इनके आचरण कहने और सुनने से दुःख और दोषों के हरने वाले
हैं। हे सखी! उनके संबंध में जो कुछ भी कहा जाए, वह थोड़ा है। श्री
रामचंद्रजी के भाई ऐसे क्यों न हों॥1॥
* हम सब सानुज भरतहि देखें। भइन्ह धन्य जुबती जन लेखें॥
सुनि गुन देखि दसा पछिताहीं। कैकइ जननि जोगु सुतु नाहीं॥2॥
सुनि गुन देखि दसा पछिताहीं। कैकइ जननि जोगु सुतु नाहीं॥2॥
भावार्थ:-छोटे भाई
शत्रुघ्न सहित भरतजी को देखकर हम सब भी आज धन्य (बड़भागिनी) स्त्रियों की
गिनती में आ गईं। इस प्रकार भरतजी के गुण सुनकर और उनकी दशा देखकर
स्त्रियाँ पछताती हैं और कहती हैं- यह पुत्र कैकयी जैसी माता के योग्य नहीं
है॥2॥
* कोउ कह दूषनु रानिहि नाहिन। बिधि सबु कीन्ह हमहि जो दाहिन॥
कहँ हम लोक बेद बिधि हीनी। लघु तिय कुल करतूति मलीनी॥3॥
कहँ हम लोक बेद बिधि हीनी। लघु तिय कुल करतूति मलीनी॥3॥
भावार्थ:-कोई कहती है-
इसमें रानी का भी दोष नहीं है। यह सब विधाता ने ही किया है, जो हमारे
अनुकूल है। कहाँ तो हम लोक और वेद दोनों की विधि (मर्यादा) से हीन, कुल और
करतूत दोनों से मलिन तुच्छ स्त्रियाँ,॥3॥
* बसहिं कुदेस कुगाँव कुबामा। कहँ यह दरसु पुन्य परिनामा॥
अस अनंदु अचिरिजु प्रति ग्रामा। जनु मरुभूमि कलपतरु जामा॥4॥
अस अनंदु अचिरिजु प्रति ग्रामा। जनु मरुभूमि कलपतरु जामा॥4॥
भावार्थ:-जो बुरे देश
(जंगली प्रान्त) और बुरे गाँव में बसती हैं और (स्त्रियों में भी) नीच
स्त्रियाँ हैं! और कहाँ यह महान् पुण्यों का परिणामस्वरूप इनका दर्शन! ऐसा
ही आनंद और आश्चर्य गाँव-गाँव में हो रहा है। मानो मरुभूमि में कल्पवृक्ष
उग गया हो॥4॥
दोहा :
* भरत दरसु देखत खुलेउ मग लोगन्ह कर भागु।
जनु सिंघलबासिन्ह भयउ बिधि बस सुलभ प्रयागु॥223॥
जनु सिंघलबासिन्ह भयउ बिधि बस सुलभ प्रयागु॥223॥
भावार्थ:-भरतजी का
स्वरूप देखते ही रास्ते में रहने वाले लोगों के भाग्य खुल गए! मानो दैवयोग
से सिंहलद्वीप के बसने वालों को तीर्थराज प्रयाग सुलभ हो गया हो!॥223॥
चौपाई :
* निज गुन सहित राम गुन गाथा। सुनत जाहिं सुमिरत रघुनाथा॥
तीरथ मुनि आश्रम सुरधामा। निरखि निमज्जहिं करहिं प्रनामा॥1॥
तीरथ मुनि आश्रम सुरधामा। निरखि निमज्जहिं करहिं प्रनामा॥1॥
भावार्थ:-(इस प्रकार)
अपने गुणों सहित श्री रामचंद्रजी के गुणों की कथा सुनते और श्री रघुनाथजी
को स्मरण करते हुए भरतजी चले जा रहे हैं। वे तीर्थ देखकर स्नान और मुनियों
के आश्रम तथा देवताओं के मंदिर देखकर प्रणाम करते हैं॥1॥
* मनहीं मन मागहिं बरु एहू। सीय राम पद पदुम सनेहू॥
मिलहिं किरात कोल बनबासी। बैखानस बटु जती उदासी॥2॥
मिलहिं किरात कोल बनबासी। बैखानस बटु जती उदासी॥2॥
भावार्थ:-और मन ही मन यह
वरदान माँगते हैं कि श्री सीता-रामजी के चरण कमलों में प्रेम हो। मार्ग
में भील, कोल आदि वनवासी तथा वानप्रस्थ, ब्रह्मचारी, संन्यासी और विरक्त
मिलते हैं॥2॥
* करि प्रनामु पूँछहिं जेहि तेही। केहि बन लखनु रामु बैदेही॥
ते प्रभु समाचार सब कहहीं। भरतहि देखि जनम फलु लहहीं॥3॥
ते प्रभु समाचार सब कहहीं। भरतहि देखि जनम फलु लहहीं॥3॥
भावार्थ:-उनमें से
जिस-तिस से प्रणाम करके पूछते हैं कि लक्ष्मणजी, श्री रामजी और जानकीजी किस
वन में हैं? वे प्रभु के सब समाचार कहते हैं और भरतजी को देखकर जन्म का फल
पाते हैं॥3॥
* जे जन कहहिं कुसल हम देखे। ते प्रिय राम लखन सम लेखे॥
एहि बिधि बूझत सबहि सुबानी। सुनत राम बनबास कहानी॥4॥
एहि बिधि बूझत सबहि सुबानी। सुनत राम बनबास कहानी॥4॥
भावार्थ:-जो लोग कहते
हैं कि हमने उनको कुशलपूर्वक देखा है, उनको ये श्री राम-लक्ष्मण के समान ही
प्यारे मानते हैं। इस प्रकार सबसे सुंदर वाणी से पूछते और श्री रामजी के
वनवास की कहानी सुनते जाते हैं॥4॥
दोहा :
* तेहि बासर बसि प्रातहीं चले सुमिरि रघुनाथ।
राम दरस की लालसा भरत सरिस सब साथ॥224॥
राम दरस की लालसा भरत सरिस सब साथ॥224॥
भावार्थ:-उस दिन वहीं
ठहरकर दूसरे दिन प्रातःकाल ही श्री रघुनाथजी का स्मरण करके चले। साथ के सब
लोगों को भी भरतजी के समान ही श्री रामजी के दर्शन की लालसा (लगी हुई)
है॥224॥
चौपाई :
* मंगल सगुन होहिं सब काहू। फरकहिं सुखद बिलोचन बाहू॥
भरतहि सहित समाज उछाहू। मिलिहहिं रामु मिटिहि दुख दाहू॥1॥
भरतहि सहित समाज उछाहू। मिलिहहिं रामु मिटिहि दुख दाहू॥1॥
भावार्थ:-सबको मंगलसूचक
शकुन हो रहे हैं। सुख देने वाले (पुरुषों के दाहिने और स्त्रियों के बाएँ)
नेत्र और भुजाएँ फड़क रही हैं। समाज सहित भरतजी को उत्साह हो रहा है कि श्री
रामचंद्रजी मिलेंगे और दुःख का दाह मिट जाएगा॥1॥
* करत मनोरथ जस जियँ जाके। जाहिं सनेह सुराँ सब छाके।
सिथिल अंग पग मग डगि डोलहिं। बिहबल बचन प्रेम बस बोलहिं॥2॥
सिथिल अंग पग मग डगि डोलहिं। बिहबल बचन प्रेम बस बोलहिं॥2॥
भावार्थ:-जिसके जी में
जैसा है, वह वैसा ही मनोरथ करता है। सब स्नेही रूपी मदिरा से छके (प्रेम
में मतवाले हुए) चले जा रहे हैं। अंग शिथिल हैं, रास्ते में पैर डगमगा रहे
हैं और प्रेमवश विह्वल वचन बोल रहे हैं॥2॥
* रामसखाँ तेहि समय देखावा। सैल सिरोमनि सहज सुहावा॥
जासु समीप सरित पय तीरा। सीय समेत बसहिं दोउ बीरा॥3॥
जासु समीप सरित पय तीरा। सीय समेत बसहिं दोउ बीरा॥3॥
भावार्थ:-रामसखा
निषादराज ने उसी समय स्वाभाविक ही सुहावना पर्वतशिरोमणि कामदगिरि दिखलाया,
जिसके निकट ही पयस्विनी नदी के तट पर सीताजी समेत दोनों भाई निवास करते
हैं॥3॥
* देखि करहिं सब दंड प्रनामा। कहि जय जानकि जीवन रामा॥
प्रेम मगन अस राज समाजू। जनु फिरि अवध चले रघुराजू॥4॥
प्रेम मगन अस राज समाजू। जनु फिरि अवध चले रघुराजू॥4॥
भावार्थ:-सब लोग उस
पर्वत को देखकर 'जानकी जीवन श्री रामचंद्रजी की जय हो।' ऐसा कहकर दण्डवत
प्रणाम करते हैं। राजसमाज प्रेम में ऐसा मग्न है मानो श्री रघुनाथजी
अयोध्या को लौट चले हों॥4॥
दोहा :
* भरत प्रेमु तेहि समय जस तस कहि सकइ न सेषु।
कबिहि अगम जिमि ब्रह्मसुखु अह मम मलिन जनेषु॥225॥
कबिहि अगम जिमि ब्रह्मसुखु अह मम मलिन जनेषु॥225॥
भावार्थ:-भरतजी का उस
समय जैसा प्रेम था, वैसा शेषजी भी नहीं कह सकते। कवि के लिए तो वह वैसा ही
अगम है, जैसा अहंता और ममता से मलिन मनुष्यों के लिए ब्रह्मानंद!॥225॥
चौपाई :
* सकल सनेह सिथिल रघुबर कें। गए कोस दुइ दिनकर ढरकें॥
जलु थलु देखि बसे निसि बीतें। कीन्ह गवन रघुनाथ पिरीतें॥1॥
जलु थलु देखि बसे निसि बीतें। कीन्ह गवन रघुनाथ पिरीतें॥1॥
भावार्थ:-सब लोग श्री
रामचंद्रजी के प्रेम के मारे शिथिल होने के कारण सूर्यास्त होने तक (दिनभर
में) दो ही कोस चल पाए और जल-स्थल का सुपास देखकर रात को वहीं (बिना
खाए-पीए ही) रह गए। रात बीतने पर श्री रघुनाथजी के प्रेमी भरतजी ने आगे गमन
किया॥1॥
श्री सीताजी का स्वप्न, श्री रामजी को कोल-किरातों द्वारा भरतजी के आगमन की सूचना, रामजी का शोक, लक्ष्मणजी का क्रोध
* उहाँ रामु रजनी अवसेषा। जागे सीयँ सपन अस देखा॥
सहित समाज भरत जनु आए। नाथ बियोग ताप तन ताए॥2॥
सहित समाज भरत जनु आए। नाथ बियोग ताप तन ताए॥2॥
भावार्थ:-उधर श्री
रामचंद्रजी रात शेष रहते ही जागे। रात को सीताजी ने ऐसा स्वप्न देखा (जिसे
वे श्री रामचंद्रजी को सुनाने लगीं) मानो समाज सहित भरतजी यहाँ आए हैं।
प्रभु के वियोग की अग्नि से उनका शरीर संतप्त है॥2॥
* सकल मलिन मन दीन दुखारी। देखीं सासु आन अनुहारी॥
सुनि सिय सपन भरे जल लोचन। भए सोचबस सोच बिमोचन॥3॥
सुनि सिय सपन भरे जल लोचन। भए सोचबस सोच बिमोचन॥3॥
भावार्थ:-सभी लोग मन में
उदास, दीन और दुःखी हैं। सासुओं को दूसरी ही सूरत में देखा। सीताजी का
स्वप्न सुनकर श्री रामचंद्रजी के नेत्रों में जल भर गया और सबको सोच से
छुड़ा देने वाले प्रभु स्वयं (लीला से) सोच के वश हो गए॥3॥
* लखन सपन यह नीक न होई। कठिन कुचाह सुनाइहि कोई॥
अस कहि बंधु समेत नहाने पूजि पुरारि साधु सनमाने॥4॥
अस कहि बंधु समेत नहाने पूजि पुरारि साधु सनमाने॥4॥
भावार्थ:-(और बोले-)
लक्ष्मण! यह स्वप्न अच्छा नहीं है। कोई भीषण कुसमाचार (बहुत ही बुरी खबर)
सुनावेगा। ऐसा कहकर उन्होंने भाई सहित स्नान किया और त्रिपुरारी महादेवजी
का पूजन करके साधुओं का सम्मान किया॥4॥
छंद :
* सनमानि सुर मुनि बंदि बैठे उतर दिसि देखत भए।
नभ धूरि खग मृग भूरि भागे बिकल प्रभु आश्रम गए॥
तुलसी उठे अवलोकि कारनु काह चित सचकित रहे।
सब समाचार किरात कोलन्हि आइ तेहि अवसर कहे॥
नभ धूरि खग मृग भूरि भागे बिकल प्रभु आश्रम गए॥
तुलसी उठे अवलोकि कारनु काह चित सचकित रहे।
सब समाचार किरात कोलन्हि आइ तेहि अवसर कहे॥
भावार्थ:-देवताओं का
सम्मान (पूजन) और मुनियों की वंदना करके श्री रामचंद्रजी बैठ गए और उत्तर
दिशा की ओर देखने लगे। आकाश में धूल छा रही है, बहुत से पक्षी और पशु
व्याकुल होकर भागे हुए प्रभु के आश्रम को आ रहे हैं। तुलसीदासजी कहते हैं
कि प्रभु श्री रामचंद्रजी यह देखकर उठे और सोचने लगे कि क्या कारण है? वे
चित्त में आश्चर्ययुक्त हो गए। उसी समय कोल-भीलों ने आकर सब समाचार कहे।
सोरठा :
* सुनत सुमंगल बैन मन प्रमोद तन पुलक भर।
सरद सरोरुह नैन तुलसी भरे सनेह जल॥226॥
सरद सरोरुह नैन तुलसी भरे सनेह जल॥226॥
भावार्थ:-तुलसीदासजी
कहते हैं कि सुंदर मंगल वचन सुनते ही श्री रामचंद्रजी के मन में बड़ा आनंद
हुआ। शरीर में पुलकावली छा गई और शरद् ऋतु के कमल के समान नेत्र
प्रेमाश्रुओं से भर गए॥226॥
चौपाई :
* बहुरि सोचबस भे सियरवनू। कारन कवन भरत आगवनू॥
एक आइ अस कहा बहोरी। सेन संग चतुरंग न थोरी॥1॥
एक आइ अस कहा बहोरी। सेन संग चतुरंग न थोरी॥1॥
भावार्थ:-सीतापति श्री
रामचंद्रजी पुनः सोच के वश हो गए कि भरत के आने का क्या कारण है? फिर एक ने
आकर ऐसा कहा कि उनके साथ में बड़ी भारी चतुरंगिणी सेना भी है॥1॥
* सो सुनि रामहि भा अति सोचू। इत पितु बच इत बंधु सकोचू॥
भरत सुभाउ समुझि मन माहीं। प्रभु चित हित थिति पावत नाहीं॥2॥
भरत सुभाउ समुझि मन माहीं। प्रभु चित हित थिति पावत नाहीं॥2॥
भावार्थ:-यह सुनकर श्री
रामचंद्रजी को अत्यंत सोच हुआ। इधर तो पिता के वचन और उधर भाई भरतजी का
संकोच! भरतजी के स्वभाव को मन में समझकर तो प्रभु श्री रामचंद्रजी चित्त को
ठहराने के लिए कोई स्थान ही नहीं पाते हैं॥2॥
* समाधान तब भा यह जाने। भरतु कहे महुँ साधु सयाने॥
लखन लखेउ प्रभु हृदयँ खभारू। कहत समय सम नीति बिचारू॥3॥
लखन लखेउ प्रभु हृदयँ खभारू। कहत समय सम नीति बिचारू॥3॥
भावार्थ:-तब यह जानकर
समाधान हो गया कि भरत साधु और सयाने हैं तथा मेरे कहने में (आज्ञाकारी)
हैं। लक्ष्मणजी ने देखा कि प्रभु श्री रामजी के हृदय में चिंता है तो वे
समय के अनुसार अपना नीतियुक्त विचार कहने लगे-॥3॥
* बिनु पूछें कछु कहउँ गोसाईं। सेवकु समयँ न ढीठ ढिठाईं॥
तुम्ह सर्बग्य सिरोमनि स्वामी। आपनि समुझि कहउँ अनुगामी॥4॥
तुम्ह सर्बग्य सिरोमनि स्वामी। आपनि समुझि कहउँ अनुगामी॥4॥
भावार्थ:-हे स्वामी!
आपके बिना ही पूछे मैं कुछ कहता हूँ, सेवक समय पर ढिठाई करने से ढीठ नहीं
समझा जाता (अर्थात् आप पूछें तब मैं कहूँ, ऐसा अवसर नहीं है, इसलिए यह
मेरा कहना ढिठाई नहीं होगा)। हे स्वामी! आप सर्वज्ञों में शिरोमणि हैं (सब
जानते ही हैं)। मैं सेवक तो अपनी समझ की बात कहता हूँ॥4॥
दोहा :
* नाथ सुहृद सुठि सरल चित सील सनेह निधान।
सब पर प्रीति प्रतीति जियँ जानिअ आपु समान॥227॥
सब पर प्रीति प्रतीति जियँ जानिअ आपु समान॥227॥
भावार्थ:-हे नाथ! आप परम
सुहृद् (बिना ही कारण परम हित करने वाले), सरल हृदय तथा शील और स्नेह के
भंडार हैं, आपका सभी पर प्रेम और विश्वास है, और अपने हृदय में सबको अपने
ही समान जानते हैं॥227॥
चौपाई :
* बिषई जीव पाइ प्रभुताई। मूढ़ मोह बस होहिं जनाई॥
भरतु नीति रत साधु सुजाना। प्रभु पद प्रेमु सकल जगु जाना॥1॥
भरतु नीति रत साधु सुजाना। प्रभु पद प्रेमु सकल जगु जाना॥1॥
भावार्थ:-परंतु मूढ़
विषयी जीव प्रभुता पाकर मोहवश अपने असली स्वरूप को प्रकट कर देते हैं। भरत
नीतिपरायण, साधु और चतुर हैं तथा प्रभु (आप) के चरणों में उनका प्रेम है,
इस बात को सारा जगत् जानता है॥1॥
* तेऊ आजु राम पदु पाई। चले धरम मरजाद मेटाई॥
कुटिल कुबंधु कुअवसरु ताकी। जानि राम बनबास एकाकी॥2॥
कुटिल कुबंधु कुअवसरु ताकी। जानि राम बनबास एकाकी॥2॥
भावार्थ:-वे भरतजी आज
श्री रामजी (आप) का पद (सिंहासन या अधिकार) पाकर धर्म की मर्यादा को मिटाकर
चले हैं। कुटिल खोटे भाई भरत कुसमय देखकर और यह जानकर कि रामजी (आप) वनवास
में अकेले (असहाय) हैं,॥2॥
* करि कुमंत्रु मन साजि समाजू। आए करै अकंटक राजू॥
कोटि प्रकार कलपि कुटिलाई। आए दल बटोरि दोउ भाई॥3॥
कोटि प्रकार कलपि कुटिलाई। आए दल बटोरि दोउ भाई॥3॥
भावार्थ:-अपने मन में
बुरा विचार करके, समाज जोड़कर राज्यों को निष्कण्टक करने के लिए यहाँ आए
हैं। करोड़ों (अनेकों) प्रकार की कुटिलताएँ रचकर सेना बटोरकर दोनों भाई आए
हैं॥3॥
* जौं जियँ होति न कपट कुचाली। केहि सोहाति रथ बाजि गजाली॥
भरतहि दोसु देइ को जाएँ। जग बौराइ राज पदु पाएँ॥4॥
भरतहि दोसु देइ को जाएँ। जग बौराइ राज पदु पाएँ॥4॥
भावार्थ:-यदि इनके हृदय
में कपट और कुचाल न होती, तो रथ, घोड़े और हाथियों की कतार (ऐसे समय) किसे
सुहाती? परन्तु भरत को ही व्यर्थ कौन दोष दे? राजपद पा जाने पर सारा जगत्
ही पागल (मतवाला) हो जाता है॥4॥
दोहा :
* ससि गुर तिय गामी नघुषु चढ़ेउ भूमिसुर जान।
लोक बेद तें बिमुख भा अधम न बेन समान॥228॥
लोक बेद तें बिमुख भा अधम न बेन समान॥228॥
भावार्थ:-चंद्रमा
गुरुपत्नी गामी हुआ, राजा नहुष ब्राह्मणों की पालकी पर चढ़ा और राजा वेन के
समान नीच तो कोई नहीं होगा, जो लोक और वेद दोनों से विमुख हो गया॥228॥
चौपाई :
* सहसबाहु सुरनाथु त्रिसंकू। केहि न राजमद दीन्ह कलंकू॥
भरत कीन्ह यह उचित उपाऊ। रिपु रिन रंच न राखब काउ॥1॥
भरत कीन्ह यह उचित उपाऊ। रिपु रिन रंच न राखब काउ॥1॥
भावार्थ:-सहस्रबाहु,
देवराज इंद्र और त्रिशंकु आदि किसको राजमद ने कलंक नहीं दिया? भरत ने यह
उपाय उचित ही किया है, क्योंकि शत्रु और ऋण को कभी जरा भी शेष नहीं रखना
चाहिए॥1॥
* एक कीन्हि नहिं भरत भलाई। निदरे रामु जानि असहाई॥
समुझि परिहि सोउ आजु बिसेषी। समर सरोष राम मुखु पेखी॥2॥
समुझि परिहि सोउ आजु बिसेषी। समर सरोष राम मुखु पेखी॥2॥
भावार्थ:-हाँ, भरत ने एक
बात अच्छी नहीं की, जो रामजी (आप) को असहाय जानकर उनका निरादर किया! पर आज
संग्राम में श्री रामजी (आप) का क्रोधपूर्ण मुख देखकर यह बात भी उनकी समझ
में विशेष रूप से आ जाएगी (अर्थात् इस निरादर का फल भी वे अच्छी तरह पा
जाएँगे)॥2॥
* एतना कहत नीति रस भूला। रन रस बिटपु पुलक मिस फूला॥
प्रभु पद बंदि सीस रज राखी। बोले सत्य सहज बलु भाषी॥3॥
प्रभु पद बंदि सीस रज राखी। बोले सत्य सहज बलु भाषी॥3॥
भावार्थ:-इतना कहते ही
लक्ष्मणजी नीतिरस भूल गए और युद्धरस रूपी वृक्ष पुलकावली के बहाने से फूल
उठा (अर्थात् नीति की बात कहते-कहते उनके शरीर में वीर रस छा गया)। वे
प्रभु श्री रामचंद्रजी के चरणों की वंदना करके, चरण रज को सिर पर रखकर
सच्चा और स्वाभाविक बल कहते हुए बोले॥3॥
* अनुचित नाथ न मानब मोरा। भरत हमहि उपचार न थोरा॥
कहँ लगि सहिअ रहिअ मनु मारें। नाथ साथ धनु हाथ हमारें॥4॥
कहँ लगि सहिअ रहिअ मनु मारें। नाथ साथ धनु हाथ हमारें॥4॥
भावार्थ:-हे नाथ! मेरा
कहना अनुचित न मानिएगा। भरत ने हमें कम नहीं प्रचारा है (हमारे साथ कम
छेड़छाड़ नहीं की है)। आखिर कहाँ तक सहा जाए और मन मारे रहा जाए, जब स्वामी
हमारे साथ हैं और धनुष हमारे हाथ में है!॥4॥
दोहा :
* छत्रि जाति रघुकुल जनमु राम अनुग जगु जान।
लातहुँ मारें चढ़ति सिर नीच को धूरि समान॥229॥
लातहुँ मारें चढ़ति सिर नीच को धूरि समान॥229॥
भावार्थ:-क्षत्रिय जाति,
रघुकुल में जन्म और फिर मैं श्री रामजी (आप) का अनुगामी (सेवक) हूँ, यह
जगत् जानता है। (फिर भला कैसे सहा जाए?) धूल के समान नीच कौन है, परन्तु
वह भी लात मारने पर सिर ही चढ़ती है॥229॥
चौपाई :
* उठि कर जोरि रजायसु मागा। मनहुँ बीर रस सोवत जागा॥
बाँधि जटा सिर कसि कटि भाथा। साजि सरासनु सायकु हाथा॥1॥
बाँधि जटा सिर कसि कटि भाथा। साजि सरासनु सायकु हाथा॥1॥
भावार्थ:-यों कहकर
लक्ष्मणजी ने उठकर, हाथ जोड़कर आज्ञा माँगी। मानो वीर रस सोते से जाग उठा
हो। सिर पर जटा बाँधकर कमर में तरकस कस लिया और धनुष को सजाकर तथा बाण को
हाथ में लेकर कहा-॥1॥
* आजु राम सेवक जसु लेऊँ। भरतहि समर सिखावन देऊँ॥
राम निरादर कर फलु पाई। सोवहुँ समर सेज दोउ भाई॥2॥
राम निरादर कर फलु पाई। सोवहुँ समर सेज दोउ भाई॥2॥
भावार्थ:-आज मैं श्री
राम (आप) का सेवक होने का यश लूँ और भरत को संग्राम में शिक्षा दूँ। श्री
रामचंद्रजी (आप) के निरादर का फल पाकर दोनों भाई (भरत-शत्रुघ्न) रण शय्या
पर सोवें॥2॥
* आइ बना भल सकल समाजू। प्रगट करउँ रिस पाछिल आजू॥
जिमि करि निकर दलइ मृगराजू। लेइ लपेटि लवा जिमि बाजू॥3॥
जिमि करि निकर दलइ मृगराजू। लेइ लपेटि लवा जिमि बाजू॥3॥
भावार्थ:-अच्छा हुआ जो
सारा समाज आकर एकत्र हो गया। आज मैं पिछला सब क्रोध प्रकट करूँगा। जैसे
सिंह हाथियों के झुंड को कुचल डालता है और बाज जैसे लवे को लपेट में ले
लेता है॥3॥
* तैसेहिं भरतहि सेन समेता। सानुज निदरि निपातउँ खेता॥
जौं सहाय कर संकरु आई। तौ मारउँ रन राम दोहाई॥4॥
जौं सहाय कर संकरु आई। तौ मारउँ रन राम दोहाई॥4॥
भावार्थ:-वैसे ही भरत को
सेना समेत और छोटे भाई सहित तिरस्कार करके मैदान में पछाड़ूँगा। यदि
शंकरजी भी आकर उनकी सहायता करें, तो भी, मुझे रामजी की सौगंध है, मैं
उन्हें युद्ध में (अवश्य) मार डालूँगा (छोड़ूँगा नहीं)॥4॥
दोहा :
* अति सरोष माखे लखनु लखि सुनि सपथ प्रवान।
सभय लोक सब लोकपति चाहत भभरि भगान॥230॥
सभय लोक सब लोकपति चाहत भभरि भगान॥230॥
भावार्थ:-लक्ष्मणजी को
अत्यंत क्रोध से तमतमाया हुआ देखकर और उनकी प्रामाणिक (सत्य) सौगंध सुनकर
सब लोग भयभीत हो जाते हैं और लोकपाल घबड़ाकर भागना चाहते हैं॥230।
चौपाई :
* जगु भय मगन गगन भइ बानी। लखन बाहुबलु बिपुल बखानी॥
तात प्रताप प्रभाउ तुम्हारा। को कहि सकइ को जाननिहारा॥1॥
तात प्रताप प्रभाउ तुम्हारा। को कहि सकइ को जाननिहारा॥1॥
भावार्थ:-सारा जगत् भय
में डूब गया। तब लक्ष्मणजी के अपार बाहुबल की प्रशंसा करती हुई आकाशवाणी
हुई- हे तात! तुम्हारे प्रताप और प्रभाव को कौन कह सकता है और कौन जान सकता
है?॥1॥
* अनुचित उचित काजु किछु होऊ। समुझि करिअ भल कह सबु कोऊ।
सहसा करि पाछे पछिताहीं। कहहिं बेद बुध ते बुध नाहीं॥2॥
सहसा करि पाछे पछिताहीं। कहहिं बेद बुध ते बुध नाहीं॥2॥
भावार्थ:-परन्तु कोई भी
काम हो, उसे अनुचित-उचित खूब समझ-बूझकर किया जाए तो सब कोई अच्छा कहते हैं।
वेद और विद्वान कहते हैं कि जो बिना विचारे जल्दी में किसी काम को करके
पीछे पछताते हैं, वे बुद्धिमान् नहीं हैं॥2॥
श्री रामजी का लक्ष्मणजी को समझाना एवं भरतजी की महिमा कहना
* सुनि सुर बचन लखन सकुचाने। राम सीयँ सादर सनमाने॥
कही तात तुम्ह नीति सुहाई। सब तें कठिन राजमदु भाई॥3॥
कही तात तुम्ह नीति सुहाई। सब तें कठिन राजमदु भाई॥3॥
भावार्थ:-देववाणी सुनकर
लक्ष्मणजी सकुचा गए। श्री रामचंद्रजी और सीताजी ने उनका आदर के साथ सम्मान
किया (और कहा-) हे तात! तुमने बड़ी सुंदर नीति कही। हे भाई! राज्य का मद
सबसे कठिन मद है॥3॥
* जो अचवँत नृप मातहिं तेई। नाहिन साधुसभा जेहिं सेई॥
सुनहू लखन भल भरत सरीसा। बिधि प्रपंच महँ सुना न दीसा॥4॥
सुनहू लखन भल भरत सरीसा। बिधि प्रपंच महँ सुना न दीसा॥4॥
भावार्थ:-जिन्होंने
साधुओं की सभा का सेवन (सत्संग) नहीं किया, वे ही राजा राजमद रूपी मदिरा का
आचमन करते ही (पीते ही) मतवाले हो जाते हैं। हे लक्ष्मण! सुनो, भरत सरीखा
उत्तम पुरुष ब्रह्मा की सृष्टि में न तो कहीं सुना गया है, न देखा ही गया
है॥4॥
दोहा :
* भरतहि होइ न राजमदु बिधि हरि हर पद पाइ।
कबहुँ कि काँजी सीकरनि छीरसिंधु बिनसाइ॥231॥
कबहुँ कि काँजी सीकरनि छीरसिंधु बिनसाइ॥231॥
भावार्थ:-(अयोध्या के
राज्य की तो बात ही क्या है) ब्रह्मा, विष्णु और महादेव का पद पाकर भी भरत
को राज्य का मद नहीं होने का! क्या कभी काँजी की बूँदों से क्षीरसमुद्र
नष्ट हो सकता (फट सकता) है?॥231॥
चौपाई :
* तिमिरु तरुन तरनिहि मकु गिलई। गगनु मगन मकु मेघहिं मिलई॥
गोपद जल बूड़हिं घटजोनी। सहज छमा बरु छाड़ै छोनी॥1॥
गोपद जल बूड़हिं घटजोनी। सहज छमा बरु छाड़ै छोनी॥1॥
भावार्थ:-अन्धकार चाहे
तरुण (मध्याह्न के) सूर्य को निगल जाए। आकाश चाहे बादलों में समाकर मिल
जाए। गो के खुर इतने जल में अगस्त्यजी डूब जाएँ और पृथ्वी चाहे अपनी
स्वाभाविक क्षमा (सहनशीलता) को छोड़ दे॥1॥
* मसक फूँक मकु मेरु उड़ाई। होइ न नृपमदु भरतहि भाई॥
लखन तुम्हार सपथ पितु आना। सुचि सुबंधु नहिं भरत समाना॥2॥
लखन तुम्हार सपथ पितु आना। सुचि सुबंधु नहिं भरत समाना॥2॥
भावार्थ:-मच्छर की फूँक
से चाहे सुमेरु उड़ जाए, परन्तु हे भाई! भरत को राजमद कभी नहीं हो सकता। हे
लक्ष्मण! मैं तुम्हारी शपथ और पिताजी की सौगंध खाकर कहता हूँ, भरत के समान
पवित्र और उत्तम भाई संसार में नहीं है॥2॥
* सगुनु खीरु अवगुन जलु ताता। मिलइ रचइ परपंचु बिधाता॥
भरतु हंस रबिबंस तड़ागा। जनमि कीन्ह गुन दोष बिभागा॥3॥
भरतु हंस रबिबंस तड़ागा। जनमि कीन्ह गुन दोष बिभागा॥3॥
भावार्थ:-हे तात! गुरु
रूपी दूध और अवगुण रूपी जल को मिलाकर विधाता इस दृश्य प्रपंच (जगत्) को
रचता है, परन्तु भरत ने सूर्यवंश रूपी तालाब में हंस रूप जन्म लेकर गुण और
दोष का विभाग कर दिया (दोनों को अलग-अलग कर दिया)॥3॥
* गहि गुन पय तजि अवगुण बारी। निज जस जगत कीन्हि उजिआरी॥
कहत भरत गुन सीलु सुभाऊ। पेम पयोधि मगन रघुराऊ॥4॥
कहत भरत गुन सीलु सुभाऊ। पेम पयोधि मगन रघुराऊ॥4॥
भावार्थ:-गुणरूपी दूध को
ग्रहण कर और अवगुण रूपी जल को त्यागकर भरत ने अपने यश से जगत् में
उजियाला कर दिया है। भरतजी के गुण, शील और स्वभाव को कहते-कहते श्री
रघुनाथजी प्रेमसमुद्र में मग्न हो गए॥4॥
दोहा :
* सुनि रघुबर बानी बिबुध देखि भरत पर हेतु।
सकल सराहत राम सो प्रभु को कृपानिकेतु॥232॥
सकल सराहत राम सो प्रभु को कृपानिकेतु॥232॥
भावार्थ:-श्री
रामचंद्रजी की वाणी सुनकर और भरतजी पर उनका प्रेम देखकर समस्त देवता उनकी
सराहना करने लगे (और कहने लगे) कि श्री रामचंद्रजी के समान कृपा के धाम
प्रभु और कौन है?॥232॥
चौपाई :
* जौं न होत जग जनम भरत को। सकल धरम धुर धरनि धरत को॥
कबि कुल अगम भरत गुन गाथा। को जानइ तुम्ह बिनु रघुनाथा॥1॥
कबि कुल अगम भरत गुन गाथा। को जानइ तुम्ह बिनु रघुनाथा॥1॥
भावार्थ:-यदि जगत् में
भरत का जन्म न होता, तो पृथ्वी पर संपूर्ण धर्मों की धुरी को कौन धारण
करता? हे रघुनाथजी! कविकुल के लिए अगम (उनकी कल्पना से अतीत) भरतजी के
गुणों की कथा आपके सिवा और कौन जान सकता है?॥1॥
भरतजी का मन्दाकिनी स्नान, चित्रकूट में पहुँचना, भरतादि सबका परस्पर मिलाप, पिता का शोक और श्राद्ध
* लखन राम सियँ सुनि सुर बानी। अति सुखु लहेउ न जाइ बखानी॥
इहाँ भरतु सब सहित सहाए। मंदाकिनीं पुनीत नहाए॥2॥
इहाँ भरतु सब सहित सहाए। मंदाकिनीं पुनीत नहाए॥2॥
भावार्थ:-लक्ष्मणजी,
श्री रामचंद्रजी और सीताजी ने देवताओं की वाणी सुनकर अत्यंत सुख पाया, जो
वर्णन नहीं किया जा सकता। यहाँ भरतजी ने सारे समाज के साथ पवित्र मंदाकिनी
में स्नान किया॥2॥
* सरित समीप राखि सब लोगा। मागि मातु गुर सचिव नियोगा॥
चले भरतु जहँ सिय रघुराई। साथ निषादनाथु लघु भाई॥3॥
चले भरतु जहँ सिय रघुराई। साथ निषादनाथु लघु भाई॥3॥
भावार्थ:-फिर सबको नदी
के समीप ठहराकर तथा माता, गुरु और मंत्री की आज्ञा माँगकर निषादराज और
शत्रुघ्न को साथ लेकर भरतजी वहाँ चले जहाँ श्री सीताजी और श्री रघुनाथजी
थे॥3॥।
* समुझि मातु करतब सकुचाहीं। करत कुतरक कोटि मन माहीं॥
रामु लखनु सिय सुनि मम नाऊँ। उठि जनि अनत जाहिं तजि ठाऊँ॥4॥
रामु लखनु सिय सुनि मम नाऊँ। उठि जनि अनत जाहिं तजि ठाऊँ॥4॥
भावार्थ:-भरतजी अपनी
माता कैकेयी की करनी को समझकर (याद करके) सकुचाते हैं और मन में करोड़ों
(अनेकों) कुतर्क करते हैं (सोचते हैं) श्री राम, लक्ष्मण और सीताजी मेरा
नाम सुनकर स्थान छोड़कर कहीं दूसरी जगह उठकर न चले जाएँ॥4॥
दोहा :
* मातु मते महुँ मानि मोहि जो कछु करहिं सो थोर।
अघ अवगुन छमि आदरहिं समुझि आपनी ओर॥233॥
अघ अवगुन छमि आदरहिं समुझि आपनी ओर॥233॥
भावार्थ:-मुझे माता के
मत में मानकर वे जो कुछ भी करें सो थोड़ा है, पर वे अपनी ओर समझकर (अपने
विरद और संबंध को देखकर) मेरे पापों और अवगुणों को क्षमा करके मेरा आदर ही
करेंगे॥233॥
चौपाई :
* जौं परिहरहिं मलिन मनु जानी। जौं सनमानहिं सेवकु मानी॥
मोरें सरन रामहि की पनही। राम सुस्वामि दोसु सब जनही॥1॥
मोरें सरन रामहि की पनही। राम सुस्वामि दोसु सब जनही॥1॥
भावार्थ:-चाहे मलिन मन
जानकर मुझे त्याग दें, चाहे अपना सेवक मानकर मेरा सम्मान करें, (कुछ भी
करें), मेरे तो श्री रामचंद्रजी की जूतियाँ ही शरण हैं। श्री रामचंद्रजी तो
अच्छे स्वामी हैं, दोष तो सब दास का ही है॥1॥
* जग जग भाजन चातक मीना। नेम पेम निज निपुन नबीना॥
अस मन गुनत चले मग जाता। सकुच सनेहँ सिथिल सब गाता॥2॥
अस मन गुनत चले मग जाता। सकुच सनेहँ सिथिल सब गाता॥2॥
भावार्थ:-जगत् में यश
के पात्र तो चातक और मछली ही हैं, जो अपने नेम और प्रेम को सदा नया बनाए
रखने में निपुण हैं। ऐसा मन में सोचते हुए भरतजी मार्ग में चले जाते हैं।
उनके सब अंग संकोच और प्रेम से शिथिल हो रहे हैं॥2॥
* फेरति मनहुँ मातु कृत खोरी। चलत भगति बल धीरज धोरी॥
जब समुझत रघुनाथ सुभाऊ। तब पथ परत उताइल पाऊ॥3॥
जब समुझत रघुनाथ सुभाऊ। तब पथ परत उताइल पाऊ॥3॥
भावार्थ:-माता की हुई
बुराई मानो उन्हें लौटाती है, पर धीरज की धुरी को धारण करने वाले भरतजी
भक्ति के बल से चले जाते हैं। जब श्री रघुनाथजी के स्वभाव को समझते (स्मरण
करते) हैं तब मार्ग में उनके पैर जल्दी-जल्दी पड़ने लगते हैं॥3॥
* भरत दसा तेहि अवसर कैसी। जल प्रबाहँ जल अलि गति जैसी॥
देखि भरत कर सोचु सनेहू। भा निषाद तेहि समयँ बिदेहू॥4॥
देखि भरत कर सोचु सनेहू। भा निषाद तेहि समयँ बिदेहू॥4॥
भावार्थ:-उस समय भरत की
दशा कैसी है? जैसी जल के प्रवाह में जल के भौंरे की गति होती है। भरतजी का
सोच और प्रेम देखकर उस समय निषाद विदेह हो गया (देह की सुध-बुध भूल गया)॥4॥
दोहा :
* लगे होन मंगल सगुन सुनि गुनि कहत निषादु।
मिटिहि सोचु होइहि हरषु पुनि परिनाम बिषादु॥234॥
मिटिहि सोचु होइहि हरषु पुनि परिनाम बिषादु॥234॥
भावार्थ:-मंगल शकुन होने लगे। उन्हें सुनकर और विचारकर निषाद कहने लगा- सोच मिटेगा, हर्ष होगा, पर फिर अन्त में दुःख होगा॥234॥
चौपाई :
* सेवक बचन सत्य सब जाने। आश्रम निकट जाइ निअराने॥
भरत दीख बन सैल समाजू। मुदित छुधित जनु पाइ सुनाजू॥1॥
भरत दीख बन सैल समाजू। मुदित छुधित जनु पाइ सुनाजू॥1॥
भावार्थ:-भरतजी ने सेवक
(गुह) के सब वचन सत्य जाने और वे आश्रम के समीप जा पहुँचे। वहाँ के वन और
पर्वतों के समूह को देखा तो भरतजी इतने आनंदित हुए मानो कोई भूखा अच्छा
अन्न (भोजन) पा गया हो॥1॥
* ईति भीति जनु प्रजा दुखारी। त्रिबिध ताप पीड़ित ग्रह मारी॥
जाइ सुराज सुदेस सुखारी। होहिं भरत गति तेहि अनुहारी॥2॥
जाइ सुराज सुदेस सुखारी। होहिं भरत गति तेहि अनुहारी॥2॥
भावार्थ:-जैसे *ईति के
भय से दुःखी हुई और तीनों (आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक) तापों तथा
क्रूर ग्रहों और महामारियों से पीड़ित प्रजा किसी उत्तम देश और उत्तम राज्य
में जाकर सुखी हो जाए, भरतजी की गति (दशा) ठीक उसी प्रकार हो रही है॥2॥
(*अधिक जल बरसना, न बरसना, चूहों का उत्पात, टिड्डियाँ, तोते और दूसरे
राजा की चढ़ाई- खेतों में बाधा देने वाले इन छह उपद्रवों को 'ईति' कहते
हैं)।
* राम बास बन संपति भ्राजा। सुखी प्रजा जनु पाइ सुराजा॥
सचिव बिरागु बिबेकु नरेसू। बिपिन सुहावन पावन देसू॥3॥
सचिव बिरागु बिबेकु नरेसू। बिपिन सुहावन पावन देसू॥3॥
भावार्थ:-श्री
रामचंद्रजी के निवास से वन की सम्पत्ति ऐसी सुशोभित है मानो अच्छे राजा को
पाकर प्रजा सुखी हो। सुहावना वन ही पवित्र देश है। विवेक उसका राजा है और
वैराग्य मंत्री है॥3॥
* भट जम नियम सैल रजधानी। सांति सुमति सुचि सुंदर रानी॥
सकल अंग संपन्न सुराऊ। राम चरन आश्रित चित चाऊ॥4॥
सकल अंग संपन्न सुराऊ। राम चरन आश्रित चित चाऊ॥4॥
भावार्थ:-यम (अहिंसा,
सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह) तथा नियम (शौच, संतोष, तप,
स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान) योद्धा हैं। पर्वत राजधानी है, शांति तथा
सुबुद्धि दो सुंदर पवित्र रानियाँ हैं। वह श्रेष्ठ राजा राज्य के सब अंगों
से पूर्ण है और श्री रामचंद्रजी के चरणों के आश्रित रहने से उसके चित्त में
चाव (आनंद या उत्साह) है॥4॥
(स्वामी, आमत्य, सुहृद, कोष, राष्ट्र, दुर्ग और सेना- राज्य के सात अंग
हैं।)
दोहा :
* जीति मोह महिपालु दल सहित बिबेक भुआलु।
करत अकंटक राजु पुरँ सुख संपदा सुकालु॥235॥
करत अकंटक राजु पुरँ सुख संपदा सुकालु॥235॥
भावार्थ:-मोह रूपी राजा को सेना सहित जीतकर विवेक रूपी राजा निष्कण्टक राज्य कर रहा है। उसके नगर में सुख, सम्पत्ति और सुकाल वर्तमान है॥235॥
चौपाई :
* बन प्रदेस मुनि बास घनेरे। जनु पुर नगर गाउँ गन खेरे॥
बिपुल बिचित्र बिहग मृग नाना। प्रजा समाजु न जाइ बखाना॥1॥
बिपुल बिचित्र बिहग मृग नाना। प्रजा समाजु न जाइ बखाना॥1॥
भावार्थ:-वन रूपी
प्रांतों में जो मुनियों के बहुत से निवास स्थान हैं, वही मानो शहरों,
नगरों, गाँवों और खेड़ों का समूह है। बहुत से विचित्र पक्षी और अनेकों पशु
ही मानो प्रजाओं का समाज है, जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता॥1॥
* खगहा करि हरि बाघ बराहा। देखि महिष बृष साजु सराहा॥
बयरु बिहाइ चरहिं एक संगा। जहँ तहँ मनहुँ सेन चतुरंगा॥2॥
बयरु बिहाइ चरहिं एक संगा। जहँ तहँ मनहुँ सेन चतुरंगा॥2॥
भावार्थ:-गैंडा, हाथी,
सिंह, बाघ, सूअर, भैंसे और बैलों को देखकर राजा के साज को सराहते ही बनता
है। ये सब आपस का वैर छोड़कर जहाँ-तहाँ एक साथ विचरते हैं। यही मानो
चतुरंगिणी सेना है॥2॥
* झरना झरहिं मत्त गज गाजहिं। मनहुँ निसान बिबिधि बिधि बाजहिं॥
चक चकोर चातक सुक पिक गन। कूजत मंजु मराल मुदित मन॥3॥
चक चकोर चातक सुक पिक गन। कूजत मंजु मराल मुदित मन॥3॥
भावार्थ:-पानी के झरने
झर रहे हैं और मतवाले हाथी चिंघाड़ रहे हैं। मानो वहाँ अनेकों प्रकार के
नगाड़े बज रहे हैं। चकवा, चकोर, पपीहा, तोता तथा कोयलों के समूह और सुंदर
हंस प्रसन्न मन से कूज रहे हैं॥3॥
* अलिगन गावत नाचत मोरा। जनु सुराज मंगल चहु ओरा॥
बेलि बिटप तृन सफल सफूला। सब समाजु मुद मंगल मूला॥4॥
बेलि बिटप तृन सफल सफूला। सब समाजु मुद मंगल मूला॥4॥
भावार्थ:-भौंरों के समूह
गुंजार कर रहे हैं और मोर नाच रहे हैं। मानो उस अच्छे राज्य में चारों ओर
मंगल हो रहा है। बेल, वृक्ष, तृण सब फल और फूलों से युक्त हैं। सारा समाज
आनंद और मंगल का मूल बन रहा है॥4॥
दोहा :
* राम सैल सोभा निरखि भरत हृदयँ अति पेमु।
तापस तप फलु पाइ जिमि सुखी सिरानें नेमु॥236॥
तापस तप फलु पाइ जिमि सुखी सिरानें नेमु॥236॥
भावार्थ:-श्री रामजी के
पर्वत की शोभा देखकर भरतजी के हृदय में अत्यंत प्रेम हुआ। जैसे तपस्वी नियम
की समाप्ति होने पर तपस्या का फल पाकर सुखी होता है॥236॥
मासपारायण, बीसवाँ विश्राम
नवाह्नपारायण, पाँचवाँ विश्राम
मासपारायण, बीसवाँ विश्राम
नवाह्नपारायण, पाँचवाँ विश्राम
चौपाई :
* तब केवट ऊँचे चढ़ि धाई। कहेउ भरत सन भुजा उठाई॥
नाथ देखिअहिं बिटप बिसाला। पाकरि जंबु रसाल तमाला॥1॥
नाथ देखिअहिं बिटप बिसाला। पाकरि जंबु रसाल तमाला॥1॥
भावार्थ:-तब केवट दौड़कर
ऊँचे चढ़ गया और भुजा उठाकर भरजी से कहने लगा- हे नाथ! ये जो पाकर, जामुन,
आम और तमाल के विशाल वृक्ष दिखाई देते हैं,॥1॥
* जिन्ह तरुबरन्ह मध्य बटु सोहा। मंजु बिसाल देखि मनु मोहा॥
नील सघन पल्लव फल लाला। अबिरल छाहँ सुखद सब काला॥2॥
नील सघन पल्लव फल लाला। अबिरल छाहँ सुखद सब काला॥2॥
भावार्थ:-जिन श्रेष्ठ
वृक्षों के बीच में एक सुंदर विशाल बड़ का वृक्ष सुशोभित है, जिसको देखकर मन
मोहित हो जाता है, उसके पत्ते नीले और सघन हैं और उसमें लाल फल लगे हैं।
उसकी घनी छाया सब ऋतुओं में सुख देने वाली है॥2॥
* मानहुँ तिमिर अरुनमय रासी। बिरची बिधि सँकेलि सुषमा सी॥
ए तरु सरित समीप गोसाँई। रघुबर परनकुटी जहँ छाई॥3॥
ए तरु सरित समीप गोसाँई। रघुबर परनकुटी जहँ छाई॥3॥
भावार्थ:-मानो ब्रह्माजी
ने परम शोभा को एकत्र करके अंधकार और लालिमामयी राशि सी रच दी है। हे
गुसाईं! ये वृक्ष नदी के समीप हैं, जहाँ श्री राम की पर्णकुटी छाई है॥3॥
* तुलसी तरुबर बिबिध सुहाए। कहुँ कहुँ सियँ कहुँ लखन लगाए॥
बट छायाँ बेदिका बनाई। सियँ निज पानि सरोज सुहाई॥4॥
बट छायाँ बेदिका बनाई। सियँ निज पानि सरोज सुहाई॥4॥
भावार्थ:-वहाँ तुलसीजी
के बहुत से सुंदर वृक्ष सुशोभित हैं, जो कहीं-कहीं सीताजी ने और कहीं
लक्ष्मणजी ने लगाए हैं। इसी बड़ की छाया में सीताजी ने अपने करकमलों से
सुंदर वेदी बनाई है॥4॥
दोहा :
* जहाँ बैठि मुनिगन सहित नित सिय रामु सुजान।
सुनहिं कथा इतिहास सब आगम निगम पुरान॥237॥
सुनहिं कथा इतिहास सब आगम निगम पुरान॥237॥
भावार्थ:-जहाँ सुजान श्री सीता-रामजी मुनियों के वृन्द समेत बैठकर नित्य शास्त्र, वेद और पुराणों के सब कथा-इतिहास सुनते हैं॥237॥
चौपाई :
* सखा बचन सुनि बिटप निहारी। उमगे भरत बिलोचन बारी॥
करत प्रनाम चले दोउ भाई। कहत प्रीति सारद सकुचाई॥1॥
करत प्रनाम चले दोउ भाई। कहत प्रीति सारद सकुचाई॥1॥
भावार्थ:-सखा के वचन
सुनकर और वृक्षों को देखकर भरतजी के नेत्रों में जल उमड़ आया। दोनों भाई
प्रणाम करते हुए चले। उनके प्रेम का वर्णन करने में सरस्वतीजी भी सकुचाती
हैं॥1॥
* हरषहिं निरखि राम पद अंका। मानहुँ पारसु पायउ रंका॥
रज सिर धरि हियँ नयनन्हि लावहिं। रघुबर मिलन सरिस सुख पावहिं॥2॥
रज सिर धरि हियँ नयनन्हि लावहिं। रघुबर मिलन सरिस सुख पावहिं॥2॥
भावार्थ:-श्री
रामचन्द्रजी के चरणचिह्न देखकर दोनों भाई ऐसे हर्षित होते हैं, मानो दरिद्र
पारस पा गया हो। वहाँ की रज को मस्तक पर रखकर हृदय में और नेत्रों में
लगाते हैं और श्री रघुनाथजी के मिलने के समान सुख पाते हैं॥2॥
* देखि भरत गति अकथ अतीवा। प्रेम मगन मृग खग जड़ जीवा॥
सखहि सनेह बिबस मग भूला। कहि सुपंथ सुर बरषहिं फूला॥3॥
सखहि सनेह बिबस मग भूला। कहि सुपंथ सुर बरषहिं फूला॥3॥
भावार्थ:-भरतजी की
अत्यन्त अनिर्वचनीय दशा देखकर वन के पशु, पक्षी और जड़ (वृक्षादि) जीव प्रेम
में मग्न हो गए। प्रेम के विशेष वश होने से सखा निषादराज को भी रास्ता भूल
गया। तब देवता सुंदर रास्ता बतलाकर फूल बरसाने लगे॥3॥
* निरखि सिद्ध साधक अनुरागे। सहज सनेहु सराहन लागे॥
होत न भूतल भाउ भरत को। अचर सचर चर अचर करत को॥4॥
होत न भूतल भाउ भरत को। अचर सचर चर अचर करत को॥4॥
भावार्थ:-भरत के प्रेम
की इस स्थिति को देखकर सिद्ध और साधक लोग भी अनुराग से भर गए और उनके
स्वाभाविक प्रेम की प्रशंसा करने लगे कि यदि इस पृथ्वी तल पर भरत का जन्म
(अथवा प्रेम) न होता, तो जड़ को चेतन और चेतन को जड़ कौन करता?॥4॥
दोहा :
* पेम अमिअ मंदरु बिरहु भरतु पयोधि गँभीर।
मथि प्रगटेउ सुर साधु हित कृपासिंधु रघुबीर॥238॥
मथि प्रगटेउ सुर साधु हित कृपासिंधु रघुबीर॥238॥
भावार्थ:-प्रेम अमृत है,
विरह मंदराचल पर्वत है, भरतजी गहरे समुद्र हैं। कृपा के समुद्र श्री
रामचन्द्रजी ने देवता और साधुओं के हित के लिए स्वयं (इस भरत रूपी गहरे
समुद्र को अपने विरह रूपी मंदराचल से) मथकर यह प्रेम रूपी अमृत प्रकट किया
है॥238॥
चौपाई :
* सखा समेत मनोहर जोटा। लखेउ न लखन सघन बन ओटा॥
भरत दीख प्रभु आश्रमु पावन। सकल सुमंगल सदनु सुहावन॥1॥
भरत दीख प्रभु आश्रमु पावन। सकल सुमंगल सदनु सुहावन॥1॥
भावार्थ:-सखा निषादराज
सहित इस मनोहर जोड़ी को सघन वन की आड़ के कारण लक्ष्मणजी नहीं देख पाए। भरतजी
ने प्रभु श्री रामचन्द्रजी के समस्त सुमंगलों के धाम और सुंदर पवित्र
आश्रम को देखा॥1॥
* करत प्रबेस मिटे दुख दावा। जनु जोगीं परमारथु पावा॥
देखे भरत लखन प्रभु आगे। पूँछे बचन कहत अनुरागे॥2॥
देखे भरत लखन प्रभु आगे। पूँछे बचन कहत अनुरागे॥2॥
भावार्थ:-आश्रम में
प्रवेश करते ही भरतजी का दुःख और दाह (जलन) मिट गया, मानो योगी को परमार्थ
(परमतत्व) की प्राप्ति हो गई हो। भरतजी ने देखा कि लक्ष्मणजी प्रभु के आगे
खड़े हैं और पूछे हुए वचन प्रेमपूर्वक कह रहे हैं (पूछी हुई बात का
प्रेमपूर्वक उत्तर दे रहे हैं)॥2॥
* सीस जटा कटि मुनि पट बाँधें। तून कसें कर सरु धनु काँधें॥
बेदी पर मुनि साधु समाजू। सीय सहित राजत रघुराजू॥3॥
बेदी पर मुनि साधु समाजू। सीय सहित राजत रघुराजू॥3॥
भावार्थ:-सिर पर जटा है,
कमर में मुनियों का (वल्कल) वस्त्र बाँधे हैं और उसी में तरकस कसे हैं।
हाथ में बाण तथा कंधे पर धनुष है, वेदी पर मुनि तथा साधुओं का समुदाय बैठा
है और सीताजी सहित श्री रघुनाथजी विराजमान हैं॥3॥
* बलकल बसन जटिल तनु स्यामा। जनु मुनिबेष कीन्ह रति कामा॥
कर कमलनि धनु सायकु फेरत। जिय की जरनि हरत हँसि हेरत॥4॥
कर कमलनि धनु सायकु फेरत। जिय की जरनि हरत हँसि हेरत॥4॥
भावार्थ:-श्री रामजी के
वल्कल वस्त्र हैं, जटा धारण किए हैं, श्याम शरीर है। (सीता-रामजी ऐसे लगते
हैं) मानो रति और कामदेव ने मुनि का वेष धारण किया हो। श्री रामजी अपने
करकमलों से धनुष-बाण फेर रहे हैं और हँसकर देखते ही जी की जलन हर लेते हैं
(अर्थात जिसकी ओर भी एक बार हँसकर देख लेते हैं, उसी को परम आनंद और शांति
मिल जाती है।)॥4॥
दोहा :
* लसत मंजु मुनि मंडली मध्य सीय रघुचंदु।
ग्यान सभाँ जनु तनु धरें भगति सच्चिदानंदु॥239॥
ग्यान सभाँ जनु तनु धरें भगति सच्चिदानंदु॥239॥
भावार्थ:-सुंदर मुनि
मंडली के बीच में सीताजी और रघुकुलचंद्र श्री रामचन्द्रजी ऐसे सुशोभित हो
रहे हैं मानो ज्ञान की सभा में साक्षात् भक्ति और सच्चिदानंद शरीर धारण
करके विराजमान हैं॥239॥
चौपाई :
* सानुज सखा समेत मगन मन। बिसरे हरष सोक सुख दुख गन॥
पाहि नाथ कहि पाहि गोसाईं। भूतल परे लकुट की नाईं॥1॥
पाहि नाथ कहि पाहि गोसाईं। भूतल परे लकुट की नाईं॥1॥
भावार्थ:-छोटे भाई
शत्रुघ्न और सखा निषादराज समेत भरतजी का मन (प्रेम में) मग्न हो रहा है।
हर्ष-शोक, सुख-दुःख आदि सब भूल गए। हे नाथ! रक्षा कीजिए, हे गुसाईं! रक्षा
कीजिए' ऐसा कहकर वे पृथ्वी पर दण्ड की तरह गिर पड़े॥1॥
* बचन सप्रेम लखन पहिचाने। करत प्रनामु भरत जियँ जाने॥
बंधु सनेह सरस एहि ओरा। उत साहिब सेवा बस जोरा॥2॥
बंधु सनेह सरस एहि ओरा। उत साहिब सेवा बस जोरा॥2॥
भावार्थ:-प्रेमभरे वचनों
से लक्ष्मणजी ने पहचान लिया और मन में जान लिया कि भरतजी प्रणाम कर रहे
हैं। (वे श्री रामजी की ओर मुँह किए खड़े थे, भरतजी पीठ पीछे थे, इससे
उन्होंने देखा नहीं।) अब इस ओर तो भाई भरतजी का सरस प्रेम और उधर स्वामी
श्री रामचन्द्रजी की सेवा की प्रबल परवशता॥2॥
* मिलि न जाइ नहिं गुदरत बनई। सुकबि लखन मन की गति भनई॥
रहे राखि सेवा पर भारू। चढ़ी चंग जनु खैंच खेलारू॥3॥
रहे राखि सेवा पर भारू। चढ़ी चंग जनु खैंच खेलारू॥3॥
भावार्थ:-न तो (क्षणभर
के लिए भी सेवा से पृथक होकर) मिलते ही बनता है और न (प्रेमवश) छोड़ते
(उपेक्षा करते) ही। कोई श्रेष्ठ कवि ही लक्ष्मणजी के चित्त की इस गति
(दुविधा) का वर्णन कर सकता है। वे सेवा पर भार रखकर रह गए (सेवा को ही
विशेष महत्वपूर्ण समझकर उसी में लगे रहे) मानो चढ़ी हुई पतंग को खिलाड़ी
(पतंग उड़ाने वाला) खींच रहा हो॥3॥
* कहत सप्रेम नाइ महि माथा। भरत प्रनाम करत रघुनाथा॥
उठे रामु सुनि पेम अधीरा। कहुँ पट कहुँ निषंग धनु तीरा॥4॥
उठे रामु सुनि पेम अधीरा। कहुँ पट कहुँ निषंग धनु तीरा॥4॥
भावार्थ:-लक्ष्मणजी ने
प्रेम सहित पृथ्वी पर मस्तक नवाकर कहा- हे रघुनाथजी! भरतजी प्रणाम कर रहे
हैं। यह सुनते ही श्री रघुनाथजी प्रेम में अधीर होकर उठे। कहीं वस्त्र
गिरा, कहीं तरकस, कहीं धनुष और कहीं बाण॥4॥
दोहा :
* बरबस लिए उठाइ उर लाए कृपानिधान।
भरत राम की मिलनि लखि बिसरे सबहि अपान॥240॥
भरत राम की मिलनि लखि बिसरे सबहि अपान॥240॥
भावार्थ:-कृपा निधान
श्री रामचन्द्रजी ने उनको जबरदस्ती उठाकर हृदय से लगा लिया! भरतजी और श्री
रामजी के मिलन की रीति को देखकर सबको अपनी सुध भूल गई॥240॥
चौपाई :
* मिलनि प्रीति किमि जाइ बखानी। कबिकुल अगम करम मन बानी॥
परम प्रेम पूरन दोउ भाई। मन बुधि चित अहमिति बिसराई॥1॥
परम प्रेम पूरन दोउ भाई। मन बुधि चित अहमिति बिसराई॥1॥
भावार्थ:-मिलन की प्रीति
कैसे बखानी जाए? वह तो कविकुल के लिए कर्म, मन, वाणी तीनों से अगम है।
दोनों भाई (भरतजी और श्री रामजी) मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार को भुलाकर
परम प्रेम से पूर्ण हो रहे हैं॥1॥
* कहहु सुपेम प्रगट को करई। केहि छाया कबि मति अनुसरई॥
कबिहि अरथ आखर बलु साँचा। अनुहरि ताल गतिहि नटु नाचा॥2॥
कबिहि अरथ आखर बलु साँचा। अनुहरि ताल गतिहि नटु नाचा॥2॥
भावार्थ:-कहिए, उस
श्रेष्ठ प्रेम को कौन प्रकट करे? कवि की बुद्धि किसकी छाया का अनुसरण करे?
कवि को तो अक्षर और अर्थ का ही सच्चा बल है। नट ताल की गति के अनुसार ही
नाचता है!॥2॥
* अगम सनेह भरत रघुबर को। जहँ न जाइ मनु बिधि हरि हर को॥
सो मैं कुमति कहौं केहि भाँति। बाज सुराग कि गाँडर ताँती॥3॥
सो मैं कुमति कहौं केहि भाँति। बाज सुराग कि गाँडर ताँती॥3॥
भावार्थ:-भरतजी और श्री
रघुनाथजी का प्रेम अगम्य है, जहाँ ब्रह्मा, विष्णु और महादेव का भी मन नहीं
जा सकता। उस प्रेम को मैं कुबुद्धि किस प्रकार कहूँ! भला, *गाँडर की ताँत
से भी कहीं सुंदर राग बज सकता है?॥3॥
(*तालाबों और झीलों में एक तरह की घास होती है, उसे गाँडर कहते हैं।)
* मिलनि बिलोकि भरत रघुबर की। सुरगन सभय धकधकी धरकी॥
समुझाए सुरगुरु जड़ जागे। बरषि प्रसून प्रसंसन लागे॥4॥
समुझाए सुरगुरु जड़ जागे। बरषि प्रसून प्रसंसन लागे॥4॥
भावार्थ:-भरतजी और श्री
रामचन्द्रजी के मिलने का ढंग देखकर देवता भयभीत हो गए, उनकी धुकधुकी धड़कने
लगी। देव गुरु बृहस्पतिजी ने समझाया, तब कहीं वे मूर्ख चेते और फूल बरसाकर
प्रशंसा करने लगे॥4॥
दोहा :
* मिलि सपेम रिपुसूदनहि केवटु भेंटेउ राम।
भूरि भायँ भेंटे भरत लछिमन करत प्रनाम॥241॥
भूरि भायँ भेंटे भरत लछिमन करत प्रनाम॥241॥
भावार्थ:-फिर श्री रामजी
प्रेम के साथ शत्रुघ्न से मिलकर तब केवट (निषादराज) से मिले। प्रणाम करते
हुए लक्ष्मणजी से भरतजी बड़े ही प्रेम से मिले॥241॥
चौपाई :
* भेंटेउ लखन ललकि लघु भाई। बहुरि निषादु लीन्ह उर लाई॥
पुनि मुनिगन दुहुँ भाइन्ह बंदे। अभिमत आसिष पाइ अनंदे॥1॥
पुनि मुनिगन दुहुँ भाइन्ह बंदे। अभिमत आसिष पाइ अनंदे॥1॥
भावार्थ:-तब लक्ष्मणजी
ललककर (बड़ी उमंग के साथ) छोटे भाई शत्रुघ्न से मिले। फिर उन्होंने निषादराज
को हृदय से लगा लिया। फिर भरत-शत्रुघ्न दोनों भाइयों ने (उपस्थित) मुनियों
को प्रणाम किया और इच्छित आशीर्वाद पाकर वे आनंदित हुए॥1॥
* सानुज भरत उमगि अनुरागा। धरि सिर सिय पद पदुम परागा॥
पुनि पुनि करत प्रनाम उठाए। सिर कर कमल परसि बैठाए॥2॥
पुनि पुनि करत प्रनाम उठाए। सिर कर कमल परसि बैठाए॥2॥
भावार्थ:-छोटे भाई
शत्रुघ्न सहित भरतजी प्रेम में उमँगकर सीताजी के चरण कमलों की रज सिर पर
धारण कर बार-बार प्रणाम करने लगे। सीताजी ने उन्हें उठाकर उनके सिर को अपने
करकमल से स्पर्श कर (सिर पर हाथ फेरकर) उन दोनों को बैठाया॥2॥
* सीयँ असीस दीन्हि मन माहीं। मनग सनेहँ देह सुधि नाहीं॥
सब बिधि सानुकूल लखि सीता। भे निसोच उर अपडर बीता॥3॥
सब बिधि सानुकूल लखि सीता। भे निसोच उर अपडर बीता॥3॥
भावार्थ:-सीताजी ने मन
ही मन आशीर्वाद दिया, क्योंकि वे स्नेह में मग्न हैं, उन्हें देह की
सुध-बुध नहीं है। सीताजी को सब प्रकार से अपने अनुकूल देखकर भरतजी सोचरहित
हो गए और उनके हृदय का कल्पित भय जाता रहा॥3॥
* कोउ किछु कहई न कोउ किछु पूँछा। प्रेम भरा मन निज गति छूँछा॥
तेहि अवसर केवटु धीरजु धरि। जोरि पानि बिनवत प्रनामु करि॥4॥
तेहि अवसर केवटु धीरजु धरि। जोरि पानि बिनवत प्रनामु करि॥4॥
भावार्थ:-उस समय न तो
कोई कुछ कहता है, न कोई कुछ पूछता है! मन प्रेम से परिपूर्ण है, वह अपनी
गति से खाली है (अर्थात संकल्प-विकल्प और चांचल्य से शून्य है)। उस अवसर पर
केवट (निषादराज) धीरज धर और हाथ जोड़कर प्रणाम करके विनती करने लगा-॥4॥
दोहा :
* नाथ साथ मुनिनाथ के मातु सकल पुर लोग।
सेवक सेनप सचिव सब आए बिकल बियोग॥242॥
सेवक सेनप सचिव सब आए बिकल बियोग॥242॥
भावार्थ:-हे नाथ! मुनिनाथ वशिष्ठजी के साथ सब माताएँ, नगरवासी, सेवक, सेनापति, मंत्री- सब आपके वियोग से व्याकुल होकर आए हैं॥242॥
चौपाई :
* सीलसिंधु सुनि गुर आगवनू। सिय समीप राखे रिपुदवनू॥
चले सबेग रामु तेहि काला। धीर धरम धुर दीनदयाला॥1॥
चले सबेग रामु तेहि काला। धीर धरम धुर दीनदयाला॥1॥
भावार्थ:-गुरु का आगमन
सुनकर शील के समुद्र श्री रामचन्द्रजी ने सीताजी के पास शत्रुघ्नजी को रख
दिया और वे परम धीर, धर्मधुरंधर, दीनदयालु श्री रामचन्द्रजी उसी समय वेग के
साथ चल पड़े॥1॥
* गुरहि देखि सानुज अनुरागे। दंड प्रनाम करन प्रभु लागे॥
मुनिबर धाइ लिए उर लाई। प्रेम उमगि भेंटे दोउ भाई॥2॥
मुनिबर धाइ लिए उर लाई। प्रेम उमगि भेंटे दोउ भाई॥2॥
भावार्थ:-गुरुजी के
दर्शन करके लक्ष्मणजी सहित प्रभु श्री रामचन्द्रजी प्रेम में भर गए और
दण्डवत प्रणाम करने लगे। मुनिश्रेष्ठ वशिष्ठजी ने दौड़कर उन्हें हृदय से लगा
लिया और प्रेम में उमँगकर वे दोनों भाइयों से मिले॥2॥
* प्रेम पुलकि केवट कहि नामू। कीन्ह दूरि तें दंड प्रनामू॥
राम सखा रिषि बरबस भेंटा। जनु महि लुठत सनेह समेटा॥3॥
राम सखा रिषि बरबस भेंटा। जनु महि लुठत सनेह समेटा॥3॥
भावार्थ:-फिर प्रेम से
पुलकित होकर केवट (निषादराज) ने अपना नाम लेकर दूर से ही वशिष्ठजी को
दण्डवत प्रणाम किया। ऋषि वशिष्ठजी ने रामसखा जानकर उसको जबर्दस्ती हृदय से
लगा लिया। मानो जमीन पर लोटते हुए प्रेम को समेट लिया हो॥3॥
* रघुपति भगति सुमंगल मूला। नभ सराहि सुर बरिसहिं फूला॥
एहि सम निपट नीच कोउ नाहीं। बड़ बसिष्ठ सम को जग माहीं॥4॥
एहि सम निपट नीच कोउ नाहीं। बड़ बसिष्ठ सम को जग माहीं॥4॥
भावार्थ:-श्री रघुनाथजी
की भक्ति सुंदर मंगलों का मूल है, इस प्रकार कहकर सराहना करते हुए देवता
आकाश से फूल बरसाने लगे। वे कहने लगे- जगत में इसके समान सर्वथा नीच कोई
नहीं और वशिष्ठजी के समान बड़ा कौन है?॥4॥
दोहा :
* जेहि लखि लखनहु तें अधिक मिले मुदित मुनिराउ।
सो सीतापति भजन को प्रगट प्रताप प्रभाउ॥243॥
सो सीतापति भजन को प्रगट प्रताप प्रभाउ॥243॥
भावार्थ:-जिस (निषाद) को
देखकर मुनिराज वशिष्ठजी लक्ष्मणजी से भी अधिक उससे आनंदित होकर मिले। यह
सब सीतापति श्री रामचन्द्रजी के भजन का प्रत्यक्ष प्रताप और प्रभाव है॥243॥
चौपाई :
* आरत लोग राम सबु जाना। करुनाकर सुजान भगवाना॥
जो जेहि भायँ रहा अभिलाषी। तेहि तेहि कै तसि तसि रुख राखी॥1॥
जो जेहि भायँ रहा अभिलाषी। तेहि तेहि कै तसि तसि रुख राखी॥1॥
भावार्थ:-दया की खान,
सुजान भगवान श्री रामजी ने सब लोगों को दुःखी (मिलने के लिए व्याकुल) जाना।
तब जो जिस भाव से मिलने का अभिलाषी था, उस-उस का उस-उस प्रकार का रुख रखते
हुए (उसकी रुचि के अनुसार)॥1॥
* सानुज मिलि पल महुँ सब काहू। कीन्ह दूरि दुखु दारुन दाहू॥
यह बड़ि बात राम कै नाहीं। जिमि घट कोटि एक रबि छाहीं॥2॥
यह बड़ि बात राम कै नाहीं। जिमि घट कोटि एक रबि छाहीं॥2॥
भावार्थ:-उन्होंने
लक्ष्मणजी सहित पल भर में सब किसी से मिलकर उनके दुःख और कठिन संताप को दूर
कर दिया। श्री रामचन्द्रजी के लिए यह कोई बड़ी बात नहीं है। जैसे करोड़ों
घड़ों में एक ही सूर्य की (पृथक-पृथक) छाया (प्रतिबिम्ब) एक साथ ही दिखती
है॥2॥
* मिलि केवटहि उमगि अनुरागा। पुरजन सकल सराहहिं भागा॥
देखीं राम दुखित महतारीं। जनु सुबेलि अवलीं हिम मारीं॥3॥
देखीं राम दुखित महतारीं। जनु सुबेलि अवलीं हिम मारीं॥3॥
भावार्थ:-समस्त पुरवासी
प्रेम में उमँगकर केवट से मिलकर (उसके) भाग्य की सराहना करते हैं। श्री
रामचन्द्रजी ने सब माताओं को दुःखी देखा। मानो सुंदर लताओं की पंक्तियों को
पाला मार गया हो॥3॥
*प्रथम राम भेंटी कैकेई। सरल सुभायँ भगति मति भेई॥
पग परि कीन्ह प्रबोधु बहोरी। काल करम बिधि सिर धरि खोरी॥4॥
पग परि कीन्ह प्रबोधु बहोरी। काल करम बिधि सिर धरि खोरी॥4॥
भावार्थ:-सबसे पहले
रामजी कैकेयी से मिले और अपने सरल स्वभाव तथा भक्ति से उसकी बुद्धि को तर
कर दिया। फिर चरणों में गिरकर काल, कर्म और विधाता के सिर दोष मढ़कर, श्री
रामजी ने उनको सान्त्वना दी॥4॥
दोहा :
* भेटीं रघुबर मातु सब करि प्रबोधु परितोषु।
अंब ईस आधीन जगु काहु न देइअ दोषु॥244॥
अंब ईस आधीन जगु काहु न देइअ दोषु॥244॥
भावार्थ:-फिर श्री
रघुनाथजी सब माताओं से मिले। उन्होंने सबको समझा-बुझाकर संतोष कराया कि हे
माता! जगत ईश्वर के अधीन है। किसी को भी दोष नहीं देना चाहिए॥244॥
* गुरतिय पद बंदे दुहु भाईं। सहित बिप्रतिय जे सँग आईं॥
गंग गौरिसम सब सनमानीं। देहिं असीस मुदित मृदु बानीं॥1॥
गंग गौरिसम सब सनमानीं। देहिं असीस मुदित मृदु बानीं॥1॥
भावार्थ:-फिर दोनों
भाइयों ने ब्राह्मणों की स्त्रियों सहित- जो भरतजी के साथ आई थीं, गुरुजी
की पत्नी अरुंधतीजी के चरणों की वंदना की और उन सबका गंगाजी तथा गौरीजी के
समान सम्मान किया। वे सब आनंदित होकर कोमल वाणी से आशीर्वाद देने लगीं॥1॥
* गहि पद लगे सुमित्रा अंका। जनु भेंटी संपति अति रंका॥
पुनि जननी चरननि दोउ भ्राता। परे पेम ब्याकुल सब गाता॥2॥
पुनि जननी चरननि दोउ भ्राता। परे पेम ब्याकुल सब गाता॥2॥
भावार्थ:-तब दोनों भाई
पैर पकड़कर सुमित्राजी की गोद में जा चिपटे। मानो किसी अत्यन्त दरिद्र की
सम्पत्ति से भेंट हो गई हो। फिर दोनों भाई माता कौसल्याजी के चरणों में गिर
पड़े। प्रेम के मारे उनके सारे अंग शिथिल हैं॥2॥
* अति अनुराग अंब उर लाए। नयन सनेह सलिल अन्हवाए॥
तेहि अवसर कर हरष बिषादू। किमि कबि कहै मूक जिमि स्वादू॥3॥
तेहि अवसर कर हरष बिषादू। किमि कबि कहै मूक जिमि स्वादू॥3॥
भावार्थ:-बड़े ही स्नेह
से माता ने उन्हें हृदय से लगा लिया और नेत्रों से बहे हुए प्रेमाश्रुओं के
जल से उन्हें नहला दिया। उस समय के हर्ष और विषाद को कवि कैसे कहे? जैसे
गूँगा स्वाद को कैसे बतावे?॥3॥
* मिलि जननिहि सानुज रघुराऊ। गुर सन कहेउ कि धारिअ पाऊ॥
पुरजन पाइ मुनीस नियोगू। जल थल तकि तकि उतरेउ लोगू॥4॥
पुरजन पाइ मुनीस नियोगू। जल थल तकि तकि उतरेउ लोगू॥4॥
भावार्थ:-श्री रघुनाथजी
ने छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित माता कौसल्या से मिलकर गुरु से कहा कि आश्रम पर
पधारिए। तदनन्तर मुनीश्वर वशिष्ठजी की आज्ञा पाकर अयोध्यावासी सब लोग जल
और थल का सुभीता देख-देखकर उतर गए॥4॥
दोहा :
* महिसुर मंत्री मातु गुरु गने लोग लिए साथ।
पावन आश्रम गवनु किए भरत लखन रघुनाथ॥245॥
पावन आश्रम गवनु किए भरत लखन रघुनाथ॥245॥
भावार्थ:-ब्राह्मण, मंत्री, माताएँ और गुरु आदि गिने-चुने लोगों को साथ लिए हुए, भरतजी, लक्ष्मणजी और श्री रघुनाथजी पवित्र आश्रम को चले॥245॥
चौपाई :
* सीय आइ मुनिबर पग लागी। उचित असीस लही मन मागी॥
गुरपतिनिहि मुनितियन्ह समेता। मिली पेमु कहि जाइ न जेता॥1॥
गुरपतिनिहि मुनितियन्ह समेता। मिली पेमु कहि जाइ न जेता॥1॥
भावार्थ:-सीताजी आकर
मुनि श्रेष्ठ वशिष्ठजी के चरणों लगीं और उन्होंने मन माँगी उचित आशीष पाई।
फिर मुनियों की स्त्रियों सहित गुरु पत्नी अरुन्धतीजी से मिलीं। उनका जितना
प्रेम था, वह कहा नहीं जाता॥1॥
* बंदि बंदि पग सिय सबही के। आसिरबचन लहे प्रिय जी के।
सासु सकल सब सीयँ निहारीं। मूदे नयन सहमि सुकुमारीं॥2॥
सासु सकल सब सीयँ निहारीं। मूदे नयन सहमि सुकुमारीं॥2॥
भावार्थ:-सीताजी ने सभी
के चरणों की अलग-अलग वंदना करके अपने हृदय को प्रिय (अनुकूल) लगने वाले
आशीर्वाद पाए। जब सुकुमारी सीताजी ने सब सासुओं को देखा, तब उन्होंने सहमकर
अपनी आँखें बंद कर लीं॥2॥
* परीं बधिक बस मनहुँ मरालीं। काह कीन्ह करतार कुचालीं॥
तिन्ह सिय निरखि निपट दुखु पावा। सो सबु सहिअ जो दैउ सहावा॥3॥
तिन्ह सिय निरखि निपट दुखु पावा। सो सबु सहिअ जो दैउ सहावा॥3॥
भावार्थ:-(सासुओं की
बुरी दशा देखकर) उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ मानो राजहंसिनियाँ बधिक के वश में
पड़ गई हों। (मन में सोचने लगीं कि) कुचाली विधाता ने क्या कर डाला?
उन्होंने भी सीताजी को देखकर बड़ा दुःख पाया। (सोचा) जो कुछ दैव सहावे, वह
सब सहना ही पड़ता है॥3॥
* जनकसुता तब उर धरि धीरा। नील नलिन लोयन भरि नीरा॥
मिली सकल सासुन्ह सिय जाई। तेहि अवसर करुना महि छाई॥4॥
मिली सकल सासुन्ह सिय जाई। तेहि अवसर करुना महि छाई॥4॥
भावार्थ:-तब जानकीजी
हृदय में धीरज धरकर, नील कमल के समान नेत्रों में जल भरकर, सब सासुओं से
जाकर मिलीं। उस समय पृथ्वी पर करुणा (करुण रस) छा गई॥4॥
दोहा :
* लागि लागि पग सबनि सिय भेंटति अति अनुराग।
हृदयँ असीसहिं पेम बस रहिअहु भरी सोहाग॥246॥
हृदयँ असीसहिं पेम बस रहिअहु भरी सोहाग॥246॥
भावार्थ:-सीताजी सबके
पैरों लग-लगकर अत्यन्त प्रेम से मिल रही हैं और सब सासुएँ स्नेहवश हृदय से
आशीर्वाद दे रही हैं कि तुम सुहाग से भरी रहो (अर्थात सदा सौभाग्यवती
रहो)॥246॥
चौपाई :
* बिकल सनेहँ सीय सब रानीं। बैठन सबहि कहेउ गुर ग्यानीं॥
कहि जग गति मायिक मुनिनाथा॥ कहे कछुक परमारथ गाथा॥1॥
कहि जग गति मायिक मुनिनाथा॥ कहे कछुक परमारथ गाथा॥1॥
भावार्थ:-सीताजी और सब
रानियाँ स्नेह के मारे व्याकुल हैं। तब ज्ञानी गुरु ने सबको बैठ जाने के
लिए कहा। फिर मुनिनाथ वशिष्ठजी ने जगत की गति को मायिक कहकर (अर्थात जगत
माया का है, इसमें कुछ भी नित्य नहीं है, ऐसा कहकर) कुछ परमार्थ की कथाएँ
(बातें) कहीं॥1॥
* नृप कर सुरपुर गवनु सुनावा। सुनि रघुनाथ दुसह दुखु पावा॥
मरन हेतु निज नेहु बिचारी। भे अति बिकल धीर धुर धारी॥2॥
मरन हेतु निज नेहु बिचारी। भे अति बिकल धीर धुर धारी॥2॥
भावार्थ:-तदनन्तर
वशिष्ठजी ने राजा दशरथजी के स्वर्ग गमन की बात सुनाई। जिसे सुनकर रघुनाथजी
ने दुःसह दुःख पाया और अपने प्रति उनके स्नेह को उनके मरने का कारण विचारकर
धीरधुरन्धर श्री रामचन्द्रजी अत्यन्त व्याकुल हो गए॥2॥
* कुलिस कठोर सुनत कटु बानी। बिलपत लखन सीय सब रानी॥
सोक बिकल अति सकल समाजू। मानहूँ राजु अकाजेउ आजू॥3॥
सोक बिकल अति सकल समाजू। मानहूँ राजु अकाजेउ आजू॥3॥
भावार्थ:-वज्र के समान
कठोर, कड़वी वाणी सुनकर लक्ष्मणजी, सीताजी और सब रानियाँ विलाप करने लगीं।
सारा समाज शोक से अत्यन्त व्याकुल हो गया! मानो राजा आज ही मरे हों॥3॥
* मुनिबर बहुरि राम समुझाए। सहित समाज सुसरित नहाए॥
ब्रत निरंबु तेहि दिन प्रभु कीन्हा। मुनिहु कहें जलु काहुँ न लीन्हा॥4॥
ब्रत निरंबु तेहि दिन प्रभु कीन्हा। मुनिहु कहें जलु काहुँ न लीन्हा॥4॥
भावार्थ:-फिर
मुनिश्रेष्ठ वशिष्ठजी ने श्री रामजी को समझाया। तब उन्होंने समाज सहित
श्रेष्ठ नदी मंदाकिनीजी में स्नान किया। उस दिन प्रभु श्री रामचन्द्रजी ने
निर्जल व्रत किया। मुनि वशिष्ठजी के कहने पर भी किसी ने जल ग्रहण नहीं
किया॥4॥
दोहा :
* भोरु भएँ रघुनंदनहि जो मुनि आयसु दीन्ह।
श्रद्धा भगति समेत प्रभु सो सबु सादरु कीन्ह॥247॥
श्रद्धा भगति समेत प्रभु सो सबु सादरु कीन्ह॥247॥
भावार्थ:-दूसरे दिन
सबेरा होने पर मुनि वशिष्ठजी ने श्री रघुनाथजी को जो-जो आज्ञा दी, वह सब
कार्य प्रभु श्री रामचन्द्रजी ने श्रद्धा-भक्ति सहित आदर के साथ किया॥247॥
चौपाई :
* करि पितु क्रिया बेद जसि बरनी। भे पुनीत पातक तम तरनी॥
जासु नाम पावक अघ तूला। सुमिरत सकल सुमंगल मूला॥1॥
जासु नाम पावक अघ तूला। सुमिरत सकल सुमंगल मूला॥1॥
भावार्थ:-वेदों में जैसा
कहा गया है, उसी के अनुसार पिता की क्रिया करके, पाप रूपी अंधकार के नष्ट
करने वाले सूर्यरूप श्री रामचन्द्रजी शुद्ध हुए! जिनका नाम पाप रूपी रूई के
(तुरंत जला डालने के) लिए अग्नि है और जिनका स्मरण मात्र समस्त शुभ मंगलों
का मूल है,॥1॥
* सुद्ध सो भयउ साधु संमत अस। तीरथ आवाहन सुसरिजस॥
सुद्ध भएँ दुइ बासर बीते। बोले गुर सनराम पिरीते॥2॥
सुद्ध भएँ दुइ बासर बीते। बोले गुर सनराम पिरीते॥2॥
भावार्थ:-वे (नित्य
शुद्ध-बुद्ध) भगवान श्री रामजी शुद्ध हुए! साधुओं की ऐसी सम्मति है कि उनका
शुद्ध होना वैसे ही है जैसा तीर्थों के आवाहन से गंगाजी शुद्ध होती हैं!
(गंगाजी तो स्वभाव से ही शुद्ध हैं, उनमें जिन तीर्थों का आवाहन किया जाता
है, उलटे वे ही गंगाजी के सम्पर्क में आने से शुद्ध हो जाते हैं। इसी
प्रकार सच्चिदानंद रूप श्रीराम तो नित्य शुद्ध हैं, उनके संसर्ग से कर्म ही
शुद्ध हो गए।) जब शुद्ध हुए दो दिन बीत गए तब श्री रामचन्द्रजी प्रीति के
साथ गुरुजी से बोले-॥2॥
* नाथ लोग सब निपट दुखारी। कंद मूल फल अंबु आहारी॥
सानुज भरतु सचिव सब माता। देखि मोहि पल जिमि जुग जाता॥3॥
सानुज भरतु सचिव सब माता। देखि मोहि पल जिमि जुग जाता॥3॥
भावार्थ:-हे नाथ! सब लोग
यहाँ अत्यन्त दुःखी हो रहे हैं। कंद, मूल, फल और जल का ही आहार करते हैं।
भाई शत्रुघ्न सहित भरत को, मंत्रियों को और सब माताओं को देखकर मुझे एक-एक
पल युग के समान बीत रहा है॥3॥
* सब समेत पुर धारिअ पाऊ। आपु इहाँ अमरावति राऊ॥
बहुत कहेउँ सब कियउँ ढिठाई। उचित होइ तस करिअ गोसाँई॥4॥
बहुत कहेउँ सब कियउँ ढिठाई। उचित होइ तस करिअ गोसाँई॥4॥
भावार्थ:-अतः सबके साथ
आप अयोध्यापुरी को पधारिए (लौट जाइए)। आप यहाँ हैं और राजा अमरावती
(स्वर्ग) में हैं (अयोध्या सूनी है)! मैंने बहुत कह डाला, यह सब बड़ी ढिठाई
की है। हे गोसाईं! जैसा उचित हो, वैसा ही कीजिए॥4॥
दोहा :
* धर्म सेतु करुनायतन कस न कहु अस राम।
लोग दुखित दिन दुइ दरस देखि लहहुँ बिश्राम॥248॥
लोग दुखित दिन दुइ दरस देखि लहहुँ बिश्राम॥248॥
भावार्थ:-(वशिष्ठजी ने
कहा-) हे राम! तुम धर्म के सेतु और दया के धाम हो, तुम भला ऐसा क्यों न
कहो? लोग दुःखी हैं। दो दिन तुम्हारा दर्शन कर शांति लाभ कर लें॥248॥
चौपाई :
* राम बचन सुनि सभय समाजू। जनु जलनिधि महुँ बिकल जहाजू॥
सुनि गुर गिरा सुमंगल मूला। भयउ मनहुँ मारुत अनुकूला॥1॥
सुनि गुर गिरा सुमंगल मूला। भयउ मनहुँ मारुत अनुकूला॥1॥
भावार्थ:-श्री रामजी के
वचन सुनकर सारा समाज भयभीत हो गया। मानो बीच समुद्र में जहाज डगमगा गया हो,
परन्तु जब उन्होंने गुरु वशिष्ठजी की श्रेष्ठ कल्याणमूलक वाणी सुनी, तो उस
जहाज के लिए मानो हवा अनुकूल हो गई॥1॥
* पावन पयँ तिहुँ काल नहाहीं। जो बिलोकि अघ ओघ नसाहीं॥
मंगलमूरति लोचन भरि भरि। निरखहिं हरषि दंडवत करि करि॥2॥
मंगलमूरति लोचन भरि भरि। निरखहिं हरषि दंडवत करि करि॥2॥
भावार्थ:-सब लोग पवित्र
पयस्विनी नदी में (अथवा पयस्विनी नदी के पवित्र जल में) तीनों समय (सबेरे,
दोपहर और सायंकाल) स्नान करते हैं, जिसके दर्शन से ही पापों के समूह नष्ट
हो जाते हैं और मंगल मूर्ति श्री रामचन्द्रजी को दण्डवत प्रणाम कर-करके
उन्हें नेत्र भर-भरकर देखते हैं॥2॥
* राम सैल बन देखन जाहीं। जहँ सुख सकल सकल दुख नाहीं॥
झरना झरहिं सुधासम बारी। त्रिबिध तापहर त्रिबिध बयारी॥3॥
झरना झरहिं सुधासम बारी। त्रिबिध तापहर त्रिबिध बयारी॥3॥
भावार्थ:-सब श्री
रामचन्द्रजी के पर्वत (कामदगिरि) और वन को देखने जाते हैं, जहाँ सभी सुख
हैं और सभी दुःखों का अभाव है। झरने अमृत के समान जल झरते हैं और तीन
प्रकार की (शीतल, मंद, सुगंध) हवा तीनों प्रकार के (आध्यात्मिक, आधिभौतिक,
आधिदैविक) तापों को हर लेती है॥3॥
* बिटप बेलि तृन अगनित जाती। फल प्रसून पल्लव बहु भाँती॥
सुंदर सिला सुखद तरु छाहीं। जाइ बरनि बन छबि केहि पाहीं॥4॥
सुंदर सिला सुखद तरु छाहीं। जाइ बरनि बन छबि केहि पाहीं॥4॥
भावार्थ:-असंख्य जात के
वृक्ष, लताएँ और तृण हैं तथा बहुत तरह के फल, फूल और पत्ते हैं। सुंदर
शिलाएँ हैं। वृक्षों की छाया सुख देने वाली है। वन की शोभा किससे वर्णन की
जा सकती है?॥4॥
वनवासियों द्वारा भरतजी की मंडली का सत्कार, कैकेयी का पश्चाताप
दोहा :
* सरनि सरोरुह जल बिहग कूजत गुंजत भृंग।
बैर बिगत बिहरत बिपिन मृग बिहंग बहुरंग॥249॥
बैर बिगत बिहरत बिपिन मृग बिहंग बहुरंग॥249॥
भावार्थ:-तालाबों में
कमल खिल रहे हैं, जल के पक्षी कूज रहे हैं, भौंरे गुंजार कर रहे हैं और
बहुत रंगों के पक्षी और पशु वन में वैररहित होकर विहार कर रहे हैं॥249॥
चौपाई :
* कोल किरात भिल्ल बनबासी। मधु सुचि सुंदर स्वादु सुधा सी॥
भरि भरि परन पुटीं रचि रूरी। कंद मूल फल अंकुर जूरी॥1॥
भरि भरि परन पुटीं रचि रूरी। कंद मूल फल अंकुर जूरी॥1॥
भावार्थ:-कोल, किरात और
भील आदि वन के रहने वाले लोग पवित्र, सुंदर एवं अमृत के समान स्वादिष्ट मधु
(शहद) को सुंदर दोने बनाकर और उनमें भर-भरकर तथा कंद, मूल, फल और अंकुर
आदि की जूड़ियों (अँटियों) को॥1॥
* सबहि देहिं करि बिनय प्रनामा। कहि कहि स्वाद भेद गुन नामा॥
देहिं लोग बहु मोल न लेहीं। फेरत राम दोहाई देहीं॥2॥
देहिं लोग बहु मोल न लेहीं। फेरत राम दोहाई देहीं॥2॥
भावार्थ:-सबको विनय और
प्रणाम करके उन चीजों के अलग-अलग स्वाद, भेद (प्रकार), गुण और नाम
बता-बताकर देते हैं। लोग उनका बहुत दाम देते हैं, पर वे नहीं लेते और लौटा
देने में श्री रामजी की दुहाई देते हैं॥2॥
* कहहिं सनेह मगन मृदु बानी। मानत साधु पेम पहिचानी॥
तुम्ह सुकृती हम नीच निषादा। पावा दरसनु राम प्रसादा॥3॥
तुम्ह सुकृती हम नीच निषादा। पावा दरसनु राम प्रसादा॥3॥
भावार्थ:-प्रेम में मग्न
हुए वे कोमल वाणी से कहते हैं कि साधु लोग प्रेम को पहचानकर उसका सम्मान
करते हैं (अर्थात आप साधु हैं, आप हमारे प्रेम को देखिए, दाम देकर या
वस्तुएँ लौटाकर हमारे प्रेम का तिरस्कार न कीजिए)। आप तो पुण्यात्मा हैं,
हम नीच निषाद हैं। श्री रामजी की कृपा से ही हमने आप लोगों के दर्शन पाए
हैं॥3॥
* हमहि अगम अति दरसु तुम्हारा। जस मरु धरनि देवधुनि धारा॥
राम कृपाल निषाद नेवाजा। परिजन प्रजउ चहिअ जस राजा॥4॥
राम कृपाल निषाद नेवाजा। परिजन प्रजउ चहिअ जस राजा॥4॥
भावार्थ:-हम लोगों को
आपके दर्शन बड़े ही दुर्लभ हैं, जैसे मरुभूमि के लिए गंगाजी की धारा दुर्लभ
है! (देखिए) कृपालु श्री रामचन्द्रजी ने निषाद पर कैसी कृपा की है। जैसे
राजा हैं वैसा ही उनके परिवार और प्रजा को भी होना चाहिए॥4॥
दोहा :
* यह जियँ जानि सँकोचु तजि करिअ छोहु लखि नेहु।
हमहि कृतारथ करनलगि फल तृन अंकुर लेहु॥250॥
हमहि कृतारथ करनलगि फल तृन अंकुर लेहु॥250॥
भावार्थ:-हृदय में ऐसा जानकर संकोच छोड़कर और हमारा प्रेम देखकर कृपा कीजिए और हमको कृतार्थ करने के लिए ही फल, तृण और अंकुर लीजिए॥250॥
चौपाई :
* तुम्ह प्रिय पाहुने बन पगु धारे। सेवा जोगु न भाग हमारे॥
देब काह हम तुम्हहि गोसाँई। ईंधनु पात किरात मिताई॥1॥
देब काह हम तुम्हहि गोसाँई। ईंधनु पात किरात मिताई॥1॥
भावार्थ:-आप प्रिय
पाहुने वन में पधारे हैं। आपकी सेवा करने के योग्य हमारे भाग्य नहीं हैं।
हे स्वामी! हम आपको क्या देंगे? भीलों की मित्रता तो बस, ईंधन (लकड़ी) और
पत्तों ही तक है॥1॥
* यह हमारि अति बड़ि सेवकाई। लेहिं न बासन बसन चोराई॥
हम जड़ जीव जीव गन घाती। कुटिल कुचाली कुमति कुजाती॥2॥
हम जड़ जीव जीव गन घाती। कुटिल कुचाली कुमति कुजाती॥2॥
भावार्थ:-हमारी तो यही
बड़ी भारी सेवा है कि हम आपके कपड़े और बर्तन नहीं चुरा लेते। हम लोग जड़ जीव
हैं, जीवों की हिंसा करने वाले हैं, कुटिल, कुचाली, कुबुद्धि और कुजाति
हैं॥2॥
* पाप करत निसि बासर जाहीं। नहिं पट कटि नहिं पेट अघाहीं॥
सपनेहुँ धरमबुद्धि कस काऊ। यह रघुनंदन दरस प्रभाऊ॥3॥
सपनेहुँ धरमबुद्धि कस काऊ। यह रघुनंदन दरस प्रभाऊ॥3॥
भावार्थ:-हमारे दिन-रात
पाप करते ही बीतते हैं। तो भी न तो हमारी कमर में कपड़ा है और न पेट ही भरते
हैं। हममें स्वप्न में भी कभी धर्मबुद्धि कैसी? यह सब तो श्री रघुनाथजी के
दर्शन का प्रभाव है॥3॥
* जब तें प्रभु पद पदुम निहारे। मिटे दुसह दुख दोष हमारे॥
बचन सुनत पुरजन अनुरागे। तिन्ह के भाग सराहन लागे॥4॥
बचन सुनत पुरजन अनुरागे। तिन्ह के भाग सराहन लागे॥4॥
भावार्थ:-जब से प्रभु के
चरण कमल देखे, तब से हमारे दुःसह दुःख और दोष मिट गए। वनवासियों के वचन
सुनकर अयोध्या के लोग प्रेम में भर गए और उनके भाग्य की सराहना करने लगे॥4॥
छन्द :
* लागे सराहन भाग सब अनुराग बचन सुनावहीं
बोलनि मिलनि सिय राम चरन सनेहु लखि सुखु पावहीं॥
नर नारि निदरहिं नेहु निज सुनि कोल भिल्लनि की गिरा।
तुलसी कृपा रघुबंसमनि की लोह लै लौका तिरा॥
बोलनि मिलनि सिय राम चरन सनेहु लखि सुखु पावहीं॥
नर नारि निदरहिं नेहु निज सुनि कोल भिल्लनि की गिरा।
तुलसी कृपा रघुबंसमनि की लोह लै लौका तिरा॥
भावार्थ:-सब उनके भाग्य
की सराहना करने लगे और प्रेम के वचन सुनाने लगे। उन लोगों के बोलने और
मिलने का ढंग तथा श्री सीता-रामजी के चरणों में उनका प्रेम देखकर सब सुख पा
रहे हैं। उन कोल-भीलों की वाणी सुनकर सभी नर-नारी अपने प्रेम का निरादर
करते हैं (उसे धिक्कार देते हैं)। तुलसीदासजी कहते हैं कि यह रघुवंशमणि
श्री रामचन्द्रजी की कृपा है कि लोहा नौका को अपने ऊपर लेकर तैर गया॥
सोरठा :
* बिहरहिं बन चहु ओर प्रतिदिन प्रमुदित लोग सब।
जल ज्यों दादुर मोर भए पीन पावस प्रथम॥251॥
जल ज्यों दादुर मोर भए पीन पावस प्रथम॥251॥
भावार्थ:-सब लोग
दिनोंदिन परम आनंदित होते हुए वन में चारों ओर विचरते हैं। जैसे पहली वर्षा
के जल से मेंढक और मोर मोटे हो जाते हैं (प्रसन्न होकर नाचते-कूदते
हैं)॥251॥
चौपाई :
* पुर जन नारि मगन अति प्रीती। बासर जाहिं पलक सम बीती॥
सीय सासु प्रति बेष बनाई। सादर करइ सरिस सेवकाई॥1॥
सीय सासु प्रति बेष बनाई। सादर करइ सरिस सेवकाई॥1॥
भावार्थ:-अयोध्यापुरी के
पुरुष और स्त्री सभी प्रेम में अत्यन्त मग्न हो रहे हैं। उनके दिन पल के
समान बीत जाते हैं। जितनी सासुएँ थीं, उतने ही वेष (रूप) बनाकर सीताजी सब
सासुओं की आदरपूर्वक एक सी सेवा करती हैं॥1॥
* लखा न मरमु राम बिनु काहूँ। माया सब सिय माया माहूँ॥
सीयँ सासु सेवा बस कीन्हीं। तिन्ह लहि सुख सिख आसिष दीन्हीं॥2॥
सीयँ सासु सेवा बस कीन्हीं। तिन्ह लहि सुख सिख आसिष दीन्हीं॥2॥
भावार्थ:-श्री
रामचन्द्रजी के सिवा इस भेद को और किसी ने नहीं जाना। सब मायाएँ (पराशक्ति
महामाया) श्री सीताजी की माया में ही हैं। सीताजी ने सासुओं को सेवा से वश
में कर लिया। उन्होंने सुख पाकर सीख और आशीर्वाद दिए॥2॥
* लखि सिय सहित सरल दोउ भाई। कुटिल रानि पछितानि अघाई॥
अवनि जमहि जाचति कैकेई। महि न बीचु बिधि मीचु न देई॥3॥
अवनि जमहि जाचति कैकेई। महि न बीचु बिधि मीचु न देई॥3॥
भावार्थ:-सीताजी समेत
दोनों भाइयों (श्री राम-लक्ष्मण) को सरल स्वभाव देखकर कुटिल रानी कैकेयी
भरपेट पछताई। वह पृथ्वी तथा यमराज से याचना करती है, किन्तु धरती बीच (फटकर
समा जाने के लिए रास्ता) नहीं देती और विधाता मौत नहीं देता॥3॥
* लोकहुँ बेद बिदित कबि कहहीं। राम बिमुख थलु नरक न लहहीं॥
यहु संसउ सब के मन माहीं। राम गवनु बिधि अवध कि नाहीं॥4॥
यहु संसउ सब के मन माहीं। राम गवनु बिधि अवध कि नाहीं॥4॥
भावार्थ:-लोक और वेद में
प्रसिद्ध है और कवि (ज्ञानी) भी कहते हैं कि जो श्री रामजी से विमुख हैं,
उन्हें नरक में भी ठौर नहीं मिलती। सबके मन में यह संदेह हो रहा था कि हे
विधाता! श्री रामचन्द्रजी का अयोध्या जाना होगा या नहीं॥4॥
दोहा :
* निसि न नीद नहिं भूख दिन भरतु बिकल सुचि सोच।
नीच कीच बिच मगन जस मीनहि सलिल सँकोच॥252॥
नीच कीच बिच मगन जस मीनहि सलिल सँकोच॥252॥
भावार्थ:-भरतजी को न तो
रात को नींद आती है, न दिन में भूख ही लगती है। वे पवित्र सोच में ऐसे विकल
हैं, जैसे नीचे (तल) के कीचड़ में डूबी हुई मछली को जल की कमी से व्याकुलता
होती है॥252॥
चौपाई :
* कीन्हि मातु मिस काल कुचाली। ईति भीति जस पाकत साली॥
केहि बिधि होइ राम अभिषेकू। मोहि अवकलत उपाउ न एकू॥1॥
केहि बिधि होइ राम अभिषेकू। मोहि अवकलत उपाउ न एकू॥1॥
भावार्थ:-(भरतजी सोचते
हैं कि) माता के मिस से काल ने कुचाल की है। जैसे धान के पकते समय ईति का
भय आ उपस्थित हो। अब श्री रामचन्द्रजी का राज्याभिषेक किस प्रकार हो, मुझे
तो एक भी उपाय नहीं सूझ पड़ता॥1॥
* अवसि फिरहिं गुर आयसु मानी। मुनि पुनि कहब राम रुचि जानी॥
मातु कहेहुँ बहुरहिं रघुराऊ। राम जननि हठ करबि कि काऊ॥2॥
मातु कहेहुँ बहुरहिं रघुराऊ। राम जननि हठ करबि कि काऊ॥2॥
भावार्थ:-गुरुजी की
आज्ञा मानकर तो श्री रामजी अवश्य ही अयोध्या को लौट चलेंगे, परन्तु मुनि
वशिष्ठजी तो श्री रामचन्द्रजी की रुचि जानकर ही कुछ कहेंगे। ( अर्थात वे
श्री रामजी की रुचि देखे बिना जाने को नहीं कहेंगे)। माता कौसल्याजी के
कहने से भी श्री रघुनाथजी लौट सकते हैं, पर भला, श्री रामजी को जन्म देने
वाली माता क्या कभी हठ करेगी?॥2॥
* मोहि अनुचर कर केतिक बाता। तेहि महँ कुसमउ बाम बिधाता॥
जौं हठ करउँ त निपट कुकरमू। हरगिरि तें गुरु सेवक धरमू॥3॥
जौं हठ करउँ त निपट कुकरमू। हरगिरि तें गुरु सेवक धरमू॥3॥
भावार्थ:-मुझ सेवक की तो
बात ही कितनी है? उसमें भी समय खराब है (मेरे दिन अच्छे नहीं हैं) और
विधाता प्रतिकूल है। यदि मैं हठ करता हूँ तो यह घोर कुकर्म (अधर्म) होगा,
क्योंकि सेवक का धर्म शिवजी के पर्वत कैलास से भी भारी (निबाहने में कठिन)
है॥3॥
* एकउ जुगुति न मन ठहरानी। सोचत भरतहि रैनि बिहानी॥
प्रात नहाइ प्रभुहि सिर नाई। बैठत पठए रिषयँ बोलाई॥4॥
प्रात नहाइ प्रभुहि सिर नाई। बैठत पठए रिषयँ बोलाई॥4॥
भावार्थ:-एक भी युक्ति
भरतजी के मन में न ठहरी। सोचते ही सोचते रात बीत गई। भरतजी प्रातःकाल स्नान
करके और प्रभु श्री रामचन्द्रजी को सिर नवाकर बैठे ही थे कि ऋषि वशिष्ठजी
ने उनको बुलवा भेजा॥4॥
श्री वशिष्ठजी का भाषण
दोहा :
* गुर पद कमल प्रनामु करि बैठे आयसु पाइ।
बिप्र महाजन सचिव सब जुरे सभासद आइ॥253॥
बिप्र महाजन सचिव सब जुरे सभासद आइ॥253॥
भावार्थ:-भरतजी गुरु के चरणकमलों में प्रणाम करके आज्ञा पाकर बैठ गए। उसी समय ब्राह्मण, महाजन, मंत्री आदि सभी सभासद आकर जुट गए॥253॥
चौपाई :
* बोले मुनिबरु समय समाना। सुनहु सभासद भरत सुजाना॥
धरम धुरीन भानुकुल भानू। राजा रामु स्वबस भगवानू॥1॥
धरम धुरीन भानुकुल भानू। राजा रामु स्वबस भगवानू॥1॥
भावार्थ:-श्रेष्ठ मुनि
वशिष्ठजी समयोचित वचन बोले- हे सभासदों! हे सुजान भरत! सुनो। सूर्यकुल के
सूर्य महाराज श्री रामचन्द्र धर्मधुरंधर और स्वतंत्र भगवान हैं॥1॥
* सत्यसंध पालक श्रुति सेतू। राम जनमु जग मंगल हेतु॥
गुर पितु मातु बचन अनुसारी। खल दलु दलन देव हितकारी॥2॥
गुर पितु मातु बचन अनुसारी। खल दलु दलन देव हितकारी॥2॥
भावार्थ:-वे सत्य
प्रतिज्ञ हैं और वेद की मर्यादा के रक्षक हैं। श्री रामजी का अवतार ही जगत
के कल्याण के लिए हुआ है। वे गुरु, पिता और माता के वचनों के अनुसार चलने
वाले हैं। दुष्टों के दल का नाश करने वाले और देवताओं के हितकारी हैं॥2॥
* नीति प्रीति परमारथ स्वारथु। कोउ न राम सम जान जथारथु॥
बिधि हरि हरु ससि रबि दिसिपाला। माया जीव करम कुलि काला॥3॥
बिधि हरि हरु ससि रबि दिसिपाला। माया जीव करम कुलि काला॥3॥
भावार्थ:-नीति, प्रेम,
परमार्थ और स्वार्थ को श्री रामजी के समान यथार्थ (तत्त्व से) कोई नहीं
जानता। ब्रह्मा, विष्णु, महादेव, चन्द्र, सूर्य, दिक्पाल, माया, जीव, सभी
कर्म और काल,॥3॥
* अहिप महिप जहँ लगि प्रभुताई। जोग सिद्धि निगमागम गाई॥
करि बिचार जियँ देखहु नीकें। राम रजाइ सीस सबही कें॥4॥
करि बिचार जियँ देखहु नीकें। राम रजाइ सीस सबही कें॥4॥
भावार्थ:-शेषजी और
(पृथ्वी एवं पाताल के अन्यान्य) राजा आदि जहाँ तक प्रभुता है और योग की
सिद्धियाँ, जो वेद और शास्त्रों में गाई गई हैं, हृदय में अच्छी तरह विचार
कर देखो, (तो यह स्पष्ट दिखाई देगा कि) श्री रामजी की आज्ञा इन सभी के सिर
पर है (अर्थात श्री रामजी ही सबके एक मात्र महान महेश्वर हैं)॥4॥
दोहा :
* राखें राम रजाइ रुख हम सब कर हित होइ।
समुझि सयाने करहु अब सब मिलि संमत सोइ॥254॥
समुझि सयाने करहु अब सब मिलि संमत सोइ॥254॥
भावार्थ:-अतएव श्री
रामजी की आज्ञा और रुख रखने में ही हम सबका हित होगा। (इस तत्त्व और रहस्य
को समझकर) अब तुम सयाने लोग जो सबको सम्मत हो, वही मिलकर करो॥254॥
चौपाई :
* सब कहुँ सुखद राम अभिषेकू। मंगल मोद मूल मग एकू॥
केहि बिधि अवध चलहिं रघुराऊ। कहहु समुझि सोइ करिअ उपाऊ॥1॥
केहि बिधि अवध चलहिं रघुराऊ। कहहु समुझि सोइ करिअ उपाऊ॥1॥
भावार्थ:-श्री रामजी का
राज्याभिषेक सबके लिए सुखदायक है। मंगल और आनंद का मूल यही एक मार्ग है।
(अब) श्री रघुनाथजी अयोध्या किस प्रकार चलें? विचारकर कहो, वही उपाय किया
जाए॥1॥
* सब सादर सुनि मुनिबर बानी। नय परमारथ स्वारथ सानी॥
उतरु न आव लोग भए भोरे। तब सिरु नाइ भरत कर जोरे॥2॥
उतरु न आव लोग भए भोरे। तब सिरु नाइ भरत कर जोरे॥2॥
भावार्थ:-मुनिश्रेष्ठ
वशिष्ठजी की नीति, परमार्थ और स्वार्थ (लौकिक हित) में सनी हुई वाणी सबने
आदरपूर्वक सुनी। पर किसी को कोई उत्तर नहीं आता, सब लोग भोले (विचार शक्ति
से रहित) हो गए। तब भरत ने सिर नवाकर हाथ जोड़े॥2॥
* भानुबंस भए भूप घनेरे। अधिक एक तें एक बड़ेरे॥
जनम हेतु सब कहँ कितु माता। करम सुभासुभ देइ बिधाता॥3॥
जनम हेतु सब कहँ कितु माता। करम सुभासुभ देइ बिधाता॥3॥
भावार्थ:-(और कहा-)
सूर्यवंश में एक से एक अधिक बड़े बहुत से राजा हो गए हैं। सभी के जन्म के
कारण पिता-माता होते हैं और शुभ-अशुभ कर्मों को (कर्मों का फल) विधाता देते
हैं॥3॥
* दलि दुख सजइ सकल कल्याना। अस असीस राउरि जगु जाना॥
सो गोसाइँ बिधि गति जेहिं छेंकी। सकइ को टारि टेक जो टेकी॥4॥
सो गोसाइँ बिधि गति जेहिं छेंकी। सकइ को टारि टेक जो टेकी॥4॥
भावार्थ:-आपकी आशीष ही
एक ऐसी है, जो दुःखों का दमन करके, समस्त कल्याणों को सज देती है, यह जगत
जानता है। हे स्वामी! आप ही हैं, जिन्होंने विधाता की गति (विधान) को भी
रोक दिया। आपने जो टेक टेक दी (जो निश्चय कर दिया) उसे कौन टाल सकता है?॥4॥
* बूझिअ मोहि उपाउ अब सो सब मोर अभागु।
सुनि सनेहमय बचनगुर उर उमगा अनुरागु॥255॥
सुनि सनेहमय बचनगुर उर उमगा अनुरागु॥255॥
भावार्थ:-अब आप मुझसे उपाय पूछते हैं, यह सब मेरा अभाग्य है। भरतजी के प्रेममय वचनों को सुनकर गुरुजी के हृदय में प्रेम उमड़ आया॥255॥
चौपाई :
* तात बात फुरि राम कृपाहीं। राम बिमुख सिधि सपनेहुँ नाहीं॥
सकुचउँ तात कहत एक बाता। अरध तजहिं बुध सरबस जाता॥1।
सकुचउँ तात कहत एक बाता। अरध तजहिं बुध सरबस जाता॥1।
भावार्थ:-(वे बोले-) हे
तात! बात सत्य है, पर है रामजी की कृपा से ही। राम विमुख को तो स्वप्न में
भी सिद्धि नहीं मिलती। हे तात! मैं एक बात कहने में सकुचाता हूँ। बुद्धिमान
लोग सर्वस्व जाता देखकर (आधे की रक्षा के लिए) आधा छोड़ दिया करते हैं॥1॥
* तुम्ह कानन गवनहु दोउ भाई। फेरिअहिं लखन सीय रघुराई॥
सुनि सुबचन हरषे दोउ भ्राता। भे प्रमोद परिपूरन गाता॥2॥
सुनि सुबचन हरषे दोउ भ्राता। भे प्रमोद परिपूरन गाता॥2॥
भावार्थ:-अतः तुम दोनों
भाई (भरत-शत्रुघ्न) वन को जाओ और लक्ष्मण, सीता और श्री रामचन्द्र को लौटा
दिया जाए। ये सुंदर वचन सुनकर दोनों भाई हर्षित हो गए। उनके सारे अंग
परमानंद से परिपूर्ण हो गए॥2॥
* मन प्रसन्न तन तेजु बिराजा। जनु जिय राउ रामु भए राजा॥
बहुत लाभ लोगन्ह लघु हानी। सम दुख सुख सब रोवहिं रानी॥3॥
बहुत लाभ लोगन्ह लघु हानी। सम दुख सुख सब रोवहिं रानी॥3॥
भावार्थ:-उनके मन
प्रसन्न हो गए। शरीर में तेज सुशोभित हो गया। मानो राजा दशरथजी उठे हों और
श्री रामचन्द्रजी राजा हो गए हों! अन्य लोगों को तो इसमें लाभ अधिक और हानि
कम प्रतीत हुई, परन्तु रानियों को दुःख-सुख समान ही थे (राम-लक्ष्मण वन
में रहें या भरत-शत्रुघ्न, दो पुत्रों का वियोग तो रहेगा ही), यह समझकर वे
सब रोने लगीं॥3॥
* कहहिं भरतु मुनि कहा सो कीन्हे। फलु जग जीवन्ह अभिमत दीन्हे॥
कानन करउँ जनम भरि बासू। एहि तें अधिक न मोर सुपासू॥4॥
कानन करउँ जनम भरि बासू। एहि तें अधिक न मोर सुपासू॥4॥
भावार्थ:-भरतजी कहने
लगे- मुनि ने जो कहा, वह करने से जगतभर के जीवों को उनकी इच्छित वस्तु देने
का फल होगा। (चौदह वर्ष की कोई अवधि नहीं) मैं जन्मभर वन में वास करूँगा।
मेरे लिए इससे बढ़कर और कोई सुख नहीं है॥4॥
दोहा :
* अंतरजामी रामु सिय तुम्ह सरबग्य सुजान।
जौं फुर कहहु त नाथ निज कीजिअ बचनु प्रवान॥256॥
जौं फुर कहहु त नाथ निज कीजिअ बचनु प्रवान॥256॥
भावार्थ:-श्री
रामचन्द्रजी और सीताजी हृदय की जानने वाले हैं और आप सर्वज्ञ तथा सुजान
हैं। यदि आप यह सत्य कह रहे हैं तो हे नाथ! अपने वचनों को प्रमाण कीजिए
(उनके अनुसार व्यवस्था कीजिए)॥256॥
चौपाई :
* भरत बचन सुनि देखि सनेहू। सभा सहित मुनि भए बिदेहू॥
भरत महा महिमा जलरासी। मुनि मति ठाढ़ि तीर अबला सी॥1॥
भरत महा महिमा जलरासी। मुनि मति ठाढ़ि तीर अबला सी॥1॥
भावार्थ:-भरतजी के वचन
सुनकर और उनका प्रेम देखकर सारी सभा सहित मुनि वशिष्ठजी विदेह हो गए (किसी
को अपने देह की सुधि न रही)। भरतजी की महान महिमा समुद्र है, मुनि की
बुद्धि उसके तट पर अबला स्त्री के समान खड़ी है॥1॥
* गा चह पार जतनु हियँ हेरा। पावति नाव न बोहितु बेरा॥
औरु करिहि को भरत बड़ाई। सरसी सीपि कि सिंधु समाई॥2॥
औरु करिहि को भरत बड़ाई। सरसी सीपि कि सिंधु समाई॥2॥
भावार्थ:-वह (उस समुद्र
के) पार जाना चाहती है, इसके लिए उसने हृदय में उपाय भी ढूँढे! पर (उसे पार
करने का साधन) नाव, जहाज या बेड़ा कुछ भी नहीं पाती। भरतजी की बड़ाई और कौन
करेगा? तलैया की सीपी में भी कहीं समुद्र समा सकता है?॥2॥
* भरतु मुनिहि मन भीतर भाए। सहित समाज राम पहिं आए॥
प्रभु प्रनामु करि दीन्ह सुआसनु। बैठे सब सुनि मुनि अनुसासनु॥3॥
प्रभु प्रनामु करि दीन्ह सुआसनु। बैठे सब सुनि मुनि अनुसासनु॥3॥
भावार्थ:-मुनि वशिष्ठजी
की अन्तरात्मा को भरतजी बहुत अच्छे लगे और वे समाज सहित श्री रामजी के पास
आए। प्रभु श्री रामचन्द्रजी ने प्रणाम कर उत्तम आसन दिया। सब लोग मुनि की
आज्ञा सुनकर बैठ गए॥3॥
* बोले मुनिबरु बचन बिचारी। देस काल अवसर अनुहारी॥
सुनहु राम सरबग्य सुजाना। धरम नीति गुन ग्यान निधाना॥4॥
सुनहु राम सरबग्य सुजाना। धरम नीति गुन ग्यान निधाना॥4॥
भावार्थ:-श्रेष्ठ मुनि
देश, काल और अवसर के अनुसार विचार करके वचन बोले- हे सर्वज्ञ! हे सुजान! हे
धर्म, नीति, गुण और ज्ञान के भण्डार राम! सुनिए-॥4॥
दोहा :
* सब के उर अंतर बसहु जानहु भाउ कुभाउ।
पुरजन जननी भरत हित होइ सो कहिअ उपाउ॥257॥
पुरजन जननी भरत हित होइ सो कहिअ उपाउ॥257॥
भावार्थ:-आप सबके हृदय
के भीतर बसते हैं और सबके भले-बुरे भाव को जानते हैं, जिसमें पुरवासियों
का, माताओं का और भरत का हित हो, वही उपाय बतलाइए॥257॥
चौपाई :
* आरत कहहिं बिचारि न काऊ। सूझ जुआरिहि आपन दाऊ॥
सुनि मुनि बचन कहत रघुराऊ॥ नाथ तुम्हारेहि हाथ उपाऊ॥1॥
सुनि मुनि बचन कहत रघुराऊ॥ नाथ तुम्हारेहि हाथ उपाऊ॥1॥
भावार्थ:-आर्त (दुःखी)
लोग कभी विचारकर नहीं कहते। जुआरी को अपना ही दाँव सूझता है। मुनि के वचन
सुनकर श्री रघुनाथजी कहने लगे- हे नाथ! उपाय तो आप ही के हाथ है॥1॥
* सब कर हित रुख राउरि राखें। आयसु किए मुदित फुर भाषें॥
प्रथम जो आयसु मो कहुँ होई। माथें मानि करौं सिख सोई॥2॥
प्रथम जो आयसु मो कहुँ होई। माथें मानि करौं सिख सोई॥2॥
भावार्थ:-आपका रुख रखने
में और आपकी आज्ञा को सत्य कहकर प्रसन्नता पूर्वक पालन करने में ही सबका
हित है। पहले तो मुझे जो आज्ञा हो, मैं उसी शिक्षा को माथे पर चढ़ाकर
करूँ॥2॥
* पुनि जेहि कहँ जस कहब गोसाईं। सो सब भाँति घटिहि सेवकाईं॥
कह मुनि राम सत्य तुम्ह भाषा। भरत सनेहँ बिचारु न राखा॥3॥
कह मुनि राम सत्य तुम्ह भाषा। भरत सनेहँ बिचारु न राखा॥3॥
भावार्थ:-फिर हे गोसाईं!
आप जिसको जैसा कहेंगे वह सब तरह से सेवा में लग जाएगा (आज्ञा पालन करेगा)।
मुनि वशिष्ठजी कहने लगे- हे राम! तुमने सच कहा। पर भरत के प्रेम ने विचार
को नहीं रहने दिया॥3॥
* तेहि तें कहउँ बहोरि बहोरी। भरत भगति बस भइ मति मोरी॥
मोरें जान भरत रुचि राखी। जो कीजिअ सो सुभ सिव साखी॥4॥
मोरें जान भरत रुचि राखी। जो कीजिअ सो सुभ सिव साखी॥4॥
भावार्थ:-इसीलिए मैं
बार-बार कहता हूँ, मेरी बुद्धि भरत की भक्ति के वश हो गई है। मेरी समझ में
तो भरत की रुचि रखकर जो कुछ किया जाएगा, शिवजी साक्षी हैं, वह सब शुभ ही
होगा॥4॥
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